भोजन का सनातन दर्शन। क्या अन्य कार्य करते हुए भोजन करने का कोई हानि-लाभ पक्ष है? आज के व्यस्त जीवन में भागते हुए भोजन करने पर आधुनिक मनोविज्ञान क्या कहता है?
अनेक शास्त्रों और आयुर्वेद में भोजन ग्रहण करने की प्रक्रिया का विस्तृत विवरण मिलता है। लोक परम्पराओं में भी भोजन करते समय मौन रहने तथा सचेत रहते हुए मंद गति से भोजन करने का प्रचलन है। चाणक्य के अनुसार :
ये तु संवत्सरं पूर्णं नित्यं मौनेन भुञ्जते।
युगकोटिसहस्रेस्तु स्वर्गलोके महीयते॥
महाभारत में भी निर्देश है :
पञ्चार्द्रोभोजनं कुर्य्यात् प्राङ्मुखोमौनमास्थितः।
हस्तौपादौ तथैवास्यमेषु पञ्चार्द्रता मता ॥
यही नहीं अन्न को तो प्राण तथा ब्रह्म (अन्नं ब्रह्म ) भी माना गया है – प्राणः प्राण भूतानाम् अन्नः। अन्न की निंदा नहीं करनी चाहिए ऐसा भी कहा गया है – अन्नं न निन्द्यात् ।
आयुर्वेद में आरोग्य प्राप्ति के लिए हितकारी आहार के सेवन के साथ साथ किस प्रकार भोजन करें, इसे भी नितांत आवश्यक माना गया है। यही नहीं आहार प्रक्रिया का वर्णन तो मानो योग ही हो :
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥
सारांश यह कि आहार की महत्ता एवं भोजन ग्रहण प्रक्रिया के बारे में शास्त्र हमें सक्रिय रूप से चिंतन और विचार करने की शिक्षा देते हैं। जो ऐसा नहीं करते वे निश्चय ही निरोग तथा एकाग्रचित्त नहीं हो सकते, साधना नहीं कर सकते। व्यक्तित्व के अतिरिक्त शास्त्रों में भोजन के आधार पर भी व्यक्ति का विभिन्न श्रेणियों में विभाजन किया गया है – सात्विक, राजसी एवं तामसी।
यत् करोषि यत् अश्नासि यत् जुहोषि ददासि यत् ।
यत् तपस्यसि कौन्तेय तत् कुरुष्व मत् अर्पणम् ॥
स्पष्ट है व्यक्ति को भोजन ग्रहण करते समय एकाग्रचित्त रहना चाहिए – आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः। आश्चर्य नहीं कि अन्य सनातन संप्रदायों विशेषतया जैन धर्म में भी आहार की पवित्रता को अत्यधिक महत्व दिया गया है। महावीर का आहार-विवेक दर्शन भी अनूठा है।
आयुर्वेद के अनुसार भी आहार से आरोग्य संवर्धन होता है तथा अयोग्य पद्धति से आहार ग्रहण व्याधियों का प्रमुख कारण है। चरकसंहिता में निरोगत्व का मुख्य आधार नियोजित आहार, समुचित निद्रा एवं संयम है। आयुर्वेद में भोजन ग्रहण के समय मात्र भोजन पर ध्यान देने की अवधारणा है तो नित्य नियमों में भी आचमन कर स्वस्थ मन से भोजन करने की परम्परा। सनातन जीवन शैली में भोजन ग्रहण योग सदृश है। अन्न को सम्मान की दृष्टि से देखने व प्रसन्नतापूर्वक अभिनंदन-प्रशंसा एवं प्रणाम करते हुए सुखपूर्वक सुखदायक आसन पर बैठ एकाग्रचित्त एवं मौन हो योग संसाधन सदृश भोजन करने की परम्परा का भला क्या अर्थ हो सकता है?
व्यस्त आधुनिक जीवन में शांत वातावरण तथा मनोनुकूल स्थान ढूँढने के स्थान पर क्या अन्य कार्य करते हुए ही त्वरित भोजन कर लेना समय की बचत एवं उचित नहीं होगा – कार्य करते हुए, फोन या टेलिविजन देखते हुए, किसी से बातचीत करते हुए या चलते फिरते?
