Delhi Jihad दिल्ली जिहाद उदाहरण है कि कैसे जिहाद द्वारा येन केन प्रकारेण अपने लिये जमीन छीनी जाती है। जिहादी हिंसा से ग्रस्त दिल्ली के उत्तरी पूर्वी भागों में से कुछ से महीनों या एकाध वर्षों में हिंदुओं का पलायन पूर्ण हो सकता हैै जो कि टुकड़ा टुकड़ा दारुल इस्लाम पा लेने की दिशा में एक लघु किंतु बहुत ही प्रभावी जिहादी उपलब्धि होगी। दिल्ली जिहाद और उसके परिणाम दर्शाते हैं कि कश्मीर में हिंदुओं के साथ क्या कुछ नहीं हुआ होगा!
1308 वर्ष पूर्व हुये पहले इस्लामी आक्रमण से ले कर आज तक भारत जिहाद से जूझता रहा है। अल-बलाधुरी के अनुसार उस आक्रमण में विजयी इस्लामी सेनाओं ने तीन दिनों तक सिंध की राजधानी देवल में निर्दोष हिंदू प्रजा का बर्बर नरसंहार किया। पूरे विश्व को दो भागों दारुल इस्लाम (इस्लामी नियंत्रण की भूमि) और दारुल हरब (इस्लामी नियंत्रण से परे भूमि) में बाँट कर देखने वाला इस्लाम मानवता को भी दो भागों में बाँट कर देखता है – किताबी और किताबबाह्य। किताबी जमात यदि इस्लाम को नहीं स्वीकारती तो उसे जजिया कर दे कर अनेक पाबंदियों के साथ जीने की छूट है। वहीं इस्लाम को न मानने वाली किताबबाह्य मानवता काफिर कहलाती है तथा यदि इस्लाम को नहीं स्वीकार करती तो वाजिबुल कत्ल, मार दिये जाने के योग्य है। इसमें सैन्य, असैन्य, स्त्रियाँ, बच्चों आदि का कोई भेद नहीं। देवल का संहार हो या तब से आज तक चले संहार, सब इसी लिखित आदेश के पालन में हैं तथा ऐसा करने में कोई दोष नहीं, उल्टे यह सवाब (पुण्य पुरस्कार) का काम बताया गया है। इस्लामी मत में केवल दीन ही मान्य है, देश की सीमाओं को ले कर उसमें कोई मोह नहीं।
दीन के प्रसार हेतु छल, छ्द्म, झूठ, फरेब, धोखा आदि सभी मान्य हैं। ऐसा नहीं है कि भारत ने प्रतिरोध नहीं किया। वस्तुत: भारत की धरती पर इस्लाम को शताब्दियों तक प्रतिरोध का सामना करना पड़ा तथा भारत को दारुल इस्लाम बनाने का अभियान अधूरा ही रहा, सीमायें कटतीं जाने पर भी भारत की धरा से ‘बुतपरस्ती का दाग’ नहीं गया और यहाँ की बहुसंख्यक जनता काफिर ही बनी रही।
कठिन प्रतिरोध को भोथरा करने और अपनी स्वीकार्यता हेतु इस्लाम ने छल के रूप में सूफी मार्ग का भी अवलम्ब लिया। इस्लामी किताब कालानुक्रम में नहीं है जिसके कारण उसमें लिखे की पृष्ठभूमि सामान्य जन से छिपी है। किताब से चुन कर कुछ ऐसे अंश सुनाये जाते रहे हैं जो तब के हैं जब अरब जगत में इस्लाम अपनी आरम्भिक अवस्था में था तथा उसे छल-छ्द्म द्वारा अपनी पैठ बनानी थी।
ब्रिटिश काल में इस्लाम को भारत में एक स्वाभाविक साथी मिल गया – मार्क्सवाद, हिंसक कम्युनिस्ट तंत्र का समर्थक। इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि आरम्भिक कम्युनिस्टों में मुसलमानों की संख्या बहुत बढ़ी चढ़ी दिखती है।
मार्क्सवाद और राजनीतिक इस्लाम भारत में एक दूसरे के सहज सहयोगी और पूरक हैं। मार्क्सवाद भी देश नहीं मानता, मानवता को दो बड़े समूहों सर्वहारा और बुर्जुवा में बाँट कर देखता है और जिहाद के समांतर ही क्रांति के हिंस्र मार्ग का समर्थक है। कम्युनिस्ट सोवियत संघ हो या चीन, विविध राष्ट्रीयताओं के विनाश, नरसंहार, भूमि हड़पने आदि में इस्लाम की ही भाँति दक्ष रहे, किये।
सम्पूर्ण विश्व में आज मार्क्सवाद इस्लाम को वैचारिक और सांस्थानिक आधार व कवच प्रदान करता है। भारत में मार्क्सवादी और वामपंथी आज इस्लाम के हरावल हैं यद्यपि पाकिस्तान या अन्य इस्लामी देशों में मार्क्सवादी या वामपंथी आंदोलनओं की दुर्गति साक्षात है। मार्क्सवाद को पनपने हेतु आभासी वर्गशत्रुओं की आवश्यकता होती है जो कि भारत के सनातनी लोगों के रूप में उपलब्ध हैं क्योंकि मार्क्सवाद सनातनी मूल्यों को शोषक, ह्रासशील एवं बुर्जुवा मानता है। दो भिन्न कारणों से उनकी ही गढ़ी परिभाषाओं द्वारा इस्लाम व मार्क्सवाद के भोले शत्रु बन गये हिंदू दोनों ओर से मार खा रहे हैं तथा उक्त दो बर्बरों की युति उनके विरुद्ध वैचारिक से ले कर सामरिक हिंसा में बहुत सफल और प्रभावी है।
