विकल्प-मानक-आदर्श
सनातन बोध पिछले भाग से आगे
पारंपरिक सामाजिक मूल्यों एवं आधुनिक भौतिक एवं व्यावसायिक मानकों के तुलनात्मक अध्ययन में आधुनिक मान्यताओं की कई भ्रान्तियाँ स्पष्ट होती हैं, यथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सबसे बड़ा सुख मान लेना!
व्यक्तिगत स्वतंत्रता और विकल्पों की अधिक से अधिक उपलब्धि पर हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर डेनियल गिल्बर्ट का रोचक शोध स्वतंत्रता से सुख प्राप्ति के गलत मूल्याङ्कन की बात करता है अर्थात हम बहुधा अपनी स्वतंत्रता से मिलने वाले सुख का मिथ्यानुमान कर लेते हैं। हम हर बात के लिए अधिक से अधिक विकल्प और असीम स्वतंत्रता की आकांक्षा रखते हैं। हमें लगता है कि जिनके पास अधिक विकल्प हैं और जिनके पास अधिक व्यक्तिगत स्वतंत्रता है वे अधिक सुखी हैं। जीवन के प्रत्येक पक्ष में जिसे अनेक विकल्पों में से चयन करने की स्वतंत्रता हो वह भला क्यों सुखी नहीं रहेगा?
परन्तु प्रो. गिल्बर्ट के शोध का निष्कर्ष कुछ और था! अपने अध्ययन में उन्होंने फोटोग्राफी के छात्रों को पाठ्यक्रम के अंत में उनके द्वारा लिए गए दो सर्वश्रेष्ठ चित्र देकर उनमें से एक चुनने को कहा – एक स्वयं के लिए एवं दूसरा संस्थान के लिए। पहले तो दो में से एक चुनना ही अधिकतर छात्रों को कठिन कार्य लगा, परन्तु जब दो भिन्न भिन्न समूह के छात्रों को भिन्न विकल्प दिये गये तो बात और रोचक हो गयी। पहले समूह में कहा गया कि यदि भविष्य में कभी छात्रों का मन फिरा तो वे अपने लिये चुना चित्र दे कर दूसरा चित्र ले जा सकते हैं। दूसरे समूह में कहा गया कि चयन का निर्णय सदा के लिए है क्योंकि दूसरा चित्र दान में दे दिया जाएगा। ऐसी अवस्था में अधिकतर लोगों की रुचि पहले समूह में रहने की होती है क्योंकि हमें लगता है कि विकल्प उपलब्ध रहने से हमें अधिक प्रसन्नता मिलेगी परन्तु ऐसा पाया गया कि जिन छात्रों ने अटल निर्णय लिया वे विकल्प खुले रखने वाले लोगों से अधिक सुख-चैन से रहे!
प्रो गिल्बर्ट के अनुसार एक बार जब हमारे लिए कोई वस्तु सर्वदा के लिए चली जाती है तो मस्तिष्क इस बात की ओर ध्यान देने लगता है कि कैसे जो मिला वह जाने वाले से उत्कृष्ट था परन्तु जब तक एक से अधिक विकल्प उपलब्ध रहते हैं मन उनके बीच डोलता रहता है। जब तक कोई वस्तु विकल्प बनी रहती है, हम उसके बारे में चिंतन करते रहते हैं। एक साक्षात्कार में प्रो गिल्बर्ट ने कहा कि इस अध्ययन से सीख लेते हुए उन्होंने अपने साथ रह रही महिलामित्र से विवाह कर लिया!
