Babylonian and Indian Astronomy – Early Connections, सुभाष काक का 17 फरवरी 2003 को मूलत: अंग्रेजी में प्रकाशित लेख,
धारावाहिक अनुवाद – अर्पिता शर्मा
महावर्ष पर विस्तार से
चूँकि वैदिक एवं ब्राह्मण कालावधियों में युग इतनी स्पष्टता से सौर एवं चंद्र वर्षों को सुसंगत रखने के प्रयास से प्राप्त होता है, ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रहों की गति आवृत्ति को आधार बना कर और अधिक लम्बी अवधि के युग की रचना की गई।
कोई कारण ही नहीं है कि यह माना जाय कि ब्राह्मण काल में पाँचों ग्रहों की गति आवृत्ति का ज्ञान नहीं था। मैंने यह तर्क दिया है कि ऋग्वेद की संरचना में ज्योतिषीय अंक यह दर्शाते हैं कि इन गति आवृत्तियों के ऋग्वेद के समय में ही ज्ञात होने की सम्भावना बहुत प्रबल है।39
इन आवृत्ति अवधियों एवं सौर तथा चंद्र वर्षों के सामंजस्य बिठाते विभिन्न युगों को ध्यान में रखते हुए हम देख सकते हैं कि इन अवधियों का लघुत्तम समापवर्त्य एक और अधिक लंबी अवधि वाले युग को परिभाषित करेगा।
महाभारत एवं पुराणों में कल्प का संदर्भ है, जो कि ब्रह्मा का एक दिन कहा गया है, एवं जिसकी अवधि 43200 लाख वर्ष है। रात्रि भी इसी अवधि की है और ऐसे ही 360 दिन एवं रात्रि मिलकर ब्रह्मा के एक दिवस का निर्माण करते हैं। ब्रह्मा की जीवनावधि 100 वर्ष कही गई है। सर्वाधिक लंबा कालचक्र 3110400000 लाख वर्ष लंबा है, जिसके समापन पर ब्रह्मा द्वारा संसार का समापन किया जाएगा, और दूसरा चक्र आरम्भ किया जाएगा। प्रांरभिक स्थितियों पर लौटना (महायुति से आशय) इस प्रकार की सङ्कल्पना में अंतर्निहित है। चूंकि भारतीय एवं पारसी लोग निरन्तर सांस्कृतिक संपर्क में थे, यह स्वीकार्य है कि इस प्रकार यह पुरातन परम्परा पारसी रिक्थ का एक अंश बन गई। तब इसमें किञ्चित भी आश्चर्य नहीं रह जाता कि अबू माशर के ग्रंथों में विश्व-वर्ष का विचार 3600000 वर्षों का किया गया जिसमें फरवरी, 3120 ईसापूर्व में एक ग्रहीय युति का भी उल्लेख किया गया है।
यह भी प्रचारित किया गया है कि 300 ईसापूर्व के काल में बेबीलॉन के एक मंदिर के पुजारी बेरोसॉस द्वारा 432000 वर्षों के महावर्ष की संकल्पना के भारत में संचरित की गयी, किन्तु हम देख सकते हैं कि बेरोसॉस से बहुत समय पूर्व ही महावर्ष के संबंध में इस संख्या का प्रयोग शतपथ ब्राह्मण में हो चुका है।
महायुति के विचार के विषय में यह प्रतीत होता है कि यह भारत में प्रचलित चक्रीय पञ्चाङ्ग के आधार पर काम करता है। शतपथ ब्राह्मण में सात ऋषियों एवं कृत्तिकाओं के मध्य विवाह की चर्चा करता है, जो कि क्रमश: सप्तर्षि मण्डल एवं कृत्तिका नक्षत्र के तारे हैं। पुराणों में इस विषय में विस्तार से बताया गया है एवं कहा गया है कि प्रत्येक नक्षत्र में ऋषि सौ वर्षों तक रहे। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत में प्रारम्भिक समय में 2700 वर्षों के चक्र का शतवर्षीय पञ्चाङ्ग का अस्तित्व था। भारत के विविध भागों में यह आज भी प्रचलित है। इसका वर्तमान प्रारंभ 3076 ईसापूर्व लिया जाता है।
