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सुभाषित
धम्मपद
अलज्जिता ये लज्जन्ति लज्जिता ये न लज्जिरे।
मिच्छादिट्ठिसमादाना सत्ता गच्छन्ति दुग्गतिं॥
अभये च भयदस्सिनो भये च अभयदस्सिनो।
मिच्छादिट्ठिसमादाना सत्ता गच्छन्ति दुग्गतिं॥लज्जा न करने की बात में जो लज्जित होते हैं,
लज्जा करने की बात में लज्जित नहीं होते।भय न करने की बात में भय देखते हैं,
भय करने की बात में भय नहीं देखते।प्राणी मिथ्या-दृष्टि का ग्रहण करने से दुर्गति को प्राप्त होते हैं।
– गौतम बुद्धबुद्ध पूर्णिमा को नवें वैष्णव अवतार की जयन्ती, सम्बोधि प्राप्ति दिवस और निर्वाण दिवस; तीनों के होने की मान्यता है।
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आर्थिक समस्या हो, भय का कोई कारण उपस्थित हो या प्राण सङ्कट में हों; ऐसे में जो विचार व स्वयं से विमर्श कर कार्रवाई करने का अभ्यस्त है, वह यम पर हँसता है (अर्थात वह पार पा ही लेता है।)
कृच्छ्र एक प्रकार का कठोर व्रत होता है जिसमें देह को न केवल पोषण से वञ्चित किया जाता है, वरन अल्प व अप्रिय आहार का सेवन किया जाता है। यहाँ वैसी स्थिति आने का सङ्केत है।
कृतान्त भी सुंदर प्रयोग है। कृत है जो कुछ किया धरा है, उसका अंत अर्थात मृत्यु। एक दूसरा श्लेषार्थ हो सकता है कि सब किया धरा चला जाये तब भी हँसने की निश्चिंत अवस्था।
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मद बहाता (नर)हाथी[नाग] भाता है, आकाश जलधर अर्थात बरसने वाले बादलों से, रात पूर्ण चन्द्रमा से, प्रमदा शील से, अश्व वेग से, मंदिर नित्य होने वाले उत्सवों से, वाणी व्याकरण से, नदियाँ हंसयुगलों से, सभा विद्वज्जन से, कुल सद्पुत्र से, वसुधा राजा से और तीनो लोक भानु से।
आकाश के लिये एकाक्षरी ख शब्द का प्रयोग हुआ है। ख में ग जुड़ने से खग होता है अर्थात ख में गतिवान अर्थात पक्षी, आकाश अर्थ में ले ने पर उसमें गतिमान सूर्य भी खग कहलाता है। शर्वरी तारों भरी रात को कहते हैं , शॄ धातु का एक अर्थ हिंसा होता है, दूसरा समाहार भी, रात दैनिक गतिविधियों का नाश कर देती है, सूर्य नहीं होता। प्रमदा युवती स्त्री हेतु है जिसका यौन आकर्षण अपने चरम पर हो, देखते ही मन मुदित हो जाये किंतु मोद-प्रमोद से आगे प्रमाद भी आता है और मद भी । शील उसकी रक्षा करता है।
जव का अर्थ गति से है। आशुग: और जवग: एक ही अर्थ वाले हैं, आशु से तीव्र गति जिससे अश्व शब्द है और आशुलिपि भी। जूय शब्द भी गति अर्थ में ही है। जवनिका अर्थात जूयते आच्छाद्यते अनया- जु + ल्युट् + ङीप् भी इन्हीं मूलों से है जिसका अर्थ तीव्रता से आच्छादित कर देना होता है। नाटकों में इसका प्रयोग होता है न! इसे बहुत लोग यवनिका बना यवनों से सम्बद्ध बताते हैं जोकि नितांत मिथ्या है।
वसु का अर्थ धन होता है, वसुधा है धन व सम्पदा से भरी। इसके साथ नृप शब्द का प्रयोग हुआ है – नृ अर्थात नरों का, मनुष्यों का पालन करने वाला, रक्षा करने वाला। पाहि माम की दुहाई में प के ये अर्थ समाहित हैं।
भानु में भा का अर्थ प्रकाश से है, भानु अर्थात प्रकाशित करने वाला। प्रसन्नता में मुखमण्डल प्रकाशित हो उठता है। राजा को भी भानु कहते हैं क्योंकि उसे प्रजा को प्रकाशित करने वाला माना गया है। ध्यान दें कि तीनो लोकों को भानु द्वारा प्रकाशित बताया गया है अर्थात तीसरा वाला लोक भी भूमि के गर्भ में नहीं, तल पर ही है।
