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अनेक वैज्ञानिकों एवं अभियंताओं का मानना है कि एक दिन ऐसा आएगा कि सङ्गणक (Computer) में भी चेतना उत्पन्न हो जाएगी। कंप्यूटर वैज्ञानिक बर्नाड बार्स एवं स्टान फ्रैंकलिन ने 2009 में कहा था – मशीन पर चलने वाले अभियुक्ति (Algorithm) से चेतना उत्पन्न की जा सकती है। अक्तूबर 2017 के MIT टैक्नोलॉजी रिव्यू के अनुसार इसके लिए बहुत प्रतीक्षा नहीं करनी होगी। यह निकट भविष्य में सम्भव है। यह बात सब जानते हैं कि यन्त्रों का क्रमिक विकास (Evolution) जैविक क्रमिक विकास से कहीं तीव्र होता है, अत: यह आशङ्का है कि मनुष्य चेतनापूर्ण मशीनों की गति से प्रतियोगिता करने में सक्षम नहीं होगा। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि बहुत सी वैज्ञानिक एवं तकनीकी मेधायें दृढ़ता पूर्वक कह रही हैं कि कृत्रिम प्रज्ञान (Artificial Intelligence) मानवता को विध्वंस की ओर धकेल रहा है। स्टीफेन हाकिङ्ग ने 2014 में बीबीसी को बताया था कि मेरा मानना है कि कृत्रिम प्रज्ञान का संपूर्ण विकास मानव जाति का विनाश कर सकता है। 2017 में नेशनल गवर्नर्स एसोसिएशन से बात करते हुए टेस्ला के मुख्य कार्यकारी अधिकारी इलोन मस्क ने कहा था कि [अब] कृत्रिम प्रज्ञान तकनीकी मानव सभ्यता के अस्तित्त्व हेतु प्रधान सङ्कट (fundamental risk) है।
तो चल क्या रहा है? क्या हमारे देह-यंत्र में अवस्थित “स्वत्त्व की आत्मा (ghost of self)” को संगणना द्वारा समझा जा सकता है? यदि कृत्रिम प्रज्ञान का कड़ाई से नियमन नहीं किया गया तो क्या यह वास्तव में अपरिहार्य है कि मशीनें ‘चेतन’ हो जायेंगी? कई भविष्यवादी एवं विज्ञान गल्प लेखक कृत्रिम प्रज्ञान और मस्तिष्क के आपसी मिलाप की कल्पना करते हैं, जिससे मानव ‘परामानव’ बन जाएगा और मानवीय सीमायें पीछे छूट जायेंगीं।
कुछ अन्य लोगों का मानना है कि इन सभी वैज्ञानिक तथ्यों को समझने का एकमेव उपाय वास्तविकता को सतत अनुकरण (Simulation) की भाँति लेना है। यह विचार ‘मैट्रिक्स‘ एवं ‘वाच गेमर‘ जैसी फिल्मों में प्रयुक्त हुआ है।
एक परिदृश्य इस मान्यता से भी उभरता है कि यदि एकबार मनुष्य अपने मस्तिष्क को पूर्णरूपेण चिह्नित एवं प्रस्तुत करना सीख गया तो वह स्वयं को संगणकोंं में प्रतिलिपित करने में समर्थ हो जायेगा और इस प्रक्रिया में अपनी अनुकृति बनाता जायेगा। आगे इन अनुकृतियों की प्रतिकृतियाँ भी सरलता से बनायी जा सकेंगी और इस प्रकार वे शीघ्र ही वास्तविक व्यक्तियों से अधिक सङ्ख्या में हो जायेंगी।
किसी भी स्थिति में, यदि और जब भी कृत्रिम प्रज्ञान का क्रमिक विकास एक सचेत यन्त्र के रूप में होगा, हमारे द्वारा ज्ञात विश्व का वह अन्त होगा। इसकी सर्वाधिक सम्भावना है कि ‘चैतन्य यन्त्र’ विश्व पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर मनुष्यों को अपना दास बना लेंगे। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए, ‘चैतन्य यन्त्र’ की सम्भावना आज के समय में मानवता के समक्ष सबसे कठिन चुनौती है।