ग्रीक इतिहासकार प्लिनी एवं एरियन द्वारा इस पञ्चाङ्ग के 2000 वर्ष पूर्व उपयोग की पुष्टि की गई है, जो बताते हैं कि मौर्य काल का भारतीय पञ्चाङ्ग 6676 ईसापूर्व प्रांरभ हुआ था। ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह सप्तर्षि पञ्चाङ्ग ही था, जिसका प्रांरभ वर्तमान में प्रचलित सप्तर्षि पञ्चाङ्ग के 3600 वर्ष पहले होता है।
एक वास्तविक चक्रीय पञ्चाङ्ग की उपस्थिति दर्शाती है कि भारत में महायुति का विचार बेरोसॉस के समय से बहुत पुरातन है। इस विचार का प्रयोग अन्य स्थानों पर भी हुआ, किन्तु स्रोतों के अभाव में इसकी वास्तविक उत्पत्ति का पता करना संभव नहीं लगता है।
भारतीय ज्योतिष का पर्यवेक्षण
चंद्र राशियों के प्रयोग से पर्यवेक्षण के लिए उपादान जटिल हो जाते हैं, और यही कारण था कि प्रारम्भिक भारतीय ज्योतिषी इनके लिए अनमने रहे। रोजर बिलार्ड द्वारा उन्नीसवीं शताब्दी के इस विचार को कि भारत में पर्यवेक्षणीय ज्योतिष की उपस्थिति नहीं थी, असत्य दर्शा दिये जाने40 से प्रारम्भिक ज्योतिष इतिहास विषयक विद्यालयी पुस्तकों पर विध्वंसकारी प्रभाव पड़ा है। उनके सैद्धान्तिक एवं व्यवहारिक करण ग्रंथों संबंधी विश्लेषण यह प्रदर्शित करते हैं कि ये ग्रंथ ऐसे आधार / तत्व समूहों को प्रस्तुत करते हैं, जिनसे भविष्य में ग्रहों की अवस्थितियों की गणना की जा सकती है। इन गणनाओं में प्रथम पग माध्य देशांतरों का निर्धारण है, जिनको समय के रेखीय फलन के रूप में कल्पित किया गया है। तीन अन्य फलनों, वसन्तविषुव, चंद्र आसंधि(lunar node) एवं चंद्र दूरस्थ बिंदु की भी व्याख्या की गई है।
बिलार्ड ने पाँच ग्रहों के लिए इन रेखीय फलनों पर अनुसन्धान किया, दो सूर्य के लिए (वसन्तविषुव सहित) और तीन चंद्र के लिए। उन्होंने इन गणनाओं को आधुनिक परिकल्पनाओं से लिए गए मानों के परिप्रेक्ष्य में जाँचा और उन्होंने पाया कि वे ग्रंथ जिन कालावधियों में रचे गये उनके लिये इनके बहुत ही परिशुद्ध मान प्रदान करते हैं। चूँकि सिद्धान्त एवं करण मॉडल [बहुत] परिशुद्ध नहीं हैं, उक्त रचना कालावधियों से परे जाने पर विचलन बढ़ने लगते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो बिलार्ड ने उस संकल्पना को सिरे से नकार दिया, जिसमें कहा गया है कि भारत में कोई पर्यवेक्षणीय ज्योतिष की परंपरा नहीं रही किन्तु बिलार्ड की पुस्तक भारत में सरलता से उपलब्ध नहीं है, उसी कारण भारतीय साहित्य में पुरानी संकल्पना ही चलती रही है।
आर्यभट के नियंतांक उस समय के पश्चिम में उपलब्ध नियंतांकों से अधिक परिशुद्ध हैं। उन्होंने महायुग के लिए पुरातन भारतीय विचार और चक्रीय समय (जिसका तात्पर्य महायुति से है) को ग्रहण किया, और बहुत ही मौलिक एवं नूतन सिद्धान्त दिया। सूर्य के सापेक्ष बाहरी ग्रहों की भ्रमण गतियों के सम्बन्ध में उन्होंने उसी प्रकार तथ्य प्रस्तुत किये, जिस प्रकार बुध एवं शुक्र के शीघ्रोच्च द्वारा लघुतर ग्रहों के लिए किया गया था, जिसका यह अर्थ है कि उनके द्वारा प्रतिपादित व्यवस्था आंशिक रूप से सूर्यकेन्द्रीय41 थी। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि पृथ्वी अपनी स्वयं की धुरी पर ही घूमती है। चूँकि बेबीलॉन में आर्यभट से पहले इस प्रकार की विकसित व्यवस्था हमें दिखाई नहीं देती, अतः यह युक्तिसंगत नहीं लगता है कि भारतीय परंपरा अथवा स्वयं आर्यभट से परे जाकर इन विचारों के आधार हेतु आंकड़े खोजे जाएं।
