आदिकाव्य रामायण – 21 से आगे …
दर्शन की सम्भावनाओं ने कपि को जैसे घेर लिया – राजमहिषी राघवस्य प्रिया सती सीता वन- सञ्चार-कुशला हैं, यहाँ अवश्य दिखेंगी। अथवा मृगशावाक्षी रामचिंतासुकर्शिता चिंता से मुक्त होने यहाँ अवश्य आयेंगी। जनकस्य सुता सती वनचर प्राणियों से प्रेम करती होंगी, यहाँ अवश्य आयेंगी।
सम्भावनाओं को पुष्ट करते हुये वाल्मीकि जी वह लिखते हैं जो सनातन धर्म में स्त्री के लिये भी संध्या उपासना के अनुशासन का प्रमाण है:
5012048a संध्याकालमनाः श्यामा ध्रुवमेष्यति जानकी
5012048c नदीं चेमां शिवजलां संध्यार्थे वरवर्णिनी
पिघले हुये सोने सी कांति वाली वरवर्णिनी सीता इस शिवसलिला नदी किनारे संध्या हेतु अवश्य पधारेंगी।
नैराश्य एवं उत्साह के चरम मानसिक झञ्झावातों से निकल मारुति सीता अनुसंधान का दृढ़ निश्चय ले अशोकवनिका में प्रविष्ट हुये थे। शुभ दर्शन की उत्कंठा थी किंतु बुद्धि स्थिर थी, मन प्रशांत हो चला था। सामान्यत: शुभ आगत हो तो शुभ शकुन दर्शाने की रीति रही है, वाल्मीकि जी ऐसा नहीं करते।
वासना पङ्कित पानशाला निवासिनी सुंदरी मंदोदरी, जिसे देख कर एक बार उन्हें सीता का भ्रम हो गया था, से पूर्णत: भिन्न सुंदरी सीता के मारुति द्वारा प्रथम दर्शन का वातावरण अशोकवनिका सजाती है – सहज एवं प्राकृतिक सौंदर्य युक्त, शकुनों की आवश्यकता ही नहीं है। कैसी है वह वनिका – अशोकवनिका पुण्या सर्वसंस्कारसंस्कृता।
सीता शुभा हैं, यह वनिका भी उनके अनुकूल ही है, मारुति मन की दृढ़ता सधती गयी – तस्याश्चाप्यनुरूपेयमशोकवनिका शुभा । शुभा या पार्थिवेन्द्रस्य पत्नी रामस्य संमिता॥
जाने कितने समय से रक्षित वृक्ष, लता. गुल्म के घेरों से झरते पराग ने मानो मारुति का स्वागत किया था। वर्णन देख निराला की ‘शक्तिपूजा’ में सीता राम के प्रथम साक्षात्कार के परिवेश की प्रेरणा स्पष्ट होने लगती है :
काँपते हुए किसलय, झरते पराग समुदय, गाते खग नवजीवन परिचय, तरू मलय वलय,
ज्योतिः प्रपात स्वर्गीय, ज्ञात छवि प्रथम स्वीय,
रामदूत को सीता के दर्शन की प्रस्तावना में शांत वनप्रांतर समान चित्रण है। वाल्मीकि जी उद्यान को वनवासिनी सीता योग्य प्रभा से युक्त कर देते हैं:
5013006e विनिष्पतद्भिः शतशश्चित्रैः पुष्पावतंसकैः
5013007a आमूलपुष्पनिचितैरशोकैः शोकनाशनैः
5013007c पुष्पभारातिभारैश्च स्पृशद्भिरिव मेदिनीम्
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5013008c स देशः प्रभया तेषां प्रदीप्त इव सर्वतः
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5013013a सर्वर्तुपुष्पैर्निचितं पादपैर्मधुगन्धिभिः
5013013c नानानिनादैरुद्यानं रम्यं मृगगणैर्द्विजैः
5013014a अनेकगन्धप्रवहं पुण्यगन्धं मनोरमम्
पानशाला से वैषम्य एवं असादृश्य, सीता हेतु उस रक्षनगरी से असंपृक्त सा परिवेश का सृजन तो करता ही है, साथ ही मन्दोदरी दर्शन से क्षुब्ध हुये मारुति के मन को ठाँव देता है। सीता पर जो स्नेह, जैसी पवित्रता वाल्मीकि ने उड़ेल दी है, सम्भवत: विश्व में किसी कवि ने अपनी कृति की नायिका के लिये नहीं किया होगा।
वानस्पतिक वैविध्य गंध एवं पुष्पों के साथ उपस्थित है ज्यों मारुति को देवी आराधन हेतु सामग्री प्रदान कर रहा हो!
