संसार में ज्ञान का अभाव नहीं है, प्रत्यक्ष प्रमाणों का भी नहीं है। परंतु ज्ञान का अनुभव में आना सदा ही दुष्कर रहा है। विज्ञान सहित ज्ञान किस प्रकार दुर्लभ है, इस पर भगवान स्वयं कहते हैं –
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये । यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥
अर्थात् सहस्रो मनुष्यों में कोई एक वास्तविक सिद्धिके लिये प्रयत्न करता है और उन प्रयत्नशील साधकों में भी कोई ही यथार्थ तत्त्व से जान पाता है।
इस लेखमाला में हमने अनेक भ्रांतियों का अवलोकन किया है जो वस्तुतः माया के एक अर्थ सदृश ही प्रतीत होते हैं — भ्रम और मतिभ्रम अर्थात् विषय का उसके विद्यमान वास्तविक रूप में नहीं दिखना, पदार्थ के अभाव में भी उसे देखना और उपस्थिति में भी नहीं देखना या कल्पना को प्रत्यक्ष ज्ञान समझ लेना। द्रष्टा, दृष्ट, दृश्य भेद कहें या मिथ्या ज्ञान की अविद्या जिसमें मनुष्य सदा फँसा रहता है। सनातन दर्शन में इसे बारम्बार असंख्य रूप से प्रस्तुत किया गया है। इसका प्रसिद्ध विवरण ‘ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या‘ तो है ही।
विगत वर्षों में अनेक अध्ययनों में इसी प्रकार का एक रोचक तथ्य यह उद्घाटित हुआ कि व्यक्ति अपने लाभ से जुड़ी सूचना की भी बहुधा अनदेखी करते हैं। जब सूचना किसी कड़वी औषधि की भाँति कष्टप्रद हो तब तो करते ही हैं परंतु साथ में कभी-कभी ऐसी सूचना की भी अनदेखी करते हैं जो आनंददायक हो। सूचना से ओतप्रोत इस युग में जहाँ व्यक्ति सब कुछ जानना चाहता है, ऐसा कैसे सम्भव है कि लोग सूचना की अवहेलना करते हैं? सुनने में यह सत्य प्रतीत नहीं होता। जर्मनी के मैक्स प्लैंक संस्थान और स्पेन के ग्रनाडा विश्वविद्यालय के एक सामूहिक अध्ययन में दो हजार व्यक्तियों का अवलोकन कर यह निष्कर्ष निकला कि लगभग नब्बे प्रतिशत व्यक्तियों ने इस सूचना को नहीं जानना चाहा कि उनके सहयोगी की या स्वयं उनकी मृत्यु कब और किस कारण से हो सकती है। इसी प्रकार के अन्य प्रश्नों के उत्तर के संदर्भ में भी ऐसी ही प्रतिक्रिया देखने को मिली। अर्थात् ऐसी सूचना हमें नहीं चाहिए होती है जो कष्टदायी हो या दूसरे शब्दों में ‘किं आश्चर्यं?’ के उत्तर की आधुनिक पुष्टि।
इसी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के रोचक परिणाम इस प्रकार देखने को मिलते हैं कि जब निवेश अच्छा नहीं कर रहा हो तो व्यक्ति उसके वर्तमान मूल्य की उपेक्षा करते हैं। ऐसी अवस्था में निवेश देख कर उसका उचित मूल्यांकन और निर्णय लेने के स्थान पर व्यक्ति आँखें मूँद लेता है – ‘मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाहीं’। ऐसे ही एक अन्य अध्ययन में जिन व्यक्तियों को बताया गया कि वे अल्प आकर्षक दिखते हैं वे अन्य व्यक्तियों की तुलना में कैसे दिखते हैं, यह नहीं जानने के के लिए पैसे देने तक को उद्यत हो गए!
