अत्यल्प अपवादों को छोड़ दें तो जब तक दुर्भिक्ष न हो, भारत में कोई भूख से नहीं मरता, वह भारत जो India नहीं है। यहाँ India का अर्थ सुविधाओं एवं कथित विकास की उन गिल्टियों समूह से लें जो शनै: शनै: मरते गाँवों से, भारत से अपनी अभिवृद्धि का दोहन करती हैं। यह India भारत को बहुत तीव्र गति से दूषित करता हुआ उसकी शनै: शनै: हत्या कर रहा है। हम किस प्रकार के देश का निर्माण या विकास कर रहे हैं? क्या हमारे पास कोई ऐसा प्रारूप है जो हमारी अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप बिना राजनीतिक लफ्फाजियों के लगभग सर्वमान्य हो? क्या हमारे पास सतत संधारणीय प्रारूप से सम्बंधित ऐसी दीर्घकालिक नीतियाँ हैं जिन पर दलनिरपेक्ष हो हमारी आती जाती सरकारें काम करें? उत्तर है, नहीं। कटु वास्तविकता है, किंतु है तो है।
हमने काल्पनिक व दिखावटी ‘दिशा निर्देशक’ भारी शब्दों के मुखौटे पहन रखे हैं जिनके नेपथ्य में समूहगत स्वार्थों के खेल खेले जाते हैं, भावनायें भड़काई जाती हैं और सिद्धियाँ पाई जायी हैं। वस्तुत: आधुनिक समस्याओं एवं चुनौतियों के समांतर सक्षम चरित्र के निर्माण एवं विकास पर न तो हमारा ध्यान रहा और न है। हम खण्ड खण्ड India हैं और उसका विकृत रूप चीनी विषाणु की आपदा के समय दिख रहा है – प्रदर्शनप्रियता व ‘फ्री में विष मिले तो भी क़्यू में लग कर लील लें’ वाली मानसिकता के चलते अनावश्यक सङ्ग्रह। सभी निहाल हैं, प्रसन्न हैं। निठल्ले बैठ कर बाँटने भकोसने और निठल्लेपन के दुष्परिणाम आने से बीच का जो अंतराल है, उसका उपयोग व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक स्तर पर भावी सङ्कट से निपटने में सक्षम होने के लिये नहीं किया जा रहा है। यदि समय विपरीत हुआ और अर्थव्यवस्था सरकी तो १३० करोड़ की जनसंख्या पूर्णत: सरकार पर निर्भर होगी। यह लिखने की आवश्यकता ही नहीं कि तब विधि और व्यवस्था के बड़े सङ्कट सुरसा की भाँति मार्ग में मुँह बाये खड़े हो जायेंगे। राष्ट्रीय चरित्र में नवोन्मेष का कोई स्थान नहीं होना, आलस्य व कायरता आदि मिल कर हमें ‘भगवान भरोसे’ रहने वाला सबसे बड़ा ‘एकल जनसङ्ख्या समूह’ बना चुके हैं।
कोढ़ में खाज भी बहुत हैं। आयातित अरबी प्रवृत्तियों को कठोरता से धारण करने वाली एक बहुत बड़ी जनसङ्ख्या के कुकर्म देख लगता ही नहीं कि उसे इस देश के हित से कोई लेना देना भी है। भले देश में आग लगी हो किंतु खलता, दूषण और आक्रामकता की अपनी समूहसंहिता से यह जनसङ्ख्या कभी मुख नहीं मोड़ती वरन ऐसी आपदाओं के समय और बढ़ चढ़ कर लग जाती है। रोग स्पष्ट है, रोगी स्पष्ट हैं किंतु उनके भय, आतङ्क एवं नयसत्यता की बाध्यता के कारण कठोर औपचारिक उपायों की कौन कहे, सामान्य विधिक कार्रवाइयाँ भी नहीं हो रहीं जबकि यह वर्ग सङ्कट के समय दी जाने वाली सुविधाओं को हड़पने में पूरी निर्लज्जता से लगा हुआ है। पुलिसबल, चिकित्सकों व आपदा से लड़ने में लगे अन्य जन पर थूकने, उनको पीटने और निषेधों के उल्लङ्घन में यह समूह पहले दिन से जो लगा, आज तक उसी मानसिकता में है। भेंड़ मानसिकता के कारण इस वर्ग का दुरुपयोग भी स्वार्थी तत्त्वों द्वारा होता है किंतु इस वर्ग को उसमें भी अपना हित ही दिखता है।
आश्चर्य नहीं कि किसी भी औपचारिक कार्रवाई को मजहबी व अन्य विखण्डनी रंग देने में इस वर्ग के अगुआ सदैव रत रहते हैं और प्रशासन को निष्क्रिय एवं क्लीव बनाये रखते हैं। यदि इनके साथ अनियंत्रित सञ्चार माध्यमों, मतान्तरण में लगे विघटनकारी तत्त्वों, नक्सलियों को जोड़ लें तो इनकी जो सम्मिलित सामूहिक शक्ति बनती है, वह बहुत ही घातक और मारक होती है। भारत आज इनसे जूझ रहा है और दु:खद है कि न तो कर्णधारों को, न ही सामान्य जनता को कोई समाधान सूझ रहा है। पहली कक्षा से ही दूषित शिक्षापद्धति ने ऐसे करोड़ो आत्महंता युवाओं का ‘सृजन’ किया है जिन्हें दिन प्रतिदिन बढ़ती आपदा की कौन कहे, व्यक्तिगत अस्तित्वसङ्कट तक नहीं ज्ञात। वे आगत की भयावहता के विविध आयामों पर सोच ही नहीं सकते। बहुत होगा तो ‘अवसाद’ में पड़ कर बोझ हो जायेंगे किंतु यौवन-सामर्थ्य का उपयोग लड़ने एवं समाधान हेतु नहीं कर पायेंगे। हम ऐसे भावी नागरिक गढ़े जा रहे हैं।