5013008a कर्णिकारैः कुसुमितैः किंशुकैश्च सुपुष्पितैः
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5013009a पुंनागाः सप्तपर्णाश्च चम्पकोद्दालकास्तथा
5013009c विवृद्धमूला बहवः शोभन्ते स्म सुपुष्पिताः
5013010a शातकुम्भनिभाः केचित्केचिदग्निशिखोपमाः
5013010c नीलाञ्जननिभाः केचित्तत्राशोकाः सहस्रशः
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5013014a अनेकगन्धप्रवहं पुण्यगन्धं मनोरमम्
5013014c शैलेन्द्रमिव गन्धाढ्यं द्वितीयं गन्धमादनम्
सहस्र खम्भों से युक्त चैत्य समान विमल श्वेतप्रासाद दिखा जो कैलास समान था तथा विराट ऊँचाई के कारण आकाश में रेखा सी खिंचता प्रतीत होता था:
5013015c स ददर्शाविदूरस्थं चैत्यप्रासादमूर्जितम्
5013016a मध्ये स्तम्भसहस्रेण स्थितं कैलासपाण्डुरम्
5013017c विमलं प्रांशुभावत्वादुल्लिखन्तमिवाम्बरम्
अवेक्षमाणश्च ददर्श सर्वं; सुपुष्पिते पर्णघने निलीनः, प्रकृति अपनी सम्पूर्ण सुषमा के साथ उपस्थित थी, भव्य ऊँचा चैत्य भी था। ऐसे परिवेश में राक्षसियों से घिरी एक सुंदरी हनुमान को दिखी, जिसकी स्थिति अनामय नहीं थी।
परिवेश विमल, देवी मलिन –
5013018a ततो मलिनसंवीतां राक्षसीभिः समावृताम्
5013018c उपवासकृशां दीनां निःश्वसान्तीं पुनः पुनः
रह रह साँसें भरती उपवास के कारण कृश, दीन हुई कैसी दिखती थी? जैसे शुक्ल पक्ष के आरम्भ में चंद्ररेखा को – क्षीण, सुंदर, मंद, पूर्ण रूप की चिह्न भर।
5013018e ददर्श शुक्लपक्षादौ चन्द्ररेखामिवामलाम्
5013019a मन्दप्रख्यायमानेन रूपेण रुचिरप्रभाम्
दैन्य था, किंतु कैसा? धुँये से घिरी अग्निशिखा समान- पिनद्धां धूमजालेन शिखामिव विभावसोः।
वर्णन में वाल्मीकि जी मानो संसार की समस्त करुणा में लेखनी डुबो देते हैं!