दिल्ली जिहाद उसका अप्रतिम उदाहरण है।
Delhi Jihad दिल्ली जिहाद उदाहरण है कि कैसे जिहाद द्वारा येन केन प्रकारेण अपने लिये जमीन छीनी जाती है। जिहादी हिंसा से ग्रस्त दिल्ली के उत्तरी पूर्वी भागों में से कुछ से महीनों या एकाध वर्षों में हिंदुओं का पलायन पूर्ण हो सकता है जो कि टुकड़ा टुकड़ा दारुल इस्लाम पा लेने की दिशा में एक लघु किंतु बहुत ही प्रभावी इस्लामी उपलब्धि होगी। ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे इंसाल्लाह’ नारे के नेपथ्य में यही मानसिकता है।
छल छ्द्म का उदाहरण समझना हो तो देखें कि कैसे नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध की आड़ में शाहीन बाग में औरतों को आगे कर परदा खींचा गया। उस परदे के आगे वामपंथी नारा-नाटक करते रहे और उधर एक अन्य क्षेत्र में निर्णायक हिंसक जिहाद हेतु उपादान तथा आक्रांता भीड़ जुटाई जाती रही। प्रशासन से ले कर जनता तक धूर्तता, छ्ल व छ्द्म को समझ ही नहीं सके तथा अमानवीय बर्बरता से ऐसी हत्यायें की गयीं जिनसे आगे अनेक वर्षों तक हिंदुओं के मन में आतंक रहेगा। प्रचण्ड हिंसा में औरतों ने बढ़ चढ़ कर भाग लिया तथा एक पुलिस अधिकारी एवं रक्षक को क्रमश: अत्यधिक आहत एवं मृत कर देने में सम्मिलित रहीं। दिल्ली जिहाद और उसके परिणाम दर्शाते हैं कि कश्मीर में हिंदुओं के साथ क्या कुछ नहीं हुआ होगा!
मनोवैज्ञानिक रूप से दिल्ली जिहाद के हिंदू मानस पर दूरगामी नकारात्मक प्रभाव होंगे। राष्ट्रीय राजधानी में जहाँ कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सर्वोच्च न्यायालय सहित जाने कितने ही संवेदनशील विभाग एवं उपक्रम हैं; महीनों तक बहुत ही सधे ढंग से सब कुछ जुटाया गया और सफलतापूर्वक जिहाद किया गया तथा गुप्तचर संस्थाओं, प्रशासन आदि को तब तक पता तक नहीं चला या वे आँखें मूँदे रहे जब तक कि बर्बर तैमूरी हिंसा हो नहीं गयी! लज्जित होने एवं डरने की बात है कि जब राजधानी में यह स्थिति है तो देश के अन्य नगरों में ….
Delhi Jihad दिल्ली जिहाद के परोक्ष हानिकारक प्रभाव भी हुये। देश में जन साधारण के मन में जो आत्मविश्वास बढ़ रहा था, वह तो थमा ही; अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जो साम्राज्यवादी, प्रभुत्ववादी एवं औपनिवेशिक मानसिकता का तंत्र है, उसने अपने प्रचार तंत्र द्वारा इसका उपयोग हिंदुओं और भारत की छवि धूमिल करने में किया। संयुक्त राष्ट्र हो, ब्रिटेन हो या अन्य ऐसे, सर्वत्र भारत-विरोधी तत्त्व सक्रिय हैं और उन्हें भारत के भीतरी कम्युनिस्ट और वंशवादी सञ्चार तंत्र एवं प्रभावी लोगों द्वारा निरंतर सामग्री उपलब्ध करवाई जा रही है, घटनाओं के विकृत एकपक्षीय हिंदूद्वेषी वर्णन में विकिपीडिया जैसा अंतर्जाल सूचना तंत्र भी सम्मिलित हो गया है।
तथ्यों की निर्लज्ज एवं ढींठ उपेक्षा देखनी हो तथा मिथ्या प्रचार के सुनियोजित सशक्त माध्यमों को जानना हो तो इन सबको जानना पर्याप्त होगा। विद्यार्थी एवं उच्च शिक्षा प्राप्त से ले कर पञ्चर बनाने वाले तक इस जिहाद में सम्मिलित हैं। हर सीमा पर, हर क्षेत्र में, हर संवाद पर वे गला फाड़ कर झूठ और छल का प्रदर्शन कर रहे हैं तथा उन्हें कम्युनिस्ट एवं वंशवादी तंत्र द्वारा स्वीकृति तो है ही, संरक्षण एवं धन की भी व्यवस्था की जा रही है। नये भ्रम एवं झूठ गढ़े जा रहे हैं तथा उनका प्रचार प्रसार जहाँ भी, जैसे भी अवसर मिले किया जा रहा है। कुछ दिनों पूर्व एक मुस्लिम सांसद की उपस्थिति में सार्वजनिक मञ्च से ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे लगाने वाली छात्रा की जाँच से राष्ट्रघाती तत्त्वों के सुनियोजित तंत्र का केवल एक पक्ष उद्घाटित हुआ है, जाने कितने पक्ष अभी भी आँखों से ओझल हैं। COVID-19 विषाणु एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अर्थतंत्र में हुई उथल पुथल के अवसर का उपयोग भी भारत विरोधी नरेटिव गढ़ने एवं प्रचारित करने में किया जा रहा है। निर्मम समर्पण के ऐसे देशघाती उदाहरण स्यात ही मिलें!