भारतीय ज्योतिष में प्रयोग किया गया पर्यवेक्षणीय संविद आगे शोध हेतु एक रोचक विषय हो गया है।
निष्कर्ष
भारतीय एवं बेबीलॉन ज्योतिषीय विज्ञान पर विमर्श को उन्नीसवीं शताब्दी के भारतविद्या संबंधी विद्वानों के नृजातीय एवं औपनिवेशिक विचारों द्वारा दूषित कर दिया गया। इसके अतिरिक्त उनके विश्लेषण सांस्कृतिक सम्पर्क के सरलीकृत सिद्धान्तों पर आधारित थे। उन्होंने सदैव ज्ञान की धारा को एक दिशा से दूसरी दिशा में बहता हुआ ही देखा, और इस पर विचार ही नहीं किया कि वास्तविकता किञ्चित जटिल हो सकती है तथा ज्ञान की धारा दोनों दिशाओं से बह सकती है। इस बात का ध्यान रखने पर कि सांस्कृतिक सम्पर्क अनेक शताब्दियों लम्बे कालखण्ड में पसरे थे तथा मध्यस्थों के माध्यम से संवाद एक जटिल प्रक्रिया थी, आदान-प्रदान-प्रभाव से सम्बन्धित किसी भी प्रश्न का उत्तर जटिलतर होता जाता है।
भारतीय ज्योतिष पर हमारी समीक्षा यह दर्शाती है कि प्रारम्भिक वैदिक ग्रंथों के समय में, जो कि निश्चित रूप से 1000 ईसापूर्व से प्राचीन हैं, निम्न तथ्यों का ज्ञान था :
नक्षत्रों की पृष्ठभूमि पर सूर्य एवं चंद्र की गतियों की गणना वैदिक ज्योतिषी किया करते थे। आकाश को 12 भागों (आदित्यों) एवं 27 भागों (चंद्र नक्षत्रों)में बाँटा गया था, जहाँ नक्षत्र एवं देवताओं के नाम परस्पर परिवर्तित कर प्रयुक्त थे।
यद्यपि सौर राशि चिह्नों के नाम प्रथम बार सैद्धान्तिक ग्रंथों में दिखाई पड़ते हैं, हम देखते हैं कि उनके नाम चंद्र नक्षत्र भागों के देवताओं के नाम से भी व्युत्पन्न किए जा सकते हैं। यह जानते हुए कि नक्षत्रों के नाम संहिताओं में उपलब्ध हैं और राशियों के नाम वैदिक ग्रंथों में उपलब्ध नहीं है, कोई भी इस निष्कर्ष पर पहुँच सकता है कि प्राय: एक सहस्राब्दी ईसापूर्व के समय कभी राशिनामों का चुनाव पुराने आदित्य नामों को प्रतिस्थापित करने हेतु किया गया होगा किन्तु सौर चिह्न तो बहुत पहले से ही वैदिक ज्योतिष के प्रारम्भिक अंग रहे हैं, जिनके अभिज्ञान ऋग्वेदीय सूक्तों में ही उपलब्ध हैं जो समय चक्र के 360-अंश के बारह भाग विभाजन को भी दर्शाते हैं।
ज्योतिष सदैव से प्रारम्भिक वैदिक सभ्यता का अंग रहा है। वैदिक अनुष्ठान सदैव दिवस समय, नक्षत्र एवं चंद्र की स्थितियों से सम्बद्ध रहे। वर्ष को देव नक्षत्र एवं यम नक्षत्रों के बीच विभाजित किया गया एवं यह विभाजन सूक्ष्मतर स्तर पर भी किया गया, जिसका भावार्थ यही था कि कोई विशेष स्थिति अन्य स्थितियों से अधिक शुभ होती है। नक्षत्र नामों के अर्थों (यथा अनुराधा का अर्थ अनुकूल एवं पुनर्वसु का अर्थ संपत्ति प्रदान करना)से हमें इस बात के प्रमाण उपलब्ध होते हैं कि उनका कोई ज्योतिषीय आधार रहा होगा। वैदिक नक्षत्रों में विविध प्रकार की विशेषतायें बताई गई हैं और वैवाहिक रीतियों के समय ज्योतिषी शुभ मुहूर्त बताता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण 3.1.4 विभिन्न नक्षत्रों के साथ होने वाले प्रभावों का सञ्चय प्रस्तुत करता है।