5013020c सपङ्कामनलंकारां विपद्मामिव पद्मिनीम्
5013021a व्रीडितां दुःखसंतप्तां परिम्लानां तपस्विनीम्
5013021c ग्रहेणाङ्गारकेणैव पीडितामिव रोहिणीम्
5013022a अश्रुपूर्णमुखीं दीनां कृशामननशेन च
5013022c शोकध्यानपरां दीनां नित्यं दुःखपरायणाम्
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5013024c सुखार्हां दुःखसंतप्तां व्यसनानामकोदिवाम्
उपवास से कृश मुख पर आँसुओं की धारा है, शोक में ध्यानस्थ दु:खिया जो सर्वथा सुख योग्य है – संतप्त, परिम्लान तपस्विनी, ज्यों कोई पुष्करिणी अलङ्काररहित, कीचड़ से भरी, पद्मपुष्प विहीन हो गयी हो, ज्यों मङ्गल से ग्रस्त रोहिणी हो। अपने यूथ से बिछड़ कर ज्यों मृगी कुत्तों से घिर गयी हो- स्वगणेन मृगीं हीनां श्वगणाभिवृतामिव।
नीलनागाभया वेण्या जघनं गतयैकया। नीलया नीरदापाये वनराज्या महीमिव ॥
कटि से भी नीचे तक पहुँचने वाली काली नागिन के समान वेणी से घिरी हुई वह काले बादलों के हट जाने से नीली वन श्रेणी से घिरी हुई पृथ्वी समान प्रतीत हो रही थी। हनुमान आ पहुँचे थे, दु:ख के काले बादल हटने को थे। विशाल आँखों वाली हैं, अत्यधिक मलिन एवं कृश हैं, सब देख कर कपि ने अनुमान किया कि हो न हो. करुणा की प्रतिमा बनी यह तपस्विनी ही सीता हैं – तर्कयामास सीतेति कारणैरुपपादिभिः।
कामरूपी राक्षस द्वारा हरण कर ले जाई जाती जिस स्त्री को देखा था, यह अङ्गना वैसी ही दिखाई देती हैं –
5013026a ह्रियमाणा तदा तेन रक्षसा कामरूपिणा
5013026c यथारूपा हि दृष्टा वै तथारूपेयमङ्गना
हनुमान सूक्ष्म निरीक्षण करने लगे – चंद्रमा समान मुख है, भौंहेंं सुंदर हैं, पयोधर सुंदर वृत्ताकार हैं, देवी अपनी प्रभा से सभी दिशाओं को तिमिररहित किये दे रही हैं – कुर्वन्तीं प्रभया देवीं सर्वा वितिमिरा दिशः।
देह के सुलक्षणों को निरख, मारुति प्रभाव देखने लगे। तापसी भुइँया बैठी थीं, उनके दु:ख भरे नि:श्वास नागिन की (फुफकार) भाँति भयङ्कर थे – भूमौ सुतनुमासीनां नियतामिव तापसीम्, निःश्वासबहुलां भीरुं भुजगेन्द्रवधूमिव। शोकजाल से घिरी होने के कारण विशेष शोभित नहीं हो रही थीं – शोकजालेन महता विततेन न राजतीम्। ज्यों धुँये से घिरी अग्निशिखा हों – धूमजालेन शिखामिव विभावसोः।
शुभ-अशुभ तथा पुण्य-दोष की परस्पर विरोधी मिली जुली उपमायें सशङ्कित हनुमान के मन में उमड़ने घुमड़ने लगीं –
5013031c तां स्मृतीमिव संदिग्धामृद्धिं निपतितामिव
5013032a विहतामिव च श्रद्धामाशां प्रतिहतामिव
5013032c सोपसर्गां यथा सिद्धिं बुद्धिं सकलुषामिव
5013033a अभूतेनापवादेन कीर्तिं निपतितामिव
संदिग्ध अर्थ वाली स्मृति, पतित ऋद्धि, विहत श्रद्धा, भग्न हुई आशा, विघ्न युक्त सिद्धि, कलुषित बुद्धि, मिथ्या कलङ्क से भ्रष्ट हुई कीर्ति।
इन दो श्लोकों में कवि ने करुणा परिपाक के साथ ज्यों समस्त आर्य संस्कारों का तापसी पर अभिषेक कर दिया!