बहुत सारे व्यक्ति ‘चैतन्य यन्त्र’ की परिकल्पना का उपहास उड़ा सकते हैं परन्तु यदि इसे ‘बोध awareness’ एवं ‘व्यक्ति-त्त्व personhood’ के रूप में मान कर देखें तो जिन यन्त्रों में ऐसे गुण होंगे, वे अन्य यंत्रों की तुलना में अधिक स्वायत्त हो जायेंगे, और परिणामस्वरूप, वे अधिकांश कार्यों में संभावित रूप से मानव का स्थान ले लेंगे। इससे औचित्य एवं नैतिकता के असाध्य प्रश्न उठ खड़े होंगे। भले ही प्रत्येक मनुष्य को भोजन,घर एवं मनोरंजन के लिए एक सार्वजनीन न्यूनतम आय सुनिश्चित कर दी जाय, जैसा कि अधिकांश अर्थशास्त्री विचार देते रहते हैं,और मशीनें हमें अकेला छोड़ दें, तो भी वह जीवन एक नीरस जीवन होगा।
संगणक में चेतना के सम्भाव्य विकास सम्बंधित विचार के पक्ष में अनेक तर्क हैं। चूँकि हम इस तथ्य को नकार नहीं सकते कि मस्तिष्क एक यन्त्र ही है, अत: अन्य यन्त्रों में भी उचित वास्तुशिल्प से विकसित चेतना प्राप्त होनी चाहिये। यद्यपि कुछ लोग का तर्क है कि किसी भी मस्तिष्क के तंत्रिका तंत्र की गहराई में क्वाण्टम (प्रमात्रा) गतिविधियाँ होती हैं जो जो क्लासिकल (Classical) सङ्गणकों जैसी नहीं होती हैं, तो भी भविष्य में ऐसे क्वांटम सङ्गणकों की सम्भावना सिद्ध की जा सकती है, जो हर संभव रूप में मानव मस्तिष्क का अनुकरण करें।
अब आजकल इस प्रकार के संज्ञानात्मक काम भी हैं जिनके कार्यान्यवन के समय कर्त्ता को विषयानुभूति नहीं होती है। ऐसे संज्ञानात्मक (कॉगनिटिव) काम यंत्रों द्वारा भी किये जा रहे हैं और यन्त्र इन कार्यों को विश्वसनीयता और तीव्रता से करते हैं।
बोध संगणना से परे की बात है क्यों कि यह वह क्षमता है जो मस्तिष्क के प्रसंस्करण को इच्छानुसार रोक कर परिवेश में घट रही घटनाओं पर उस प्रसंस्करण के प्रभाव को देखती है।
एलेन टर्निंग ने 1936 में इसी प्रकार के प्रसंस्करण को रोकने वाली (halting) एक समस्या की पहचान की थी, और उन्हों ने यह भी बताया कि कोई भी ऐसी अभियुक्ति (algorithm) नहीं जो यह निर्धारित कर दे कि एक दिये हुए विवरण और आदान के आधार पर, कोई भी संगणक संविधि (computer program) रुकेगा या सदैव के लिए चलता ही रह जाएगा।
यदि किसी एकपक्षीय आदान को एक मनमाने समय पर रोकना सङ्गणकीय क्षमता के अनुसार असम्भव है और जागृत मस्तिष्क उसे कर देता है, तो यही निष्कर्ष निकलता है कि चेतना सङ्गणकीय नहीं है।
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हमारे अंतर्ज्ञान में, चेतना एक ऐसी श्रेणी है जो भौतिक वास्तविकता से भिन्न (द्वैध) है। वास्तविकता को हम स्थान, समय एवं पदार्थ (स्पेस, टाइम एंड मैटर) से परे अपने मस्तिष्क में अनुभव करते हैं। यह अनुभव मस्तिष्क की विविध अवस्थाओं के आधार पर भिन्न-भिन्न होता है और कोई यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि मनुष्येतर जीव इसे उससे भिन्न प्रकार से अनुभव करते हैं। यह भी महत्वपूर्ण है कि हमारे चेतन अनुभव में हम सदैव भौतिक संसार से बाहर हैं और अपने शरीर से भिन्न स्वयं को साक्षी करते हैं। वैज्ञानिक सिद्धांत में भी, उदाहरण के लिए शास्त्रीय यांत्रिकी में, पर्यवेक्षक प्रणाली से दूर है, भले ही सिद्धांत के भीतर पर्यवेक्षक की कोई व्याख्या नहीं है।