अब भाति से भानु तक की यात्रा देखें और बीच के समस्त उपादानों को भी। इतना तो समझ ही गये होंगे कि महाकाव्य हों या पुराण या सुभाषित; अनुवाद मात्र से आप संस्कृत के मर्म तक नहीं पहुँच सकते और अनर्थ होने की भी सम्भावना रहती है।
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विद्या की लब्धि हो जाने पर गुरु से, पत्नी मिल जाने पर माता से; पुत्र हो जाने पर पति से और आरोग्य मिल जाने चिकित्सक से; द्वेष हो जाता है।
सुभाषित संक्षिप्त रूप में जीवन के कुछ विशिष्ट पक्षों को सुंदर रञ्जक कथनों व काव्य से उद्गघाटित करते हैं , रेखाङ्कित करते हैं, जिससे कि उनकी स्मृति लोकमानस में बनी रहे। उन्हें अनावश्यक रूप से खींचना या तर्क वितर्क करना उनके उद्देश्य की ही हानि कर देता है। यह सुभाषित भी कुछ मनोवैज्ञानिक सचाइयों को बताने के लिये है, शत-प्रतिशत हर समय लागू ही हो, आवश्यक नहीं।
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ईर्ष्यालु, असत्य बोलने वाला, कृतघ्न और लम्बे समय तक किसी से वैर रखने वाला – ये चार महापतित कहे गये हैं।
महापतित वह जो विधाता की सर्वोच्च कृति मानव होने पर भी अपनी अंतर्निहित सम्भावनाओं का पूर्ण प्रफुल्लन अपने आचरण के कारण न कर पाये ।
जो चार दोष हैं, उन्हें निजकृत समझें। ईर्ष्या न करना, सत्य कहना, किसी के उपकार को न भूलना व अवसर मिलने पर प्रत्युपकार हेतु तत्पर रहना एवं वैर का कारण समाप्त हो जाने पर उसे भूल जाना – सभी व्यक्ति विशेष पर निर्भर हैं, चाहे तो अपनाये, चाहे तो न अपनाये। उदात्त चरित्र के ये गुण समस्त सभ्य एवंं सुसंस्कृत समाज में मान्य हैं, निकष हैं। देखें तो इनकी महत्ता आध्यात्मिक से अधिक भौतिक है। इन दोषों वाले भौतिक जीवन में अधिक प्रगति नहीं कर पाते।
नीति के उन ग्रंथों में भी जिनमें निर्मम प्रतिशोध के उपाय बताये गये हैं, ये आदर्श मिलते हैं । स्पष्ट दृष्टि रखने वाला एवं सहज मानवीयता का विश्वासी इन्हें मानेगा ही।
अनसूया नाम असूया के पूर्व निषेधात्मक अन् जुड़ने से बना है, जो असूया से मुक्त हो। महादेवी अनसूया ईर्ष्या दोष से पूर्णत: रहित थीं। ऐसे व्यक्ति जन सामान्य के प्रति कल्याण का भाव रखते हैं। रामायण में अत्रि आश्रम में सीता राम दम्पति के साथ देवी अनसूया के व्यवहार को ध्यान से पढ़ा जाना चाहिये। अनसूया शब्द ही लोकवाणी में अनसुइया /अनुसुइया हो गया किंतु अनसूया ही लिखा जाना चाहिये।
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अथर्ववेद
त्वां वृणताम् – तुम्हारा वरण करें;
– विशं राज्याय – प्रजायें राज्य हेतुऔर
– इमा देवी पञ्च प्रदिश: – ये दिव्य पाँच दिशायें।
राष्ट्रस्य वर्ष्मन् कुकुदि श्रयस्व –
राष्ट्र के शरीर (रूप) पर श्रेष्ठ स्थान का आश्रय ले।
तत: उग्र: –
आप उग्रवीर होकर
न: वसूनि वि भज
हम सब में योग्यतानुसार धन का भाजन (वण्टन) करें।राजा द्वारा प्रजा हेतु धन के वण्टन का यह वैदिक आदर्श है।
यह मन्त्र प्रजा द्वारा स्वयं के कल्याण हेतु पुरोहित के माध्यम से राजा को दिया गया आशीर्वाद भी है। प्रशंसा व निन्दा से परे हो कर प्रधानमन्त्री को आशीर्वाद देने पर भी विचार करें, ₹ २० लाख करोड़ अल्प नहीं होते!