अपने स्वास्थ्य से जुड़ी सूचना भी व्यक्ति इसी भ्रांति के कारण नहीं जानना चाहते, जहाँ ऐसे उपयोगी उद्घाटन से वे अपने लाभ के लिए उचित उपाय कर सकते हैं। जिन व्यक्तियों को आनुवंशिक व्याधियाँ होने की सम्भावना अधिक थी तथा जिनका पता लगाया सकता है ऐसे व्यक्तियों को नि:शुल्क सेवा देने पर भी मात्र सात प्रतिशत लोगों ने यह जानने में रुचि दिखायी। यौन सम्बंधित व्याधियों से जुड़ी सूचना के लिए भी व्यक्तियों में यही प्रवृत्ति देखने को मिली।
नोर्थवेस्टर्न विश्वविद्यालय की एमिली हो ने इस विषय का इस दृष्टि से अध्ययन करने का प्रयास किया कि किस प्रकार यह पता लगाया जाय कि किस सीमा तक व्यक्ति उपयोगी परंतु अप्रिय सूचना की अनदेखी करते हैं। इस क्रम में उन्होंने यह भी पाया कि ऐसा करने की प्रवृत्ति से व्यक्ति का सामान्य व्यवहार भी प्रभावित होता है। जैसे जो व्यक्ति अप्रिय सूचना की अधिक अनदेखी करते हैं, वे अन्य उपयोगी सूचना के स्रोतों और अध्ययनों की भी अनदेखी करते हैं। इस अध्ययन से प्रेरित होकर मनोवैज्ञानिकों ने यह जानने का प्रयास किया कि संभावित कष्टदायक स्थिति की भाँति क्या आनंददायक सूचना की स्थिति में भी लोग अनभिज्ञ बने रहना चाहते हैं? अप्रिय सूचना की तुलना में प्रतिशत अल्प अवश्य हुआ परन्तु तब भी लोग अनभिज्ञ बने रहना चाहते थे। उपयोगी एवं प्रिय सूचना की भी अवहेलना करना यह दर्शाता है कि यह एक मनोवैज्ञानिक भ्रांति है।
वर्ष २०१८ में प्रकाशित एक अध्ययन Closing your eyes to follow your heart: Avoiding information to protect a strong intuitive preference में भी यही प्रश्न उठा कि यदि सूचना नि:शुल्क और लाभ की हो तो भी व्यक्ति क्यों उसकी अनदेखी करते हैं?
इस अध्ययन से यह उद्घाटित हुआ कि तर्क एवं उपयोगिता के स्थान पर स्वतः ज्ञान (intuition) व्यक्ति को अधिक प्रभावित करता है, जैसे किसी खाने को देखते हुए उसमें पड़ी सामग्री से होने वाले हानि-लाभ के स्थान पर मात्र खाने के बारे में सोचना एक स्वतः प्रवृति है। अध्ययनों की कड़ी से एक और बात स्पष्ट हुई कि तथ्यों और सूचनाओं से व्यक्तियों के व्यवहार में परिवर्तन लाना अत्यंत कठिन है, विशेषकर वैसी अवस्था में जब व्यक्ति को लगता है की उन्हें सब कुछ पता है।
पुनः भर्तृहरि की दृष्टि के सदृश —
अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः । ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि नरं न रञ्जयति ॥
संज्ञानात्मक वैज्ञानिक ह्युगो मर्सर और डैन स्पर्बर की पुस्तक The Enigma of Reason इस संदर्भ में यह सिद्धांत देती है कि तर्क करने की मानवीय प्रवृति का विकास सत्य जानने के लिए नहीं वरन सामाजिक निर्वहन के लिए हुई यथा सामाजिक सहयोग एवं अन्य व्यक्तियों से वार्तालाप करने के लिए। यही नहीं, जिन व्यक्तियों में प्रतिभा होती है, या जो विशेषज्ञ हैं वे भी बहुधा अपनी प्रतिभा का उपयोग सत्य जानने के स्थान पर अपने सहज सोच को सत्य सिद्ध करने में लगा देते हैं। अर्थात् ऐसी सूचना की अधिक अनदेखी करना जो सत्य तो हो पर हमारी मान्यता को चुनौती देती हो। भर्तृहरि ने सत्य ही कहा कि ऐसे व्यक्ति को ब्रह्मा भी नहीं समझा सकते! Denying to the Grave: Why We Ignore the Facts That Will Save Us इस विषय की एक अन्य पुस्तक है।
इन सभी अध्ययनों के निष्कर्ष भी वही हैं जो हम अन्य लेखांशों में पढ़ते आ रहे हैं। यह सब उन अनगिनत पौराणिक बोध कथाओं की भाँति है जिनमें सीख यही होती है कि सब कुछ पता होते हुए भी व्यक्ति को मोह हो गया।
या परम अर्थ की खोज किसे है? सब मायाजाल में फँसे हुए चले जा रहे हैं?
‘न कश्चित् पारमार्थिकः’ कहें या – विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुष: ।
ध्वज चित्र – Enrique Meseguer from Pixabay
अन्य चित्र – Gerd Altmann from Pixabay