इस प्रश्न का उत्तर देने में सहायता करने के लिए कि क्या मशीनें सचेत हो जाएंगी, हमें वास्तविकता की प्रकृति के प्रश्न पर वापस जाना चाहिए। क्या यह विश्व अपने हिस्सों और उनके अंतर्संबंधों द्वारा वर्णित एक मशीन है, या यह मौलिक ज्ञान है? पहला दृष्टिकोण ओनेटिक (ऑन्कोलॉजिकल से, जो संरचना से संबंधित है) कहा जाता है, और दूसरे दृष्टिकोण को एपिस्टेमिक ( ज्ञान से संबंधित) कहा जाता है। दर्शनशास्त्र में, ये दो भिन्न-भिन्न विचारधाराओं की स्थिति है, एक यह मानता है कि वास्तविकता ‘होने की स्थिति’ है और दूसरी यह कि वास्तविकता ‘बनने की स्थिति’ है। विश्व की ‘होने की स्थिति’ की अवधारणा भौतिकवाद (मटेरिअलिस्म) से सम्बन्धित है, जबकि ‘बनने की स्थिति’ पर्यवेक्षकों को अधिक महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान करता है।
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पिछले वर्ष मैं संयुक्त राज्य अमेरिका और कैम्ब्रिज, यूके के विभिन्न स्थानों में एसआरआई इंटरनेशनल, मेनलो पार्क द्वारा आयोजित सप्ताह भर की कार्यशालाओं की शृंखला में प्रतिभागी था, जो इस विषय पर विचार करने के लिए आयोजित की गई थी कि क्या भविष्य में मशीनें सचेत हो जाएंगी? इन कार्यशालाओं के तीसेक प्रतिभागियों में कंप्यूटर वैज्ञानिक, भौतिक विज्ञानी, न्यूरोसाइंटिस्ट, दार्शनिक और कूटनीतिक विचारक सम्मिलित थे।
हमने एक मशीन प्रतिमान में स्वार्थ की अवधारणा के साथ कई कठिनाइयों का निरीक्षण किया। मानक तंत्रिका विज्ञान मस्तिष्क और मस्तिष्क के अभिज्ञान के सिद्धांत को स्वीकार करता है। इस दृष्टिकोण में, मन अंतर्संबंधों की जटिलता से उभरता है और इसका व्यवहार आवश्यक रूप से तद्विषयक मस्तिष्क के कार्यात्मकता द्वारा वर्णित होना चाहिए माध्यम अथवा व्यक्ति के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ते हुए । लेकिन चेतना का कोई विशिष्ट तंत्रिका संबंध नहीं पाया गया है और चेतना का स्थानीयकरण नहीं किया जा सकता है।
मनुष्यों का स्वार्थ, स्वायत्तता और स्वतंत्रता से संबंधित विरोधाभास की ओर जाता है। मनुष्य इस विचार को अस्वीकार करते हैं कि वे केवल यन्त्र हैं, तदपि वे प्राय: शरीर की यान्त्रिकी के साथ अपने ‘स्व’ की तुलना करते हैं। दूसरी ओर, मानव की आत्म-छवि शरीर की होती है, साथ में क्षणिक विचारों की भी, जो कि एक “I” के भीतर निरीक्षण करता है।