इस प्रश्न के संदर्भ में आधुनिक मनोविज्ञान का अवलोकन करें तो इस विषय में किए गए अनेक अध्ययनों में अप्रैल, २०१३ ग्रे. में American Journal of Clinical Nutrition में प्रकाशित चौबीस अध्ययनों का सर्वेक्षण प्रमुख प्रतीत होता है, जिसके अनुसार अन्य कार्यों को करते हुए भोजन करने पर भोजन स्वादरहित तो प्रतीत होता ही है, ऐसा करने वाले व्यक्ति भोजन भी अत्यधिक करते हैं। एकाग्रचित हो भोजन करने वाले भोजन के स्वाद का आनंद लेने के साथ साथ अल्पाहारी भी होते हैं।
वर्ष २०१३ में ही Psychological Science में प्रकाशित एक अध्ययन Leaving a Flat Taste in Your Mouth: Task Load Reduces Taste Perception के अनुसार भी भोजन ग्रहण के समय कोई भी अन्य कार्य करने पर हमारे स्वाद की अनुभूति क्षीण हो जाती है, जिससे हम भोजन अधिक मात्रा में करते हैं। इस अध्ययन के भिन्न भिन्न प्रयोगों में व्यक्तियों को विभिन्न प्रकार का भोजन करते हुए एक अंक या सात अंको की एक संख्या को स्मृतिस्थ करने को कहा गया। भोजनोपरान्त जब उनसे स्वाद के बारे में पूछा गया तो अधिक संज्ञानात्मक (cognitive load) अर्थात सात अंको की एक बड़ी संख्या स्मृतिस्थ करने का कार्य करने वाले व्यक्तियों ने भोजन को स्वादरहित बताया। परन्तु इससे महत्वपूर्ण यह था कि ऐसे व्यक्तियों ने भोजन भी अधिक किया। शोधकर्ताओं के अनुसार भोजन ग्रहण करते समय कुछ भी अन्य कार्य करने से मस्तिष्क का संवेदी तंत्र प्रभावित होता है। अन्य अध्ययनों में पाया गया कि एकाग्रचित (mindful) हो तथा स्वाद पर ध्यान केंद्रित कर भोजन करने से व्यक्ति स्वतः ही मिताहारी होता है, और मिताहार के लाभ तो अनेक हैं ही।
भोजन ग्रहण करते समय कुछ भी और करने से व्यक्ति अनजाने में उदरम्भर हो जाता है। जब हम एकाग्रचित होकर भोजन करते हैं तब हमारा मस्तिष्क स्वाद पर ध्यान केंद्रित करते हुए अल्प भोजन से ही तृप्त हो जाता है। इसके विपरीत भोजन करते समय अन्य कार्य करने से मस्तिष्क को स्वाद की अनुभूति ही नहीं होती और ऐसा होने से मस्तिष्क के संवेदी तंत्र व्यक्ति को स्वाद की अनुभूति के लिए और अधिक खाने को प्रेरित करते रहते हैं अर्थात अन्य कार्यों को करते हुए भोजन करने से अस्वास्थ्यकर अभ्यास विकसित होते हैं। सुनने में सामान्य प्रतीत होने वाली यह समस्या अत्यंत गम्भीर है। मनःचिकित्सा (Psychiatry ) के क्षेत्र में भोजन विकार (eating disorder, 1, 2, 3) एक गम्भीर मानसिक विकार है जिससे व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर अत्यंत ही बुरा प्रभाव पड़ता है।
२००५ में प्रकाशित मार्क डेविड की पुस्तक The Slow Down Diet के अनुसार भोजन करते समय एकाग्र नहीं होने पर पाचन तंत्र भी प्रभावित होता है और शरीर पोषक तत्वों को आत्मसात नहीं कर पाता। पाचन तंत्र को समुचित रूप से कार्य करने के लिए शरीर को CPDR (cephalic phase digestive response) प्रक्रिया की आवश्यकता होती है अर्थात वह प्रक्रिया जिससे शरीर भोजन को आत्मसात करता है। भोजन करते समय एकाग्रचित्त न होने से यह प्रक्रिया प्रभावित होती है जिससे अनेक व्याधियाँ जन्म लेती हैं। संक्षेप में आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार भोजन करते समय मस्तिष्क और शरीर के दो प्रमुख कार्य होते हैं :
१. यह बताना कि आवश्यकता भर का भोजन हमने कर लिया और,
२. भोजन को पचाना तथा पोषक तत्वों को आत्मसात करना।
इन दोनों ही लक्ष्यों की पूर्ति के लिए एकाग्रचित हो भोजन करना अति आवश्यक है।
पोषण विशेषज्ञ (Nutritionist) इन अध्ययनों के आधार पर व्यक्ति को उसी रूप में भोजन (Mindful Eating) करने का सुझाव देने लगे हैं जिनका सूक्ष्म अवलोकन सनातन दर्शन के संदर्भ में किया गया। भोजन को पूर्ण ध्यान केंद्रित कर करने का सुझाव, बिना किसी बाधा के (टेलिविजन, फ़ोन इत्यादि)।
Harvard Health Publishing के एक आलेख के अनुसार :
Mindful eating is an application of a broader approach to living called mindfulness. It involves being fully aware of what is happening within and around you at the moment.
Applied to eating, mindfulness includes noticing the colors, smells, flavors, and textures of your food. It also means getting rid of distractions like television or reading or working on your computer.
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर् ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु ।
सह वीर्य करवावहै । तेजस्विनावाधीतमस्तु ।
मा विद्विषावहै ॥
संस्कृत श्लोकों के अर्थ वहीं पर अवश्य ही दें अन्यथा आलेख का पूरा मर्म समझने में कठिनाई होगी।
धन्यवाद। एक आशा ये भी है कि लोग इन आलेखों के माध्यम से सम्भवत: संस्कृत समझने का भी प्रयास करेंगे। भविष्य के लेखांशों में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाएगा।