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मा वो॑ र॒सानि॑तभा॒ कुभा॒ क्रुमु॒र्मा व॒: सिन्धु॒र्नि री॑रमत् ।
मा व॒: परि॑ ष्ठात्स॒रयु॑: पुरी॒षिण्य॒स्मे इत्सु॒म्नम॑स्तु वः ॥ (ऋ., ५.५३.९)
ऋग्वैदिक कुभा (आज की काबुल) एवं क्रुमू (आज की कुर्रम) नदियों का क्षेत्र।
महाभारत उल्लिखित आरट्ट वाहीक (आज की बल्ख नदी) का क्षेत्र जिसमें कुछ विद्वानों के अनुसार ऋग्वैदिक पाकयाज्ञिक पक्थ जन रहते थे।
आ प॒क्थासो॑ भला॒नसो॑ भन॒न्तालि॑नासो विषा॒णिन॑: शि॒वास॑: ।
आ योऽन॑यत्सध॒मा आर्य॑स्य ग॒व्या तृत्सु॑भ्यो अजगन्यु॒धा नॄन् ॥ (ऋ., ७.१८.७)
पख्तून/पश्तून/पठान नामों से आज जाने जाते जन को वराहमिहिर की बृहत्संहिता में अवगाण बताया गया है जो कि आज के अफगान का तत्सम है
उल्काभिताडितशिखः शिखी शिवः शिवतरोऽतिवृष्टो यः।
अशुभः स एव चोलावगाणसितहूणचीनानाम्॥ (बृ.,११.६१)
अवगाण जन मानकों पर खरे नहीं उतरने के कारण बहुत पहले से आचारभ्रष्ट व्रात्य कहे जाते रहे हैं। ये अफगानी पठान युद्धलोलुप स्वाभिमानी जन हैं।
१८९३ ग्रे. में ब्रिटिश सत्ता ने डूरण्ड रेखा खींच कर उन्हें दो देशों में बाँट दिया, वे अपने काकरी बंधुओं सेविलग हो गये। १९४७ के विभाजन ने प्रवजन को बाध्य किया। प्राय: समस्त पश्तून इस्लामी आक्रमणों में मुसलमान बना दिये गये किन्तु कुछ हिन्दू पक्थ/पश्तून/पठान तब भी बच रहे जिनमें से कुछ ने भारत में शरण ली। अवगाणस्थान से हिन्दुस्तान (देवली, उनियारा, चित्तौड़गढ़ एवं पञ्जाब) तक की इस यात्रा में उन्हों ने अपनी पश्तो भाषा को बचाये रखा। उनकी महिलाओं ने विशेष परिधान काकरी कमीज एवं मुख पर गोदने की परिपाटी त्याग दी क्योंकि नये परिवेश में घुलने मिलने में उन्हें असुविधा होती थी। पीढ़ियाँ बीतीं, समय पहुँचा एक हिंदू पश्तून शिल्पी बत्रा तक जिसे पञ्जाबी बता कर पाला पोसा गया था। भारत आये पुरखों ने अपना अभिजान छिपा लिया था।
२००९ में जामिया मिलिया इस्लामिया में पत्रकारिता की पढ़ाई करती शिल्पी को पश्तो बोलने वाले कुछ अवगाणी (अफगानी) मिले तथा एक रहस्य उद्घाटित हुआ कि वह पञ्जाबी नहीं पश्तून थी। दशकों तक उनके परिवार द्वारा बचाई एवं सिखाई गई भाषा पश्तो ने अनुसंधान के द्वार खोल दिये। उन्हें ज्ञात हुआ कि १९४७ के विभाजन में सम्पूर्ण संहार से बचने हेतु क़्वेटा (अब पाकिस्तान में) से उनके परिवार वालों ने पलायन कर पहले सिंध में शरण ली, तत्पश्चात राजस्थान के देवली में आ बसे। जहाँ से उनके परिवार के लोग कालांतर में जयपुर आ गये।
अपना इतिहास जानने के पश्चात शिल्पी रुकी नहीं तथा एक नौ वर्ष लम्बी विविध अनुभवों वाली यात्रा का आरम्भ हुआ जिसमें उन्होंने बलूचिस्तान तक की यात्रा भी की। पूरे अभियान की परिणति हुई वृत्तचित्र ‘Sheenkhalai- The Blue Skin’ में। शीनखलाई पश्तो का संयुक्त शब्द है – शीन का अर्थ नीला तथा खलाई अर्थात खाल त्वचा, नीली त्वचा। यह नाम उन्होंने अपनी पुरखों के देह के नीले गोदनों के नाम पर रखा। उनके अनुसार वृत्तचरित्र बनाने का विचार उन्हें अपने ‘हिंदू पश्तून महिला’ होने के अभिजान से प्रस्फुटित हुआ।
उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय सीमा के पार की महिलाओं के साथ पश्तो गीतों के पुनरुद्धार पर काम किया है, अब भारत के हिंदू पश्तून विवाहों में भी वे गीत गाये जाने लगे हैं। वस्तुत: पश्तो गीतों ने उन्हें सीमापार की पश्तून महिलाओं से भावनात्मक रूप से जोड़ दिया। उन्होंने काबुल में डेढ़ वर्ष रह कर अपनी पश्तो भाषा को परिष्कृत किया तथा पश्तो लिपि भी सीखी जो कि भारत के हिंदू पश्तून नहीं जानते। उन्हें अंतराष्ट्रीय स्तर पर सामान्य जन, अर्द्धसरकारी संस्थाओं एवं सञ्चार माध्यमों से बहुत सहयोग मिला। वह काकरी कमीज़ कला के पुनरुद्धार पर भी एक संस्था के माध्यम से लगी हैं। अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई ने उनके प्रकल्प का उद्घाटन जयपुर साहित्य सम्मेलन में किया।
शिल्पी बत्रा आडवाणी की योजना भारत पाक विभाजन से सम्बंधित अभिलेखों, प्रमाणों, अवशेषों आदि के सार्वजनिक प्रदर्शन हेतु एक ‘Partition Archive’ बनाने की है।
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[स्रोत : विविध, अन्तर्जाल से],
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