हम किसी की स्मृतियों और सम्बन्धों से संबंधित ‘आत्मकथात्मक स्व autobiographical self’ और ‘मूल आत्म’ के बीच अंतर करते हैं, जो वर्तमान समय में निहित है। ‘आत्मकथात्मक स्व’ आंशिक रूप से व्यक्ति की कल्पना का परिणाम है क्योंकि यह अतीत की व्याख्या है और इसमें भविष्य के लिए आशाएं भी सम्मिलित हैं। ‘मूल आत्म’ मायावी है; यह वह प्रकाश है जो चारों ओर की चीजों पर चमकता है और समय और स्थान में उनके साथ जुड़ता है।
बेंजामिन लाइबेट के प्रयोगों से पता चला है कि कैसे किसी कर्त्ता द्वारा किए गए निर्णय पहले अवचेतन स्तर पर उत्पन्न होते हैं और उसके बाद ही सचेतन निर्णय में उनका अनुवाद किया जाता है। घटना के पूर्वव्यापी दृष्टिकोण पर, कर्त्ता इस विश्वास पर आता है कि निर्णय उसकी इच्छा के अनुसार हुआ था। लाइबेट के प्रयोग में कर्त्ता को अपनी कलाई को झटका देने के लिए एक यादृच्छिक क्षण का चयन करना था, जबकि मोटर कॉर्टेक्स को उससे संबंधित गतिविधि को मापा गया था। लाइबेट ने पाया कि अचेतन मस्तिष्क की गतिविधि, जो कर्त्ता द्वारा लिए गए सचेत निर्णय तक ले जाती है, कर्त्ता के सचेत रूप से निर्णय लिए जाने के अनुभव किए जाने से लगभग आधा सेकंड पहले शुरू हुआ । लेकिन इसे पूर्वकारक के उदाहरण के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए; बल्कि, यह चेतन मन के संचालन में एक अंतराल का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें मन द्वारा वास्तविकता का निर्माण होता है।
कार्यशालाओं में भाग लेने वाले प्रतिभागी इस बात से सहमत थे कि भविष्य की कृत्रिम प्रज्ञान यन्त्रें (एआई-मशीनें) सभी संज्ञानात्मक कार्यों का अनुकरण करने में सक्षम होंगी और निहितार्थ में सभी प्रकार की नौकरियों में मनुष्यों को प्रतिस्थापित करने में सक्षम होंगी। लेकिन वे इस बात पर विभाजित थे कि क्या मशीनें मनुष्य की तरह सचेत होंगी। विभाजन इस विचार के आधार पर निकला कि चेतना की घटना दो अलग-अलग प्रकारों में आ सकती है जिसे मैं लिटिल-सी और बिग-सी कहता हूं। यदि चेतना के सभी प्रकार लिटिल-सी में समाहित हैं तो यन्त्र भी सचेतन हो जाएंगे किंतु यदि मानव चेतना वास्तव में बिग-सी है, तो यन्त्र पूर्णरूपेण चेतन नहीं हो पायेंगे ।
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चलिए, देखते हैं ये दो प्रकार की चेतना संबंधी संकल्पनाएं क्या हैं? लिटिल-सी प्रकार की चेतना मस्तिष्क के कार्य करने के जटिल ढंग से उत्पन्न होती है। जिस प्रकार से जीवविज्ञान रसायनविज्ञान से और आगे रसायनविज्ञान भौतिकी से उत्पन्न है, उसी प्रकार से यह संबंध भी है। यह सामान्यत: बौद्ध स्रोत का बताए गए उस विचार के समान है, जो कहता है कि चेतना शून्यता की भूमि पर प्रस्फुटित होती है। इस दृष्टि से, यदि एक पर्याप्त जटिल यन्त्र मस्तिष्क में प्रक्रियाओं का अनुकरण करने में सक्षम है, तो वह सचेत होगा।
दूसरी ओर, बिग-सी मानती है कि चेतना भौतिक वास्तविकता से भिन्न है। दार्शनिक रूप से, यह वेदांत का सिद्धान्त है, जिसमें मानसिक और शारीरिक घटनाएं एक ही वास्तविकता के दो पक्ष हैं, जैसे एक सिक्के के दो पक्ष ।