इसे ‘इच्छा’ के मिथ्यानुमान से जोड़ते हुए उन्होंने मत दिया कि भविष्य को सोचते समय बहुधा हम बातों का मिथ्यानुमान करते हैं और इस कारण विकल्पों के चिंतन में उलझे रहते हैं, मन नहीं बना पाते। जब हम किसी वस्तु (या व्यक्ति) के साथ बिना विकल्प सदा सर्वदा के लिए हो जाते हैं तो हमें उसके गुण भी स्वतः ही दिखने लगते हैं। जब हम विकल्प नहीं परिवर्तित कर सकते तब मस्तिष्क ही अपने को परिवर्तित करने लगता है अन्यथा हम विविध विकल्पों के गुण-दोष ही देखते रहते हैं। इस प्रकार की स्वतंत्रता हमें आगे बढ़ने से भी रोकती है क्योंकि हम इस बात की चिंता में पड़ जाते हैं कि कहीं कोई इससे अच्छा विकल्प भी तो नहीं? अपनी पुस्तक Stumbling on Happiness में प्रो. गिल्बर्ट लिखते हैं – जब हम पूरी तरह से प्रतिबद्ध होकर स्वयं को अपरिहार्य अवस्था में पाते हैं तब ही हमारा मस्तिष्क पूरी तरह परिस्थिति और व्यवहार के अनुरूप हो पाता है।
इसे पढ़ते हुए दो नावों में सवार होने की बात से लेकर संस्कार और जो मिले उसी में प्रसन्न होने जैसी कई बातों का सार मिलता है। ‘ढेर सारे जोगी मठ उजाड़’ भी तो कहा गया है! सनातन दर्शन में यह सहज सिद्धांत कई रूप में बारम्बार आया है, गूढ़ से लेकर सहज शब्दों में भी। जहाँ पश्चिम में सम्बन्धों के बदलने की स्वतंत्रता और भौतिक प्रचुरता से सुखी होने के भ्रम की बात है, वहीं इसके विपरीत तो सनातन सामाजिक परंपरा ही रही है! प्रिय वस्तुओं में विकल्प नहीं संकल्प होने की बात। बृहदारण्यक उपनिषद के एक सुन्दर प्रसंग में याज्ञवल्क्य मैत्रेयी से विभिन्न वस्तुओं के प्रिय होने का सार बताते हुए कहते हैं,”न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवति आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति।“ – इन्द्रियों से ऊपर उठकर विभिन्न वस्तुओं (प्राणियों) के स्थान पर प्रेम के सत्य रूप का विवेचन। मन में उठते विकल्पों की तुलना में एक संकल्प की बात – एवं सर्वेषां संकल्पानां मन एकायनम्! और संकल्प के इतर तो सोचता ही वही मनुष्य है जब – यत्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतरं मनुते।
ये सिद्धांत विकल्पों में भ्रमित मन की विशेषावस्थायें ही तो हैं! भ्रमित मन पर अष्टावक्र गीता की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं –
भ्रान्तिमात्रमिदं विश्वं न किंचिदिति निश्चयी। निर्वासनः स्फूर्तिमात्रो न किंचिदिव शाम्यति॥
मा सङ्कल्पविकल्पाभ्यां चित्तं क्षोभय चिन्मय। उपशाम्य सुखं तिष्ठ स्वात्मन्यानन्दविग्रहे॥
अर्थात विभिन्न संकल्पों और विकल्पों से अपने चित्त को अशांत न कर आनंद रूप से सुख में स्थिर हो जाने का सटीक उपदेश। और जहाँ तक सम्बंधों के विकल्प में उलझने की बात है तो फिर अष्टावक्र के प्रसिद्ध कथन – सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि। विज्ञाय निरहंकारो निर्ममस्त्वं सुखी भव, से सोचें तो ये विकल्प उत्पन्न ही नहीं होंगे !
संकल्प-विकल्प रहित मन का वर्णन भी ग्रंथों में अनेकों बार आया है। श्रीमद्भागवत महापुराण के एकादश स्कन्ध में उद्भव को समझाते हुए भगवान् कहते हैं कि अज्ञान के वश में जीव जब अपने चैतन्य स्वरूप को भूलकर सर्वथा भ्रम वाली अहम् बुद्धि को प्रभावी कर लेता है तब मन घोर रजोगुण की ओर झुक जाता है जिससे संकल्प-विकल्पों का ताँता बँध जाता है, जिससे वह विषयों का चिन्तन करने लगता है तथा इस प्रकार दुर्बुद्धि के कारण काम के पाश में उलझ जाता है। वह अज्ञानी इन्द्रियों के वश होकर अनेक प्रकार के कर्म करने लगता है, यह जान कर भी कि इन कर्मों का अन्तिम फल दुःख ही है!
