प्रसन्न सार्थक सफल सुखी जीवन : ध्वज चित्र जिनाली पारिख
पश्चिमी मनोविज्ञान में पिछले कुछ वर्षों में प्रसन्न जीवन (happy) और सार्थक जीवन (meaningful) के प्रश्न को लेकर अनेक अध्ययन एवं आलेख प्रकाशित हुए। इनमें से अधिकतर अध्ययन सुख एवं सार्थकता को एक दूसरे का पूरक नहीं मानते हुए दोनों में अन्तर ढूँढ़ उनकी व्याख्या करते हैं। यदि दोनों में अन्तर है तो स्वाभाविक प्रश्न उठता है अच्छा जीवन किसे कहा जाय और कैसे जीवन व्यतीत किया जाय? प्रसन्नता की खोज पश्चिमी जनमानस का एक महत्त्वपूर्ण आधार है। अमेरिकी स्वतंत्रता घोषणा में लिखे शब्द pursuit of happiness को अधिकांशतया लोग जीवन का लक्ष्य मानते हैं। प्रसन्नता एवं सार्थकता के बीच अर्थहीन से प्रतीत होते विभाजन पर अनेक गम्भीर अध्ययन हुए हैं।
Journal of Positive Psychology में वर्ष २०१३ में प्रकाशित बहुचर्चित अध्ययन Some Key Differences between a Happy Life and a Meaningful Life में ऐसे कारकों का अध्ययन किया गया जिनसे जीवन सार्थक तो प्रतीत होता है परंतु प्रसन्न नहीं तथा वैसे कारकों का भी जिनसे जीवन प्रसन्न तो प्रतीत होता है परंतु सार्थक नहीं। अर्थात प्रसन्नता तथा सार्थकता में विरोधाभास है। लेखकों ने ४०० लोगों के आँकड़ों पर सांख्यिकीय अध्ययन से इस बात का अध्ययन किया कि प्रसन्नता का स्तर एवं जीवन की सार्थकता तथा दैनिक जीवन के अन्य कारकों यथा व्यवहार, मन:स्थिति, सम्बन्ध, स्वास्थ्य, तनाव, कलात्मकता इत्यादि में किस प्रकार का सम्बन्ध है।
इस शोध के महत्त्वपूर्ण बिंदुओं में से एक यह था कि प्रसन्न व्यक्ति वे होते हैं जो अपने आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाते हैं परंतु सार्थक जीवन हेतु इस बात का विशेष महत्त्व नहीं है अर्थात स्वास्थ्य, धन, जीवन की सहजता इत्यादि से प्रसन्नता तो मिलती है परंतु जीवन को सार्थक बनाने में इनका योगदान नहीं है। इसी प्रकार दूसरा अवलोकन यह था कि प्रसन्नता की अनुभूति वर्तमान में जीने से होती है परंतु सार्थकता उन व्यक्तियों जो भूत और भविष्य के बारे में अधिक सोचते रहते हैं। सार्थकता दान देने वाले व्यक्तियों को अधिक होती है परंतु प्रसन्नता पाने वाले को। एक चौंकाने वाला निष्कर्ष यह था कि सार्थक जीवन में तनाव और कठिनाइयाँ अधिक होती है।
वर्ष २०१४ में साइंटिफ़िक अमेरिकन में प्रकाशित आलेख A Happy Life may not be a Meaningful Life ) में भी ऐसे ही प्रश्नों एवं अध्ययनों की चर्चा की गयी। वर्ष २०१३ में Psychological Science में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन Residents of Poor Nations Have a Greater Sense of Meaning in Life Than Residents of Wealthy Nations में भी इसी प्रकार का निष्कर्ष था कि धनी देशों के लोग प्रसन्न तो होते हैं परंतु उन्हें अपना जीवन सार्थक नहीं लगता।