दूसरी तरफ बिग-सी मानता है कि चेतना भौतिक वास्तविकता से परे है। दार्शनिक रूप से देखें तो यह वेदान्त का विचार है, जिसमें मानसिक एवं भौतिक किसी भी वास्तविकता के दो आयाम है, सिक्के के दो पक्षों की भाँति। (पार्श्वत: इसे देखें कि बुद्ध ने मृत्युशय्या पर यह घोषणा की थी कि वह वैदिक मत से सहमत हैं।)
क्वांटम सिद्धांत के अग्रदूतों ने सिद्धांत के गणितीय औपचारिकता को समझने के लिए तथाकथित रूढ़िवादी कोपेनहेगन व्याख्या (सीआई) का उपयोग किया, जहां अंतर्निहित विचार बड़े-सी का है। सीआई विभिन्न स्तरों पर सम्पूरकता के सिद्धान्त को मानता है और इसमें पदार्थ और मन या कर्म और कर्त्ता (वस्तु और विषय) के द्वंद्व सम्मिलित हैं।
चेतना के दो दृष्टिकोणों की जांच करने के लिए रचनात्मकता पर वैज्ञानिक प्रयोगों को विकसित किया जा सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि रचनात्मक क्षण एक जानबूझकर गणना के अंत में नहीं है। सपने या दर्शन के कई आत्मकथात्मक कथ्य हैं जो रचनात्मकता के विशिष्ट कार्यों से पूर्व के थे। इसके दो प्रसिद्ध उदाहरण एलियास होवे के आधुनिक सिलाई मशीन के 1845 की डिजाइन और अगस्त केकुल की 1862 में बेंजीन की संरचना की खोज है।
स्वयं-शिक्षित भारतीय गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन का जीवन, जिनकी मृत्यु 1920 में 32 वर्ष की आयु में हुई, बड़ी-सी चेतना के पक्ष में प्रमाण हैं। उनकी पूर्व की -भूली हुई नोटबुक, जो 1988 में प्रकाशित हुई थी, में कई हज़ार सूत्र हैं अपने समय से बहुत आगे हैं, बिना यह बताये कि वह उन तक कैसे पहुँचे थे । जब वह जीवित थे, तो उन्होंने यह दृढ़तापूर्वक कहा था कि सुसुप्तावस्था में उन्हें वे सूत्र मिले थे।किंतु द्रव्य मस्तिष्क (माइंड और मैटर) एक दूसरे को कैसे प्रभावित कर सकते हैं? एक संभावना अवलोकन के अधिनियम के माध्यम से है जो क्वांटम सिद्धांत में अवस्था – कार्य के पतन का कारण बनता है। यदि अवलोकन बार-बार किया जाता है, तो प्रणाली अवस्था स्थिर हो जाएगी। इसे क्वांटम ज़ेनो प्रभाव कहा जाता है, यह प्रयोगशाला में प्रदर्शित किया गया है।
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भले ही कोई रचनात्मकता की घटनाओं को ‘एक संयोग’ अथवा ‘एक सुखद संयोग’ के रूप में नकारता हो, वास्तविकता की समन्वित (ontic) समझ और भी समस्याग्रस्त हो जाती है जब कोई इस मिश्रण में एक और तत्त्व -सूचना- को लाता है, जैसा कि आधुनिक भौतिकी में अधिकाधिक स्तर पर किया जाता है। इसका कारण यह है कि सूचना मस्तिष्क के अस्तित्त्व को दर्शाता है, एक श्रेणी, जो भौतिकी के क्षेत्र से बाहर है।
