कुभा, कु +भा। जिस नदी के जल की आभा मटमैली हो, कुभा, आज की काबुल नदी। कुभा से लगे नगर काबुल की वीथियों में घूमता मैं ऋग्वैदिक ऋषियों श्यावाश्व और प्रैयमेध का स्मरण करता हूँ, समय ने इस नगर पर ध्वंस के इतने प्रहार किये हैं कि इसकी कीर्ति कुभा के जल सी मटमैली हो गयी है।
मैं, पूर्वाञ्चली यायावर, दिक्काल के आयामों में झूलता सुदूर सात हजार किलोमीटर दूर यूरोप की भोगनगरी में बैठा कभी अपने ही क्षेत्र के कालयात्री से अंतर्जाल पर साक्षात हुआ, यात्रा को एक नया आयाम सा मिल गया!
नियति, नियति के गूढ़ चक्र ने ही मुझे काबुल पहुँचा दिया जिसकी कल्पना न तो मैंने कभी की थी, न सुहृदों ने। काबुल प्रवासकाल में ही गणेश चतुर्थी का पर्व था और मैं अपने गाँव लौटने की तिथि की प्रतीक्षा करते हुये अन्यमनस्क सा अंतर्जाल पर भ्रमण कर रहा था कि कालयात्री के एक संदेश पर दृष्टि पड़ी:
ईसा की पाँचवीं सदी में शाही राजा खिङ्गल ने वर्तमान अफगानिस्तान के गर्देज़ में ‘महाविनायक’ की प्राण प्रतिष्ठा की। वह प्रतिमा मिलने के पश्चात काबुल ले जाई गई जहाँ यह पामीर सिनेमा के पास दरगाह पीर रत्तन नाथ के हिंदू निवासियों द्वारा पूजित थी।
यायावर! बताओगे कि आज कल वहाँ क्या स्थिति है?
अन्यमनस्कता उर्वरा भूमा भी होती है, पर्जन्य प्रसाद मिले नहीं कि गहिमणी हो जाती है। मैंने निश्चय किया कि गर्देज के महाविनायक गणेश से भेंट अवश्य करनी है।
गुगल बाबा ने दरगाह पीर रत्तन नाथ के नाम पर मुझे दिल्ली के झण्डेवालान पहुँचा दिया! तीन दशकों के गृहयुद्ध ने काबुल और अफगानिस्तान को सूचना की दृष्टि से अंतर्जाल पर ‘धुँधला’ तो रखा ही है, साथ ही काबुल के इतिहास के साथ उसके ‘जुगराफिया’ को भी परिवर्तित कर के रख दिया है। मेरी सहज बुद्धि ने संकेत किया कि पामीर सिनेमा पुराने काबुल में होना चाहिये। तकनीकी और प्रौद्योगिकी के इस युग में कभी कभी नियति ऐसे मोड़ों पर भी ले जाती है जहाँ सहज मानवीय बुद्धि के अतिरिक्त कुछ काम नहीं करता। उसी नियति ने मुझे मुझे अपने उस सहकर्मी के पास पहुँचा दिया जिससे यदा कदा ही संवाद होता है। उसे महाविनायक का निश्चित पता ज्ञात था।
BINGO!
हम दोनों ने निश्चित किया कि आगत मंगलवार को दुपहर के भोजन पश्चात वहाँ जायेंगे। नियति ने पुन: करवट ली, काबुल पर विध्वंस पुन: उतरा, विस्फोटक अग्नि के आक्रमण एकाधिक स्थानों पर हुये एवं कोड़ी की संख्या में जन हानि के समाचार परिवेश में प्लवित होने लगे। चालक और सुरक्षाकर्मी दोनों ने हाथ खड़े कर दिये कि नहीं जायेंगे। सहकर्मी का तो पता ही नहीं था!
मैंने धैर्य धारण किया और अनुकूल समय की प्रतीक्षा करता रहा।
दो सप्ताह दो दिन पश्चात उस सहकर्मी से भेंट हुई और कुशल मंगल के पश्चात दोनों के मुँह से एक साथ एक ही प्रश्न उच्चरित हुआ – आज चलना है क्या? प्रतीक्षा, तेरे कितने रूप? प्रश्न उत्तर हो जाते हैं, नहीं?