शाहीन बाग से आरम्भ हुआ ‘Delhi Jihad दिल्ली जिहाद’ वस्तुत: नागरिकता संशोधन अधिनियम में हुई कथित मुस्लिम उपेक्षा को ले कर नहीं है जैसा कि बताया जाता है। सिवाय अरब के किसी देश एवं राष्ट्र से कोई ममत्व न रखने वाली सोच उम्मा पर आधारित है, अर्थात सभी मजहबी राष्ट्रीय सीमाओं से परे हैं तथा पूरी धरा को दारुल इस्लाम बनाना उनका पावन कर्तव्य। कश्मीर से 370 का तिरोहण हो, तीन तलाक पर विधिक प्रतिबंध हो, श्रीराम मन्दिर पर निर्णय हो, भारतीय सेना द्वारा आतंकवाद के विरुद्ध किये गये सीमा पार अभियान हों, हिंदू भारत का बढ़ता आत्मविश्वास एवं अपनी सुरक्षा के प्रति जागृति हो; उम्मा ने सबको दारुल इस्लाम के विरुद्ध माना है।
नागरिकता संशोधन अधिनियम प्रतिरोध का एक बहाना मात्र है, कम्युनिस्ट-इस्लाम युति के वास्तविक लक्ष्य उसे बहुत स्पष्ट हैं, आवश्यक है कि भारतीय जनता सहित अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी समझे। यह मात्र गोलियों एवं विस्फोटक शस्त्रास्त्रों से सैनिकों द्वारा लड़ा जाने वाला युद्ध नहीं है, इसमें हर सहमत व असहमत नागरिक पीड़ित है और जन एवं उपादान शस्त्रास्त्र हैं – सामूहिक फेरी निकालने वाले, संविधान व राष्ट्रगान के पोस्टरों व शब्दों के साथ पेट्रोल बम, कट्टे व हथगोले ले कर चलने वाले, गुलेल, छतोंं पर एकत्र किये पत्थर, लुभावने पर भ्रामक नारे लिखी तख्तियाँ ले कर चलने वाली विद्यार्थी युवतियाँ, विविध विद्रोही मुद्राओं का बिना निहितार्थ जाने प्रदर्शन करने वाली बिंदास औरतें और जीभ को लुभाने वाली बिरयानी भी।
सारा संसार इनसे त्रस्त है किंतु भारत के लिये यह संकट बढ़ती जनसंख्या एवं घुसपैठ के कारण बहुत बड़ा है। लोगों को दृष्टि की संकीर्णता को छोड़ दिल्ली जिहाद को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना एवं समझना होगा। भारत निरंतर आक्रमणों की चपेट में है तथा शनै: शनै: आक्रांता अपने लक्ष्य की दिशा में बढ़ रहे हैं। वैचारिक मूढ़ता, आलस्य, छुद्र स्वार्थ, मुफ्तखोरी एवं अकर्मण्यता का त्याग कर दीर्घकालिक एवं अल्पकालिक उपाय ही समाधान हैं। तंत्र के विरुद्ध तंत्र खड़े किये जायँ, प्रतिरोध चलता रहे। उत्तम कोटि की वैकल्पिक एवं सशक्त संस्थाओं के निर्माण एवं शिक्षा तंत्र को निर्विष किये जाने की तत्काल आवश्यकता है। आधुनिक काल के अनुसार उत्परिवर्तित हो चुके जिहादी संकट से पुराने एवं परम्परागत उपायों से नहीं निपटा जा सकता। सभ्य सांस्कृतिक समाज को नवोन्मेषी होना होगा। व्यर्थ की भावुकता एवं political correctness से मुक्त हुये बिना कोई दीर्घजीवी समाधान नहीं होना।