कश्मीर पर बनी फिल्म को देखने के पश्चात फिल्म में बर्बर जिहादी हिंसा पर चूना कली पोतने के प्रयास पर एक कश्मीरी युवती का क्रन्दन और आगे निर्माता का निर्लज्ज प्रलाप, आँखें खोलने हेतु पर्याप्त होने चाहिये कि हम किस श्रेणी के आत्महंता हो चुके हैं – विकृत भी और आत्मद्वेषी भी। फिल्म का लेखक कश्मीरी पण्डित है, निर्माता भी किंतु उन्होंने वास्तविकता के स्थान पर वही मीठा विष परोसने का निर्णय लिया, पीढ़ियों तक जिसके मानसिक आहार ने उन्हें और भारत की बहुसंख्यक जनता की चेतना को नष्ट करने का काम किया – एकपक्षीय सौहार्द की आशा एवं आगत सङ्कट को झुठलाये रखने वाली शांति कामना। संस्कृतियाँ इसी प्रकार अपने मृत्युपाठ रचती हैं।
प्राथमिक से ले कर उच्च शिक्षा तक हमने एक ऐसी शिक्षा पद्धति अङ्गीकार की है जिसमें हमारा नाश अंतर्निहित है। हमें स्वयं से घृणा करना और विरक्त होना सिखाया जाता है। उससे आगे उन आक्रांताओं को महान मानना जिन्होंने ने हमारी धरा पर अकल्पनीय अत्याचार किये। शनै: शनै: हम आत्महीनता से भरते जाते हैं जिससे आगे शत्रुओं के साथ खड़े होने, उनका कवच बनने में ही हमें जीवन की सार्थकता, मानवता आदि सब दिखने लगते हैं। हम या तो उदासीन हैं या आत्महंता; या तो परम भाग्यवादी या परम आलसी। हम तमोगुण का भजन सतोगुण बताते हुये करते हैं तथा अपनी समस्त दुर्बलताओं, क्लैव्य एवं मूर्खताओं पर आवरण डालते हुये या मुँह चुराते चले जाते हैं और … एक दिन मर जाते हैं। हमारी सन्तानें आत्महत्या के मार्ग पर अपनी पिछली पीढ़ी से भी आगे निकलती जाती हैं। भारत का पिछ्ले सत्तर वर्षों का नागरिक इतिहास यही है और कुछ नहीं। विकास, उपलब्धियाँ, आय, सम्मान आदि केवल तब तक ही हैं, जब तक कि संस्कृति के शत्रु निर्णायक संख्या में नहीं हो जाते, उस स्तर पर जिस पर कभी काबुल, कंधार में हुये, कभी सिंध व पञ्जाब में हुये, कभी गौड़प्रदेश में हुये और अभी कश्मीर में हुये!
मात्र तीन दशक पूर्व स्वतंत्र भारत में, सरकारी तंत्र, संविधान, संसद आदि सब के रहते हुये भी जो हुआ तथा आगे जिस प्रकार से सारा तंत्र निस्सहाय दिखा, उससे हमें सीख मिल जानी चाहिये थी कि हम बहुत बड़े भ्रम में जी रहे हैं। किंतु संगठित और सांस्थानिक अपराधों से सरकारें नहीं, जनता लड़ ही लड़ सकती है, यह सीधी सी बात भी हम समझ नहीं पाये और सुविधानुसार जीने के अभ्यस्त हमने सब भुला दिया, सब कुछ! जो इतिहास से नहीं सीखते, वे इतिहास हो जाने को अभिशप्त होते हैं – यह उक्ति भारतवासियों पर चरितार्थ होती रही है।
कभी पर्सिया से लगती सीमायें अटारी तक सिकुड़ गयीं, ‘चिकेन नेक’ को बाधित कर पूर्वोत्तर को भारत से काट देने की बातें की जा रही हैं, बांग्लादेश के सीमावर्ती जिलों में देश विदेश का भेद ही नहीं तथा आक्रांता घुसपैठियों की मजहबी एकता का वर्चस्व है, केरल में सामुदायिक सेनायें मार्च कर रही हैं और देश की राजधानी दिल्ली में एक पूरा क्षेत्र शाहीन बाग ‘No Go Zone’ बन चुका है – तब भी हम सीखने को, सुधरने को, मानसिकता में सार्थक परिवर्तन को सजग नहीं। शाहीन बाग की स्थिति सदैव ऐसी नहीं रहनी किंतु जो सफल पूर्वाभ्यास कर लिया गया, उसका क्या, जो टुकड़ा टुकड़ा जिहाद कल इसी प्रकार से मुकम्मल हो जायेगा, उसका क्या? हम इतना तक समझ नहीं पा रहे कि सरकारें भी इनके आगे विवश हैं। कैराना जैसे जाने कितने क्षेत्र बन चुके हैं, बनाये जा रहे हैं जहाँ परिस्थितियाँ ऐसी निर्मित कर दी जाती हैं कि सभ्य लोग रह ही नहीं सकते और औने पौने अपना सर्वस्व बेच बाँच कर पलायन को विवश होते हैं! हमारी इस प्रवृत्ति को ‘Lahore syndrome लाहौर लक्षण ‘ नाम दिया जाना चाहिये कि अंत तक वहाँ के समृद्ध व प्रभावी जन को भी भयानक आगत का अनुमान तक नहीं था!
प्रतिरोध, शमन एवं स्वत:स्फूर्त रोकथाम हों, तदनुकूल न तो विचार हैं, न कर्म। ऐसी स्थिति का दोषी कौन? कोई अन्य नहीं, हम ही हैं।
लिखने को बहुत कुछ लिखा जा सकता है, यहाँ आमुख लेखों में लिखा भी जाता रहा है किंतु कभी कभी विस्तार सांद्रता को, प्रभाव को तनु कर देता है, तीक्ष्णता नहीं रह जाती। आत्ममंथन एवं सक्रिय होने के अतिरिक्त मार्ग नहीं। करें और हों अन्यथा नष्ट किये जा कर इतिहास में एक दो पंक्तियों में ही निपटा दिये जायेंगे।