मध्याह्न के लगभग तीन मुहूर्त पश्चात हम लोगों ने दरगाह पीर रत्तन नाथ की ओर प्रस्थान किया जिसे स्थानीय जन ‘धरमशाला’ के नाम से जानते और ‘धरमसाल्इ’ उच्चारते हैं।
‘मण्डी’ या ‘मण्ड्इ’ से सटे ही है पीर रत्तननाथ का मंदिर जिसे ‘महौ’ यानि अफगानिस्तान के किसी राष्ट्रपति ने दरगाह का नाम दे दिया।
पहुँचने पर मैंने पाया कि अपने परिवेश में ढली यह संरचना बाहर से किसी भी दृष्टि से मंदिर नहीं लगती है। द्वार खटखटाने के दो तीन मिनट पश्चात कपाट खुले और भीतर का दृश्य किसी आश्चर्य से कम नहीं था! देवनागरी में लिखे इस वैष्णव मंत्र पर ध्यान गया।
ॐ नमो भगवते वास्देवायै
सामाजिक और धार्मिक उत्पीड़न उत्पीड़ित को जीवित रहने की कला सिखा ही देते हैं। पता नहीं क्यों इसे दरगाह का नाम दिया गया? यहाँ किसी की कब्र नहीं है और न ही मुख्य हाल में कोई प्रतिमा! हाँ, रामायण, गीता और श्रीमद्भागवत की प्रतियाँ अवश्य रखी हैं। कुछ सीमा तक गुरुद्वारे की भाँति!! बचाव का कौशल, जीवित रहने की कवायद!!!
उत्पीड़न इतिहास बोध को या तो समाप्त कर देता है या अत्युच्च शिखर पर पहुँचा देता है। हिंदू एवं यहूदी इन दोनों स्थितियों के अप्रतिम उदाहरण हैं। सेवादार के अनुसार यह नहीं पता कि यह कब बना और इसका इतिहास क्या है? किंतु वार्तालाप के क्रम में उन्होंने मछिंदरनाथ का नाम लिया तो मैंने मन ही मन पीर रत्तननाथ जी का सम्बंध बाबा गोरखनाथ से जोड़ दिया।
तदुपरांत हम मंदिर के दूसरे भाग को देखने गये। जब मैंने उन्हें महाविनायक का चित्र दिखाया तो सहसा उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि कोई व्यक्ति एक प्रतिमा को ढूँढ़ने के लिये इतना कष्ट उठा सकता है! उन्हें यह भी ज्ञात नहीं था कि महाविनायक की यह प्रतिमा पाँचवी शताब्दी की है तथा मूलत: गर्देज़ की है। डेढ़ हजार वर्षों से समस्त विध्वंस, उत्पीड़न, विनाश के होते हुये भी अपनी पूरी महनीयता के साथ महाविनायक सामने विराजमान थे। मैैंने हाथ जोड़ लिये।
समाज का या समाज के किसी अङ्ग का शक्तिशाली या शक्तिहीन होना, समय के अनुकूल या प्रतिकूल प्रवाह पर निर्भर करता है परंतु बृहत् समाज का अपने शक्तिहीन होते अङ्ग की अनदेखी करना क्षरित होते इतिहास बोध का परिचायक है। सेवादार ने ही बताया कि आज से बीस वर्ष पहले तक यहाँ हिंदी और देवनागरी लिपि की पढ़ाई होती थी!
नाथ सम्प्रदाय का यह मंदिर सम्भवत: समय की अन्य बहुत सी सीमाओं को लाँघ जाय परंतु हमारे विराट हिंदू समाज की अपने, स्वयं के प्रति, प्रतिबद्धता पर प्रश्न तो अवश्य खड़े करता है या स्यात विराट हिंदू समाज की नियति ही यही है!
कालयात्री उवाच:
गोरक्षनाथ मंदिर, गोरखपुर। खिंचड़ी का मेला लगा है, मित्रों के साथ घूमने आया एक युवक छिटक लिया है। मरमरी कुट्टिम पर बैठा वह नाथपंथी कनफट्टे से प्रश्न पूछे जा रहा है और वह है कि आधा बताता है और आधे के लिये अट्टहास करता है। युवक प्यासा, बहुत प्यासा हो कर लौट जाता है, माँ के साथ सुने गोपीचंद की गाथा के सूत्र कब खुलेंगे? वर्षों पश्चात वह लिखता है, अबूझ सा, भटकता सा। प्रतीक्षा की कोई सीमा तो होनी चाहिये।
… नेपाल। स्वयम्भूनाथ के मंदिर की खड़ी सीढ़ियाँ हैं। चढ़ता हुआ स्वयं से पूछता है – यहाँ दूसरे कौन से स्थान होंगे जहाँ पहुँचना आवश्यक है? छोटी सी पुस्तक में एक नाम दिखता है – चौघेरा नाथ योगी मठ, दाङ्ग घाटी, संस्थापक योगी रत्ननाथ।
विद्युत सी चमक कौंधती है, जोगी गोपीचंद के पश्चात तो जोगी रतननाथ का ही नाम आता है न!