शब्दों पर ध्यान दें जिससे कि पता चले कि केवल अनुवाद से मर्म नहीं जाना जा सकता। विश् शब्द जनसामान्य हेतु प्रयुक्त है। उस काल को बताता है जब वर्णविभाजन न होकर केवल एक ही वर्ण था। विश् से ही वैश्य है, उससे क्षत्रिय हुये, दोनों से ब्राह्मण व अन्त में शूद्र। तैत्तिरीय परम्परा इसी को आलङ्कारिक रूप नें कहती है, ऋग्वेद से वैश्य, यजुर्वेद से क्षत्रिय व सामवेद से ब्राह्मण।
दिव्यता हेतु देवी शब्द पुरातन प्रयोग है। पाँच दिशायें वस्तुत: पुराने पाँच जन हैं। दिश: भौगोलिक अर्थ में प्रयुक्त। अगला अंश और महत्त्वपूर्ण। वर्ष्मन् व ककुद पर ध्यान दें। दोनों, वृष् धातु के वृषभ से जुड़ते हैं। रूप विस्तार हेतु बली बैल के रूपक सामान्य थे और विशिष्टता दिखाने हेतु भी। यथा, द्विजवृष, वृषस्कन्ध, पुरुषर्षभ। यहाँ प्रजा ही कृषिकर्म द्वारा उत्पादन में लगी वृषशरीर है, जिसके ककुद अर्थात देह के सबसे ऊँचे भाग पर राजा विराजता है।
यहाँ एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य जो इन्द्र की महत्ता पर भी प्रकाश डालता है। पुरुषोत्तम राम के एक पूर्वज ने इन्द्र रूपी वृष के ककुद पर स्थित हो असुरों को पराजित किया था जिससे उनका नाम ककुत्स्थ पड़ा। उनके वंशज राम रामायण में काकुत्स्थ कहलाये। रामायण से ध्यान आया कि २० लाख करोड़ का रामायण से सम्बन्ध है।
हाँ, तो वर्षा के देवता बैल रूपी इन्द्र की सहायता से कृषि विस्तार कर राजा ककुत्स्थ ने आटविक आहार संग्रहकर्ता विकट असुरों को सभ्य बनाया।
उग्र(वीर) शब्द पर ध्यान दें जो क्षात्रतेज का संकेतक है। राजा उग्र नहीं होगा तो संसाधनों का उचित विभाजन नहीं कर पायेगा।
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न तिथि: न च नक्षत्रं न ग्रहो न च चन्द्रमा।
अथर्वमन्त्रसम्प्राप्त्या सर्वसिद्धिर्भविष्यति ॥अथर्व मन्त्रों की उपलब्धि तिथि, नक्षत्र, ग्रह, चन्द्रमा की प्रतिकूलता में भी सर्वार्थ सिद्धिप्रद होती है अर्थात उन पर इन सबसे सम्बन्धित विधि-निषेध नहीं लगते।
अथर्व मन्त्रों का जप भी कर सकते हैं, बिना बलाघात आदि के।
अथर्ववेद को क्षत्रवेद भी कहा जाता है तथा धर्मसूत्र परम्परा स्त्रियों एवं शूद्रों हेतु इसका निषेध नहीं करती अर्थात जहाँ लिखा मिले कि स्त्रियों एवं शूद्रों को वेदों का अधिकार नहीं, वहाँ भी उनके लिये अथर्ववेद अनुमन्य है।
सा निष्ठा या विद्या स्त्रीषु शूद्रेषु च ।
आथर्वणस्य वेदस्य शेष इत्युपदिशन्ति ॥~~~~~~~~~~~~~~~
ऋग्वेद
शत्रु जो दूर हैं, जो पास हैं, जिनसे हम घिरे हुये हैं, उन कर्महीनों को नष्ट करो ।
तळित वैदिक शब्द है, निकट अर्थ में। वैदिक प्रयोग में शत्रु अर्थ वाले अरि शब्द का बहुवचन अरातय: होता हुआ देखें। जम्भ से जम्हाई भी और शिशु का दन्तहीन मुख भी किन्तु इसका यहाँ अर्थ विनाश करने से है, कुचलने से है, नष्ट करने से है। जम्भ का एक अर्थ इन्द्र का वज्र भी होता है। पौराणिक कथाओं में जम्भ नाम के दैत्य असुर आदि भी मिलेंगे।