सूचना या अनियततामान (entropy) को किसी भी न्यूनकारी कार्यक्रम द्वारा स्थानीय संचालन के न्यूनतम स्तर तक नहीं लाया जा सकता है। इसके लिए वैश्विक गुणों द्वारा प्रतिपादित संकेतों के उपयोग की और विकल्पों को बनाने की क्षमता की आवश्यकता होती है, जो बदले में माध्यम (agency) को दर्शाता है। अनियततामान (entropy) विकार (disorder) का एक माप है और कुछ निश्चित परिस्थितियों में तापमान से मापा जा सकता है। इस प्रकार से, कृष्णविवर (black hole) से सम्बन्धित (द्रव्यों की) अवस्थाओं का निर्धारण करने के बाद, स्टीफेन हॉकिंग तदनुसार तापमान और उससे उत्पन्न विकिरण के बारे में दावा करने में सक्षम थे। पर तापमान को, एन्ट्रापी या सूचना के जैसे, एक कण से नहीं जोड़ा जा सकता है।
संचार व्यवस्था में सूचना में दो वस्तुओंकोसम्मिलितकरती हैं: पहला, दो पक्षों के बीच संचार अथवा सम्वाद में भाषा की शब्दावली में समानताएं; और दूसरा, विकल्प चुनने की क्षमता। आम शब्दावली के लिए आवश्यक है कि पक्षों द्वारा उपयोग किए जाने वाले अंतर्निहित अमूर्त संकेतों को साझा किया जाए, जो संचार के सामाजिक पहलुओं पर बल देते हैं।
श्रोडिंगर, क्वांटम सिद्धांत के रचनाकारों (प्रतिपादकों) में से एक, (द्रव्यों अथवा अमूर्त वस्तुओं) अवस्थाओं की जिज्ञासु प्रकृति पर बल दिया। वह (इस बात पर) दृढ़ था कि “भौतिक शब्दावली में चेतना का कारण नहीं बताया जा सकता है। क्योंकि चेतना एक आधारभूत और मौलिक अवस्था है। इसकी व्याख्या किसी और शब्दावली के सापेक्ष नहीं की जा सकती है।”
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चेतना का अर्थ मात्र सूचनाओं की जागृति नहीं है, बल्कि यह भी है कि कोई व्यक्ति जागृत है। यदि जागृति किसी प्रकार का माप है तो इसका संदर्भ भी होना चाहिए। ऐसा होते ही दो समस्याएं आती हैं, पहली – जागृति के लिए संदर्भ क्या है, दूसरा – चेतना विविध संभावनाओं में से किस प्रकार चुनाव करती है।
जागृति में रेफरेंट की समस्या पुरानी है। यदि हम केवल एक ब्रह्मांड, पारलौकिक चेतना को मानते हैं तो व्यक्तिगत अनुभवजनित चेतना प्रक्षेप (प्रोजेक्शन) ही होगी और इसके लिए रेफरेंट भी सार्वभौमिक होना चाहिए। वेदांत में सूर्य के प्रतिबिंब की परछाई सैंकड़ों घटों में पड़ने वाली उपमा किसी के व्यक्तिगत अनुभवजन्य चेतना का उदाहरण है। यह प्लेटो के गुफा में छुपे किसी घृणित व्यक्ति के विचार के समान है, जिसकी परछाई दीवार पर है, पर वह नग्न आंखों से ओझल है।
पश्चिमी दर्शन में रेने देकार्त ने विचार दिया कि चेतना रेस कॉगिटेन्स (विचारों का स्रोत) नामक अभौतिक डॉमेन में स्थित होती है, जिसका संघर्ष भौतिक चीजों से चलता रहता है और इन भौतिक चीजों को रेस एक्सेंसा (विस्तार (एक्सटेंशन) का क्षेत्र) कहा जाता है। उनका मानना था कि ये दोनों क्षेत्र मस्तिष्क में आपस में टकराते हैं। यद्यपि इस विचार का आज कोई महत्व नहीं रह गया है। दूसरी ओर इमानुएल कांट वैदिक विचार से मिलता-जुलता विचार प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि अनुभवजनित चेतना का अवश्यसंभावी संबंध ट्रैंससेंडेंटल चेतना (वह चेतना जो सभी विशेष प्रकार के अनुभवों से पहले होती है) से है। रिडक्शनिस्ट मॉडल्स को महत्व देने वाले आधुनिक वैज्ञानिकों को सार्वभौमिक अथवा ट्रैंससेंडेंटल पॉजिशन स्वीकार्य नहीं है।
