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सुभाषित
केवल एक विद्वान ही अन्य विद्वान के परिश्रम को समझता है। गर्भिणी की प्रसववेदना को बाँझ नहीं समझती।
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जो कर्तव्य है उसे पूर्ण रूप में सुनें और सुन कर उस पर विचार भी करें। जो अपने लिये प्रतिकूल है, उसे अन्य हेतु न करें।
(श्रुति एक निश्चित मानसिक अवस्था है, साधारण श्रवण मात्र नहीं)
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(कोई भी) कार्य बिना परीक्षण के न करें, अच्छे से परीक्षा कर के ही करणीय। अन्यथा उस ब्राह्मणी नेवले प्रकरण की भाँति सन्तप्त होना पड़ेगा।
(परीक्षा अर्थात ठीक से, आगा पीछा विचार कर। ब्राह्मणी व नेवले का प्रकरण यह है कि एक ब्राह्मण के यहाँ पाल्य नकुल था। ब्राह्मणी अपने शिशु को भूमि पर ही लिटा कर पानी लाने चली गयी। इसी बीच एक विषधर शिशु की ओर आने लगा। नकुल ने देखा कि शिशु को हानि पहुँचा सकता है अत: उसने साँप को काट काट कर मार दिया। बड़े संतोष से कि स्वामिनी सराहेगी, घर के द्वार पर ब्राह्मणी की प्रतीक्षा करने लगा। ब्राह्मणी लौटी तथा नेवले के मुख में रक्त देख यह समझ कि उसने शिशु को काट लिया होगा, पानी की गगरी नेवले पर पटक दी। नेवला वहीं मर गया। भीतर जाने पर ब्राह्मणी ने जब मरे हुये सर्प के साथ सुखपूर्वक सोते हुये शिशु को देखा तो सब समझ गयी। वह सन्तप्त हो विलाप करने लगी किंतु जो होना था, वह तो हो चुका था!)
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भले कपूर की भूमि में लगाई जाय, कस्तूरी व सुगंधित खाद(धूम रूप में) आदि डाल कर उसे बड़ा किया जाय और चंदन जल से सिंचाई की जाय; प्याज अपना गुण (दुर्गंध) नहीं छोड़ती!
यह सुभाषित अद्भुत शब्द प्रयोग का उदाहरण है। द्वि-हृद से दोहद वा दोहल दो शब्द माने जाते हैं जिसका अर्थ गर्भकाल में स्त्री में उठने वाली विचित्र इच्छाओं से लिया जाता है। द्वि-हृद अर्थात जिसके भीतर दो हृदय धड़क रहे हों।
किंतु दोहल का एक अर्थ सुगंधित खाद (धुँये के रूप में)भी होता है जो राजोद्यानों में विशेष पादपों हेतु प्रयुक्त होती थी। इसका सम्बंध भी मूलत: कैशोर्य को प्राप्त स्त्री से जुड़ता है जब वह रजस्वला होती थी। पुरातन भारत में दोहद से सम्बंधित वृक्षों पर आधारित विविध क्रीड़ायें वस्तुत: किशोरी व युवती ललनाओं हेतु थीं जो आगे पुष्पित से फलित होने का आधार ले कर गर्भिणी की इच्छा से जुड़ीं।
दोहद का अर्थ मौलश्री(सरी) या वकुल का वृक्ष भी होता है जो कि दोहद क्रिया से भी जुड़ा हुआ है – तब फूले जब सुंदरी मुख में मदिरा भर उस पर कुल्ला करे! हिम चंदन को कहते हैं जिसका गुण शीतलता होता है। संक्षिप्ति की वाध्यता के कारण इस छंद के आगे निर्वचन पर विराम देते हैं इन शब्दों पर आगे जानने हेतु नैषधचरित बढ़ी हुई बंदी में पढ़ जायें!
उदिते नैषधे काव्ये क्व माघ: क्व च भारवि: ! नैषध काव्य के उदित होने पर कहाँ माघ, कहाँ भारवि? अर्थात माघ व भारवि जैसे कवियों की प्रभा भी धूमिल हो गई, जब नैषध काव्य प्रकाशित हुआ। श्रीहर्ष द्वारा चरित इस काव्य में राजा नल व विदर्भकुमारी दमयंती की प्रेमकहानी वर्णित है।
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विद्यार्थी चौथाई ज्ञान आचार्य से, चौथाई अपनी मेधा व अध्ययन से, चौथाई सहपाठियों से तथा चौथाई कालक्रम में (अनुभव से) पाता है।
क्या आप जानते हैं कि चारो युग नाम कृत, त्रेता, द्वापर और कलि चौसर के पासे के पक्षों के नाम थे? इस सुभाषित पर ध्यान दें तो, एक विद्यार्थी के जीवन के चार ‘युग’ हैं, कृत आचार्य के पास, त्रेता में स्वाध्याय, द्वापर सहपाठियों से चर्चा विमर्श और कलि में वह समस्त अनुभवों के साथ वास्तविक जीवन में जूझता कालक्रम में सीखता है। कलियुग ही वास्तविक जीवन है – समस्त अर्जित ज्ञान के साथ आत्मदीपो भव! ऐसा नहीं है कि ये एक के पश्चात एक क्रम में हैं, वरन सभी साथ साथ हैं किंतु समान नहीं।
पाद शब्द चार बार आया है, चौपाये जीव के चार पाँवों में से एक एक ले कर। मनुष्य ने शब्द परिवेश के अनुकरण में गढ़े।
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इस संसार में ये ६ मेरे लिये वन्दनीय हैं – शुद्ध अन्न देने वाला, अग्निहोत्री, वेदान्तज्ञाता, सहस्र पूर्णिमा की आयु वाला, प्रत्येक महीने उपवास करने वाला और पतिव्रता।
मृष्ट शब्द का एक अर्थ मधुर वाणी भी है। मधुर वाणी के साथ शुद्ध अन्न देने वाला – ऐसा अर्थ भी कर सकते हैं, श्लेष अर्थ। भारत परम्परा ७५ की वय प्राप्त व्यक्ति को ऋषितुल्य मानने की रही है क्योंकि उसके पास जीवन के अनुभव सञ्चित हो प्रौढ़ हो चुके होते हैं। वृद्धावस्था में यह भाव एक सामाजिक संरक्षण भी प्रदान करता है। इससे भी पुराना प्रचलन एक हजार पूर्णिमा आयु वाला कहने का रहा है। एक चंद्रमास यदि २९.५ दिनों का माना जाय तो यह आयु पौने इक्यासी सौर वर्ष की होती है।
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वाल्मीक (मत्कोटक या दीमक का ढूह), छत्ते में मधु, शुक्लपक्ष में चन्द्रमा, राजा का धन एवं भिक्षा का अन्न तोक तोक अर्थात मन्द गति से बढ़ते हैं।
राजा का धन एवं भिक्षा के अन्न पर ध्यान दें। बचत करें, मितव्ययी बनें और धैर्य रखें। संकट भरे दिन आ रहे हैं! जनसामान्य के चरित्र की परीक्षा ऐसे समय ही होती है। आगामी एक वर्ष (न्यूनतम) कसौटी का होगा।
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आपदा-काल हेतु धन बचा कर रखें। जो श्री अर्थात लक्ष्मीवान है, उसे कैसी आपदा? उस लक्ष्मी का अनर्गल अपव्यय करने वाला व्यक्ति सञ्जित धन को भी गँवा देता है।
अर्थात सञ्जित धन का आधिक्य हो तो भी सोच समझ कर ही व्यय करें।