इस मंत्र में कर्मठता की महत्ता बताई गयी है। निकट के कर्महीन शत्रु समान ही होते हैं। नष्ट करना माने यह नहीं कि उन्हें मार दो, उन्हें कर्मठ बनाने से है। ऋषि ‘सानूँ की ‘ वाला नहीं है और न ही कीर्तन वाला । उसके अनुसार स्वयं तो स्वयं, अपने परिवेश के उत्त्थान पर भी ध्यान दो। सुहृद हैं तो उनकी अकर्मण्यता दूर करने के उपाय करो और यदि निरे शत्रु ही हैं करमजले तो उनका वैसे ही नाश करो जैसे इंद्र वज्र से शत्रुओं का नाश करते हैं!
ऋषि ने छोड़ कर भागने को नहीं कहा और न ही निरपेक्ष या तटस्थ या उदासीन रहने को। आज के परिप्रेक्ष्य में धिम्मियों व दीनियों से जोड़ कर देखें तो!
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ऋग्वेद की मण्डलारम्भ ऋचायें
ऋग्वेद दस मण्डलों में विभाजित है। एक अन्य विभाजन चतुरङ्ग के वर्गों का आधार ले आठ अष्टकों का भी है। इस चित्र में प्रत्येक मण्डल के प्रथम मंत्र के ऋषि, देवता, स्वर, छन्द दिये गये हैं। ध्यान दें तो दो को छोड़ कर सबके देवता अग्नि हैं। दस में से तीन कौशिक विश्वामित्र कुल के हैं। तीन छंद त्रिष्टुप और तीन गायत्री श्रेणी के हैं।
ऋग्वेद में न्यूनतम तीन ऋषि वैश्य कुल के हैं तथा सबसे अधिक मन्त्र क्षत्रिय ऋषियों द्वारा हैं जिनकी संख्या बीसियों है।
चार प्रमुख छन्द व उनके विकारी रूप मिल कर कुल मन्त्र संख्या के तीन चौथाई से अधिक को समाहित किये हैं। छन्दों के भी वर्ण हैं। विवरण इस प्रकार है –
त्रिष्टुप (क्षत्रिय) – ३७०१,
गायत्री (ब्राह्मण) – २५३०,
जगती (वैश्य) – १०७२,
अनुष्टुप (शूद्र) – ७८३।महाकाव्यों की चारण कुशीलव परम्परा व परवर्ती पौराणिक सूत परम्परा ने सरलता के कारण अनुष्टुप छन्द को लोकगायन हेतु अपनाया तथा इसका एक परिष्कृत रूप श्लोक संस्कृत वाङ्मय का सबसे प्रिय छन्द हो गया। महाभारत में त्रिष्टुप छन्द का भी बहुलता से प्रयोग हुआ है।
सङ्गीत जानने वाले कोई हों तो स्वरों के क्रम व संयोजन से सबसे निकट कौन कौन से राग बनते हैं, शोध कर सकते हैं। ऋग्वेद की ऋचायें एक ही स्वर में बोली जाती हैं। सामवेद के साथ ऐसा नहीं है।
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ऋग्वेद
विष्णु जिसके परम पद वा उत्तम स्थान में अमृतनिर्झर प्रवाहित है, वह पराक्रमियों का बन्धु अर्थात सहायक होता है।
उरुक्रम शब्द में उरु पर ध्यान दें जिसका एक अर्थ जङ्घा भी होता है। हाथ पैर चलाने वाले के देवता सहायक होते हैं, कहा ही जाता है। उल्लेखनीय है कि इतनी पुरानी ऋचा में भी केवल भजन की संंस्तुति नहीं की गयी है, कर्म प्रधान है कि करो तो विष्णु का परम पद प्राप्त होगा – परमंं पदमव भाति भूरि!