दु:ख है कि जाना नहीं हो पायेगा। सघोषा नारायणी के साथ लौटते हुये उसने मन के किसी कोने में अपनी उत्सुकता को समाधि दे दी है। संसार में बहुत कुछ है, अभी तो नारायणी पर बाँध कैसे बने, यही सीख लो तो बहुत है।
… युग बीत जाते हैं। गणेश चतुर्थी के दिन सुदूर दक्षिण की भूमि पर अंतर्जाल खँगालते उसे दिखते हैं – महाविनायक, दरगाह पीर रत्तननाथ, काबुल। और वर्षों की समाधि टूट जाती है!
आक्रांता इस्लाम से संघर्ष तो हुआ ही, उसको पचा कर अपने अनुकूल बना लेने के प्रयास भी कम नहीं हुये। नाथ पंथी योगियों ने इस दिशा में प्रयास किये और कुछ सीमा तक सफल भी हुये। कहीं ये वही जोगी रतननाथ तो नहीं जिनके बारे में पश्चिमोत्तर प्रदेशों में जाने कितनी किम्वदंतियाँ हैं? पूरब में नेपाल की घाटी से ले कर पश्चिम में वैदिक कुभा के तट तक जिनके चिह्न और गीत पसरे हुये हैं, कहीं वे वही यायावर घुमंतू योगी रत्ननाथ तो नहीं, जो मुसलमानों द्वारा हाजी बना कर पूजित हो गये? रत्ननाथ जो कि एक मृगया आसक्त राजकुमार थे, जिन्हें गुरु गोरक्षनाथ ने दीक्षित किया। कब हुये गोरख, कब हुये रत्तन, समय की गुत्थियाँ अबूझ हैं।
कालयात्री उद्विग्न है। जानना चाहता है कि दरगाह मंदिर पीर बाबा रतननाथ, दिल्ली; सिख गुरुओं के भी पूजनीय हाजी रतन, बठिण्डा; पीर रतननाथ, पेशावर… इन सबका काबुल के इस रत्तननाथ से सम्बंध तो नहीं? विनायक गणेश पधारे हैं, कुहरा छँटेगा।
वह यायावर के लिये संदेश छोड़ता है। जाने कितने दिनों की प्रतीक्षा के पश्चात यायावर ने महाविनायक का दर्शन पठाया है। कालयात्री पुलकित है। प्रतिमा तो ढकी हुई है, आधार का आलेख दिख नहीं रहा! पुणे के भण्डारकार संस्थान की प्रदर्शनी में भी नहीं था।
ऊपर देख, ऊपर देख यात्री!
आदिनाथ शिव का मंत्र पुन: पुन: लिखा दिखता है, दक्षिण के शिव शिव की भाँति, ॐ नमशिवायै ॐ नमशिवायै… ऊँचे उठ, और ऊपर देख यात्री। शून्य शिखर पर अनहद बाजै जी, छत की चित्रकारी में घुँधलाती अल्पना और देवनागरी के बीच लिखा दिख जाता है – हर श्री नाथ।
दिल्ली के पीर बाबा रतननाथ के मानने वाले ‘हर श्री नाथ‘ सम्प्रदाय से हैं।
… दाङ्ग, काबुल और दिल्ली एक हुये। नेपाल प्रवाही नारायणी, अफगानी कुभा और हिंदवी यमुना का सङ्गम हो गया। योगी रत्ननाथ का यात्रा पथ स्पष्ट हुआ। धन्यवाद महाविनायक गर्देज़ गणेश। धन्यवाद यायावर।
दिल्ली वालों! कुछ आगे करना है?
Kabul ko punah lubha banayenge….Multan ko punah mool-sthan banayenge….ma Bhavani hum aayenge
रहस्य और रोमांच से भरा अद्भुत आलेख!
Exellent