सूक्ष्म अवलोकन से इस अन्तर का कारण स्पष्ट हो जाता है, वह है – सुख की सीमित परिभाषा। पश्चिमी साहित्य तथा अध्ययनों में मानी गयी प्रसन्नता की परिभाषा वही है जिसे सनातन दर्शन में मृग-मरीचिका या क्षणिक सुख कहा गया है तथा सार्थक जीवन – पुरुषार्थ। इनसे परे जिस शाश्वत सुख की परिकल्पना सनातन दर्शन में है उसके अंतर्गत ये सारी अवस्थाएँ विशेषावस्था हैं तथा एक दूसरे की पूरक, विरोधाभासी नहीं । इस दृष्टि से अवलोकन करें तो इन नए अध्ययनों से उपजे प्रश्नों का उत्तर स्वतः ही स्पष्ट हो जाता हैं तथा विवाद अर्थहीन हो जाता है क्योंकि प्रसन्नता का अर्थ इन अध्ययनों में आमोद और उपभोग (pleasure) ही है! यदि अध्ययन जीवन के पूर्ण सन्तोष तथा सुख को कारक बना कर किए जाएँ तो यह विभेद उत्पन्न ही नहीं होगा। सनातन दर्शन के सन्दर्भ में यह अवलोकन अन्यथा ही नहीं है, आधुनिक मनोविज्ञान में भी इस विस्तृत परिभाषा की दिशा में अध्ययन हो रहे हैं।
इलिनॉ विश्वविद्यालय के प्रो. एड ड़ाइनर प्रसन्नता या सार्थकता के विवाद से समझने के स्थान पर सुख को subjective well-being कहते हैं। कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय की प्रो. सान्या ल्यूबोर्मिरसकी भी इसी दिशा में इन अध्ययनों से उपजे विवाद को निरर्थक कहती हैं,“When you feel happy, and you take out the meaning part of happiness, it’s not really happiness. So, although the studies referred to happiness, perhaps it was actually looking at something more like Hedonic pleasure – the part of happiness that involves feeling good without the part that involves deeper life satisfaction.” अर्थात इन प्रश्नों की उपज ही इसलिए है कि व्यक्ति सुख की खोज प्रायः: बिना यह जाने ही करते हैं कि सुख है क्या! अध्ययनों का यह निष्कर्ष कि जीवन में सार्थकता मात्र जटिल प्रयासों में लगने से ही होती है तथा सार्थक जीवन प्रसन्न जीवन नहीं होता; सीमित परिभाषाओं का ही परिणाम है।
सनातन दर्शन में सफल और सार्थक जीवन के लिए जिस गहरी समदृष्टि की बात की गयी है, उस दृष्टि से ये आधुनिक अध्ययन एवं विवाद हास्यास्पद प्रतीत होते हैं। सनातन दर्शन में तो बारम्बार यही कहा गया है कि मृग मरीचिका से प्रसन्नता को परिभाषित करने पर भला जीवन में सार्थकता कैसे हो सकती है? जो व्यक्ति इस भ्रम में जी रहा है, जो सुख शाश्वत नहीं है, उसके पीछे मृग-मरीचिका की भाँति भागना अर्थहीन (meaningless) ही तो होगा। सनातन दर्शन सटीक ही कहते हैं कि भौतिक वस्तुओं में सुख की खोज करना निरर्थक ही नहीं, दुःख का कारण भी है। यदि सुख की सटीक समझ हो तो सफल सुखी जीवन एवं सार्थकता भिन्न कहाँ है। ये अध्ययन उसी प्रकार हैं जैसे मात्र भौतिक सम्पन्नता हो परन्तु सार्थ का अर्थ ही नहीं ज्ञात हो :
रूप यौवन सम्पन्ना विशाल कुल सम्भवा l
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ll की भाँति।
सुख के लिए तो दृष्टि होनी चाहिए :
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः॥
गीता के द्वितीय अध्याय में अन्तःकरण की प्रसन्नता के सुन्दर वर्णन का अवलोकन करें :
रागद्वेषवियुक्तैः, तु, विषयान्, इन्द्रियैः, चरन्,
आत्मवश्यैः, विधेयात्मा, प्रसादम्, अधिगच्छति॥
प्रसादे, सर्वदुःखानाम्, हानिः, अस्य, उपजायते,
प्रसन्नचेतसः, हि, आशु, बुद्धिः, पर्यवतिष्ठते॥
न, अस्ति, बुद्धिः, अयुक्तस्य, न, च, अयुक्तस्य, भावना,
न, च, अभावयतः, शान्तिः, अशान्तस्य, कुतः, सुखम्॥
आपूर्यमाणम्, अचलप्रतिष्ठम्, समुद्रम्, आपः, प्रविशन्ति, यद्वत्,
तद्वत्, कामाः, यम्, प्रविशन्ति, सर्वे, सः, शान्तिम्, आप्नोति, न, कामकामी॥
सनातन परिभाषित सुख एवं सार्थकता की दृष्टि से अवलोकन करें तो इन अध्ययनों के विभेद स्पष्ट भी होते हैं और उनका सही अर्थों में कारण भी।