बाहों की महत्ता अथर्ववेद में सङ्केतित है जिसके पुरुष सूक्त का आरम्भ सहस्रशीर्षा से न हो कर सहस्रबाहू से है। पुरुषमेध में जब आप सहस्रबाहू को सहस्राक्ष से जोड़ कर देखेंगे तो मानो हजार आँखें खुली रख कर हजार हाथों से किये जाने वाले अप्रतिहत कर्म यज्ञ की महत्ता समझ में आयेगी जिसमें पुरुष रूपी नर-नारायण ही आहुति हो जाते हैं।
सहस्र ऋषियों की दृष्टि से सम्पूजित अप्रतिरथ मघवा इन्द्र ही आज के समय में हमारा आदर्श होना चाहिये।
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धम्मपद
मनो पुब्बङ्ममा धम्मा मनोसेट्ठा मनोमया।
मनसा चे पदुट्ठेन भासति वा करोति वा॥
ततो नं दुक्खमन्वेति चक्कं’व वहतो पदं।मन सभी प्रवृत्तियों का पूर्वगामी है, मन उनका प्रधान है, वे मन से ही उत्पन्न होती हैं। यदि कोई दूषित मन से वचन बोलता है, कुछ करता है, तो दु:ख उसका अनुसरण उसी प्रकार करता है, जिस प्रकार चक्का गाड़ी खींचने वाले (बैल) के पाँवों का।
बुद्ध ने प्राकृत भाषा में अपने उपदेश दिये थे, वह पालि (पाली) ही थी, निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। पालि को बहुत सरलता से संस्कृत में परिवर्तित किया जा सकता है, विपरीत भी सत्य है। इस कारण ही बौद्धों व ब्राह्मणों में अपने अपने को पुराना बताने की खींचतान चलती रहती है। भाषा का प्रकृत अर्थात सामान्य जन में प्रचलित रूप प्राकृत होता है, संस्कारित विद्वत्रूप संस्कृत। कालान्तर में संस्कृत शब्द पाणिनीय भाषा हेतु रूढ़ हो गया तो परिनिष्ठित प्राकृत व भ्रष्ट प्राकृत, अपभ्रंश, अवहट्ट जैसी सञ्ज्ञायें प्रचलित हुईं। पाणिनि, पतञ्जलि आदि ने स्वयं से पूर्वप्रचलित भाषाभेदों व वैयाकरणों के स्पष्ट उल्लेख किये हैं। आख्यानों की भाषा पाणिनीय सूत्रों से शत-प्रतिशत मेल नहीं खाती। वैदिक भाषा की ही भाँति आर्षप्रयोग कहने का चलन है।
बुद्ध का वाङ्मय अपनी मूल धरा से लुप्त हो चुका था। सिंहली भाषा में अनूदित धम्मपद को पालि में परिवर्तित कर आधुनिक काल में प्रचलित किया गया। पाली को बुद्ध की मूलभाषा कहना भ्रामक है।
इस अंश में देखें –
पुब्बङ्म – पूर्वगम; धम्म – धर्म; सेट्ठ – श्रेष्ठ; भास – भाष; चक्क – चक्र
दुक्ख – दु:ख; पदुट्ठ – प्रदुष्ट