वैदिक वैचारिकी में मौलिक धारणा अधिदैव(देव या नक्षत्र), अधिभूत (जीव) एवं अध्यात्म (चेतना) में तुल्यता या बन्धु भाव की रही है। नाक्षत्रिक, भौमिक, दैहिक एवं मनोवैज्ञानिक पक्षों के मध्य के सम्बन्ध उन उपपाठों का प्रतिनिधित्त्व करते हैं जिनके अभाव में वेदों को समझा नहीं जा सकता।
सामान्यत: इन सम्बन्धों को अनुक्रम सम्बन्धों के रूप में व्यक्त किया गया है जो कि एक पुनरावर्ती व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करता है, किन्तु अनुक्रमों के आर-पार इनको क्षैतिज रूप में भी प्रदर्शित किया गया है, जहाँ उनका अभिप्राय लाक्षणिक एवं संरचनात्मक संगतियों से है। प्रायः सम्बन्ध को संख्या अथवा अन्य लक्षणों के माध्यम से परिभाषित किया जाता है। एक उदाहरण नवजात की 360 अस्थियाँ – जो आगे चल कर निलयित हो वयस्कों की 206 अस्थियों में परिवर्तित हो जाती हैं- और वर्ष के 360 दिवसों का है। इसी प्रकार से ब्रह्माण्ड का पृथ्वी, द्यु एवं अन्तरिक्ष में त्रिविभाजन मनोवैज्ञानिक त्रिविभाजन (सत, रज एवं तम)42 में अभिव्यक्त होता है।
तिथि आधारित तन्त्र का प्रयोग एवं चंद्र मास का तीस भागों में विभाजन का आसन्न सम्बन्ध सोम पूजा से है, जो कि विशुद्ध भारतीय परंपरा है। इस प्रकार तिथि से संबंधित किसी परंपरा अथवा अनुष्ठान का उल्लेख बेबीलॉन के संदर्भ में प्राप्त नहीं है।
प्रमाणों से सिद्ध होता है कि यज्ञ पर भारतीय विचार, सौर वर्ष का 12 वर्षों में विभाजन एवं चंद्र मास के 30 भागों में विभाजन और राशियाँ प्रथम सहस्राब्दी ईसापूर्व के आसपास बेबीलॉन पहुँचे। वर्ष के सबसे बड़े एवं सबसे छोटे दिन में 3:2 का अनुपात सहित सभी भारतीय नये विचारों ने बेबीलॉन में ध्यानपूर्वक पर्यवेक्षण के एक ऐसे नए युग का आरम्भ किया, जिसने वहाँ की ज्योतिष के मूल को गहराई तक प्रभावित किया।
यद्यपि यह भी पूर्णतया सम्भव है कि बेबीलॉन में फल-फूल रही ज्योतिष पूर्णतया स्वतंत्र हो, जिनका आधार कुछ सामान्य विचार रहे हों, और वे ही विचार भारतीय एवं यूनान की धरती पर भी प्रचलित हों। किसी भी स्थिति में, उधार केवल सर्वसामान्य विचारों का ही था, वास्तविक युक्तियाँ स्थानीय परम्पराओं की निरन्तरता में ही थीं। जब हम विस्तृत रूप से देखते हैं तो पाते हैं कि भारत एवं बेबीलॉन (और यूनान भी)प्रत्येक के ज्योतिष में अद्वितीय तत्त्व उपलब्ध हैं।
ज्योतिष-शकुन शास्त्र मेसापोटामिया सहित पुरातन संसार का सर्वत्र अङ्ग रहा है। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि सौर राशि चिह्नों को आज जैसा हम जानते हैं, उनका उद्भव भारत में हुआ जहाँ उनका सम्बन्ध नक्षत्रों के अधिष्ठाता देवताओं से है। ऐसा प्रतीत होता है कि उनको एक सहस्राब्दी ईसापूर्व के मध्य बेबीलॉन ने अपनाया एवं इसके पश्चात वे यूनान पहुँचे। किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि वैदिक ज्योतिष-शकुन शास्त्र को बेबीलॉन ने अपना लिया।
अलक्षेन्द्र के पश्चात भारतीय सीमा पर बहुत से भारतीय-यूनानी राज्यों की स्थापना के परिणामस्वरूप भारतीय एवं पश्चिमी ज्योतिष-शकुन शास्त्र एवं खगोलविद्या के पारस्परिक सम्पर्क ने नये युग में प्रवेश किया। बढ़े हुये राजनैतिक एवं व्यापारिक सम्पर्कों ने ज्योतिष ग्रन्थों के आदान प्रदान को सम्भव बनाया।
आभारज्ञापन
परामर्श एवं आलोचना हेतु मैं नरहरि आचार एवं डेविड फ्राले का आभारी हूँ।
सन्दर्भ :