वे भारी शब्द जो आज भारत के पाँवों में शिलाओं के समान बँधे हुये हैं, उन पर निष्पक्ष विचार, मनन होने चाहिये एवं आवश्यकता पड़े तो उनका त्याग भी। जनहित कर्म को मोहक रूमानी शब्दावली से मुक्त होना चाहिये। ऐसे शब्द केवल व्यक्ति के अवचेतन को ही नहीं प्रभावित करते, राष्ट्र के सामूहिक अवचेतन पर भी उतना ही हानिकर प्रभाव डाल देते हैं।
कुछ शब्दों पर मनन करें – अल्पसंख्यक, दलित, वंचित, स्त्री-अधिकार, बालश्रम, मजहबी स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, आजादी, भाषाई व क्षेत्रीय अस्मिता, आदिवासी, शिक्षा का अधिकार, ससर्वसुलभ शिक्षा … ऐसे अनेक शब्द हैं जो उन अवधारणाओं व सौहार्दपूर्ण उपचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो किसी भी सभ्य समाज में होने ही होने चाहिये किंतु क्या प्रथमदृष्ट्या ‘उचित और आवश्यक’ लगने वाले ये शब्द वास्तव में उन उपचारों एवं प्राथमिकताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं? उत्तर है – नहीं। इन्हें ले कर झण्डा उठाये जन का किसी भी सकारात्मक निर्माण में, पहल में या कर्म में योगदान शून्य है। वे इन शब्दों के मुखौटे ओढ़े वे जन हैं जो चुपचाप स्वार्थसिद्धि के साथ साथ इस राष्ट्र के मूल के क्षरण में लगे हैं।
इनकी अपनी एक बहुत सशक्त पारिस्थितिकी है जो इन्हें संरक्षित व परिवर्द्धित करती है। ये लोग वास्तविक जनसमस्याओं एवं दु:खों का दोहन वर्गहित साधने में करते हैं। यह बहुत ही जुगुप्सित चक्र है कि पीड़ितों के प्रतिनिधि बन कर यही सामने आते हैं तथा इन्हें साधने में तन्त्र सध जाता है, कोई प्रभावी सुधार नहीं दिखता, असंतोष घना होता बढ़ता है और ये पुन: पुन: झण्डा उठाये नारे लगाते दिखते रहते हैं। ‘वयं रक्षाम:’ का उद्घोष करते इन रावणियों ने समाज के ‘हितचिंतन’ का ही अपहरण कर लिया है, कामकाज तो होने से रहे! और तो और इनके पास प्रत्येक समाधान हेतु समस्या पहले से ही उपलब्ध रहती है।
बीते कुछ दशक अर्बुद अर्बुद श्रमघण्टों को गँवाये जाने हेतु जाने जाने चाहिये जिसका दु:श्रेय इन्हें ही जाता है। ये पर्याप्त हिंसक भी हैं तथा इनमें से कुछ पूरे भारत में ऐसे पुटक बनाने में लगे हैं जो राष्ट्र की प्रभुता को ही चुनौती देंगे। इनकी समूहहिंसा स्यात ही दण्डित होती है तथा ये बहुत ही सधे ढंग से ऐसी हिंसा करते हैं जिसका कुप्रभाव जनसामान्य, न्यायपालिका, कार्यपालिका एवं प्रशासन की सोच एवं कार्यशैली पर पड़ता ही पड़ता है। पालघर, महाराष्ट्र में दो साधुओं सहित तीन जन के साथ लूटपाट के पश्चात उनकी सामूहिक हत्या की घटना एक उदाहरण है जिसके प्रत्येक आयाम पर गम्भीरतापूर्वक विचार होना चाहिये।
सामान्य जन की सामान्य मानसिकता से लेकर विशिष्ट, शिष्ट व विकृत जनों की मानसिकताओं को मिला कर देखें तो बिना साहसिक, निर्मम व कठोर निर्णयों के यथास्थिति बनी ही रहेगी।
हम सभी विनाश के सम्मोहन में पड़े हुये विकास, अभ्युदय, कल्याण आदि के प्रलाप करते हुये अनियंत्रित, अमर्यादित,अनियोजित लड़खड़ाते हुये चले जा रहे हैं। ऐसे में भारत तिल तिल मरता व मारा जाता रहेगा। कोई भी देश सामूहिक किंकर्तव्यविमूढ़ता, निठल्लेपन और क्लैव्य के साथ न तो कभी विकसित हुआ, न होगा। यही सच है और हम जितनी शीघ्र इसे स्वीकार कर लेंगे, उतना ही अच्छा होगा।
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