दीन थीं, देह पर मैल बैठी हुई थी तथा अलङ्कारों से हीन तापसी व्याकरणादि संस्कारों से हीन अर्थान्तर को प्राप्त हुई वाणी के समान अपने सहज रूप में पहचानी नहीं जा पा रही थीं। हनुमान ने उन्हें समीक्षा कर पहचाना:
5013037a दुःखेन बुबुधे सीतां हनुमाननलंकृताम्
5013037c संस्कारेण यथाहीनां वाचमर्थान्तरं गताम्
आभूषणों पर दृष्टि गयी, हनुमान की स्मृति में श्रीराम द्वारा किया वर्णन आया। जो आभूषण देह पर दिख नहीं रहे वे हरण के समय मार्ग में गिरा देने के पश्चात पाये गये आभूषणों से मेल खा रहे थे, जो देह पर थे, वे वर्णन को पूरा कर रहे थे, कोई संशय नहीं था।
5013041c तान्येवैतानि मन्येऽहं यानि रामोऽन्वकीर्तयत्
5013042a तत्र यान्यवहीनानि तान्यहं नोपलक्षये
5013042c यान्यस्या नावहीनानि तानीमानि न संशयः
पुराना एवं मलिन हो जाने पर भी उनका स्वर्ण खचित पीला, पीतं कनकपट्टाभं, पहना हुआ वस्त्र हरे जाते समय मार्ग में फेंके गये वस्त्र समान ही दिख रहा था:
5013045a इदं चिरगृहीतत्वाद्वसनं क्लिष्टवत्तरम्
5013045c तथा हि नूनं तद्वर्णं तथा श्रीमद्यथेतरत्
हनुमान निश्चित होते चले गये –
5013046a इयं कनकवर्णाङ्गी रामस्य महिषी प्रिया
5013046c प्रनष्टापि सती यस्य मनसो न प्रणश्यति
5013047a इयं सा यत्कृते रामश्चतुर्भिः परितप्यते
5013047c कारुण्येनानृशंस्येन शोकेन मदनेन च
5013048a स्त्री प्रनष्टेति कारुण्यादाश्रितेत्यानृशंस्यतः
5013048c पत्नी नष्टेति शोकेन प्रियेति मदनेन च
5013049a अस्या देव्या यथा रूपमङ्गप्रत्यङ्गसौष्ठवम्
5013049c रामस्य च यथारूपं तस्येयमसितेक्षणा
5013050a अस्या देव्या मनस्तस्मिंस्तस्य चास्यां प्रतिष्ठितम्
5013050c तेनेयं स च धर्मात्मा मुहूर्तमपि जीवति
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5013052a एवं सीतां तदा दृष्ट्वा हृष्टः पवनसंभवः
5013052c जगाम मनसा रामं प्रशशंस च तं प्रभुम्
यही कनकवर्णा तापसी राम की प्रिया सीता हैं, वह सती हैं जो आँखों से ओझल होने पर भी उनके मन से नहीं हटतीं। यही हैं जिनके कारण राम चार प्रकार से संतप्त रहते हैं – स्त्री का हरण हो जाना सोच कर करुणा होती है, आश्रिता के साथ ऐसा हो गया सोच कर द्रवित होते हैं, पत्नी गयी सोच कर शोकग्रस्त होते हैं तथा प्रियतमा पास नहीं रही सोच प्रेम की वेदना से पीड़ित रहते हैं।
कजरारे नेत्रों वाली यह देवी राम के ही यथारूप सुंदरी हैं जिनमें राम का मन लगा रहता है, ये वही हैं जिनका मन राम भी राम में रमा रहता है। धर्मात्मा राम का मुहुर्त भर जीवन भी इन्हीं के कारण है। इन्हीं के कारण उन्होंने यह दुष्कर अभियान किया है।
इस प्रकार सीता को देख पवनपुत्र हनुमान हर्षपूरित हो गये। मन ही मन अपने प्रभु राम के पास पहुँच उनकी प्रशंसा करने लगे (कि सीता जैसी पत्नी आप को मिलीं!)।
5014001a प्रशस्य तु प्रशस्तव्यां सीतां तां हरिपुंगवः
5014001c गुणाभिरामं रामं च पुनश्चिन्तापरोऽभवत्
परम प्रशंसनीया सीता एवं गुणाभिराम राम जी प्रशंसा करते हुये कपिश्रेष्ठ को पुन: चिंता हुई। मुहुर्त भर विचार करने के पश्चात उनके नेत्रों में आँसू भर आये। देवी सीता की सोच हनुमान विलाप करने लगे।
स मुहूर्तमिव ध्यात्वा बाष्पपर्याकुलेक्षणः।
सीतामाश्रित्य तेजस्वी हनुमान्विललाप ह॥
(क्रमश:)
परस्त्रीगमन एवं उनका बलात हरण, हे भीरु (सीता)!
ये राक्षसों के सर्वदा स्वधर्म रहे है, इसमें संशय नहीं है।
स्वधर्मो रक्षसां भीरू सर्वदैव न संशय:।
गमनं वा परस्त्रीणां हरणं सम्प्रमथ्य वा॥