सनातन बोध की बातें ही नहीं, कई पारम्परिक आदर्श विभिन्न कारणों से धीरे धीरे परिवर्तित होकर लुप्त हो जाते हैं! सामाजिक आदर्श (social norms) से जुड़े कई रोचक शोधों को प्रो. डैन एरिएली ने अपनी पुस्तक प्रेडिक्टेबली इरेशनल में बताते हुये इस बात को प्रस्तुत किया है। एक सरल उदाहरण से वह सामाजिक आदर्श और व्यवसायिक मानक को इस प्रकार समझाते हैं – हम कई काम बिना किसी धन के प्रसन्न होकर करते हैं पर यदि हमें उन कामों के लिए कोई धन देने लगे तो हमें बुरा तो लगता ही है, उसके पश्चात बहुधा हम वे काम करना भी बंद कर देते हैं। उदाहरण के लिये यदि हम किसी मित्र को भोजन पर आमंत्रित करे और भोजनोपरांत मित्र हमें भोजन का मूल्य भुगतान करने को कहे! हम किसी की सहायता करें और उसके लिए कोई हमें भुगतान करने को कह दे! कुछ इस प्रकार – एक बौद्ध भिक्षु अपने शिष्यों को निःशुक्ल शिक्षा प्रदान करते थे। उनके शिष्यों को यह बात अच्छी नहीं लगी। उन्होंने गुरु से उनकी शिक्षा का उचित मूल्य पूछा तो गुरु ने कहा,”यदि मैं शुल्क बता दूँ तो तुम सबमें उसका वहन करने की सामर्थ्य नहीं!”
इसी सन्दर्भ में वे प्रो. युरी ग्नीजी और अल्डो रुस्तिचिनी के अध्ययन की चर्चा करते हैं जिसमें इजराएल के एक शिशुसदन से बच्चों को समय पर लाने वाले अभिभावकों पर सामाजिक आदर्श और व्यावसायिक आदर्श के प्रभाव का अध्ययन किया गया। जब तक शिशुसदन से शिशुओं को लौटा ले जाने के लिए विलम्ब से आने पर कोई अर्थदंड नहीं था तब तक अभिभावक विलम्ब के लिए अपराध की अनुभूति करते थे। पर जब शिशुसदन ने इसके लिए अर्थदण्ड लगा दिया तब अभिभावकों को लगने लगा कि यदि किसी कार्यवश आवश्यकता हुई तो वे विलम्ब से आ सकते हैं और बहुधा अभिभावक विलम्ब करने लगे। इसमें रोचक बात यह भी हुई कि कुछ समय पश्चात जब शिशुसदन ने अर्थदंड हटा दिया तब भी लोग सामाजिक आदर्श की तरह लौटे नहीं बल्कि उन्हें ये लगने लगा कि – ठीक ही तो है, शिथिलता की कोई सजा नहीं होती! सामाजिक मूल्यों के व्यावसायिक प्रभाव से ह्रास का इससे सटीक उदाहरण भला क्या होगा।
दीर्घ काल से चले आ रहे सनातन एवं सामाजिक मूल्य आदर्श जब आधुनिक भौतिक मानकों से प्रभावित हो स्खलित हो जाते हैं तो उनका पुनर्स्थापन कठिन होता है। वे लुप्त होते चले जाते हैं। प्रभावी दिखने पर भी आधुनिक भौतिक मानक सामाजिक मूल्यों का स्थान नहीं ले सकते। सामाजिक आदर्श (social norms) एवं व्यावसायिक आदर्श (market norms) की तुलना वाले अध्ययनों से संस्कार, स्वधर्म और सनातन सद्गुणों की महत्ता का भी अनुमान लगता है।
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(क्रमश:)