विलियम जेम्स दो प्रकार के व्यक्तित्वों (आत्म) की बात करते हैं, पहला प्रकार का – जानने वाला (मैं) और दूसरा जानकार (मुझे)। प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व / आत्म आंशिक रूप से व्यक्तिनिष्ठ (जानकार के रूप में) एवं आंशिक रूप से वस्तुनिष्ठ (जानकार के रूप में) होता है। वस्तुनिष्ठ व्यक्तित्व को तीन आयामों से स्पष्ट किया जा सकता है – भौतिक व्यक्तित्व, सामजिक व्यक्तित्व एवं आध्यात्मिक व्यक्तित्व। नैरेटिव सेल्फ-रेफरेंस “मैं” की तुरंत अनुभूति से उल्टा है क्योंकि “मैं” की अचानक हुई अनुभूति आत्म की अभिव्यक्ति का क्षणिक अनुभव माना गया है।
जेम्स का मानना था कि जानकार के रूप में व्यक्तित्व विभिन्न मानसिक स्थितियों से मिलकर बना है। विचार का कोई स्थाई तत्व नहीं है और प्रत्येक दृष्टिकोण सापेक्ष होता है एवं संदर्भों पर निर्भर करता है। मानसिक स्थिति भी कभी एक सी नहीं होती और वस्तु/पदार्थ भले ही सतत और असतत हो, पर विचार हमेशा बदलते ही रहते हैं। इन सबसे उत्पन्न होने वाली मानसिक स्थिति भी मस्तिष्क द्वारा उन विचारों पर की गई प्रतिक्रिया का परिणाम है। जेम्स का मानना था कि विचार सतत चलते रहते हैं और इस प्रकार चेतना की व्याख्या की जा सकती है।
यदि कोई चेतना के “मुझे” और “मैं” के बीच की सीमाओं का खोजने का प्रयास करता है तो निश्चित रूप से उसे आत्म/व्यक्तित्व के कुछ हल्का-फुल्का भान तो होगा ही। अंतर्दृष्टि (इंट्यूशन) का पता लगाना आसान है क्योंकि वहां कुछ सामान्य या प्राथमिक जैसा निश्चित रूप से होता है, जिसे वास्तविक आत्म/व्यक्तित्व समझ सकते हैं। यद्यपि इस प्रकार के विश्वास के कोई प्रमाण नहीं है। नियमतः चेतना के प्रवाह के पीछे कुछ स्थाई जरूर होना चाहिए।
चेतनापूर्व (प्री-कोशंस) अथवा चेतन जागृति के अनुभवों को व्यक्त करते हुए कोई भी चेतना के हाइरार्किकल मॉडल को अपनाते हुए स्वतंत्र एवं डिस्ट्रीब्यूटेड न्यूरल स्ट्रक्चर्स का प्रयोग कर सकता है। इसमें योगदान देने वाले कारकों का लेखा-जोखा जब किया जाएगा तो इसमें उतना ही अधिक समय लगेगा, जितना कम्यूनिकेशन गहन होगा और जितने जटिल संबंध कारकों के आपस में होंगे। दृष्टिकोण में पाए जाने वाले भ्रमों की व्याख्या भी विभिन्न स्तरों में व्यवधान और आपस में उलझी हुई सूचनाओं की सहायता से की जा सकती है।
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स्मृति एक तत्व है जो इसी चेतना की तदनुरूप प्रकृति की ओर जाता है। मस्तिष्क स्मृतियों के ढेर से किसी स्मृति का चुनाव करता है और यह चुनाव सचेत नहीं होता। किसी भी व्यक्ति का यह चुनाव उस व्यक्ति के मस्तिष्क में पहले से चल रही चेतन अवस्थाओं और उस व्यक्ति की मनोदशा / भावदशा का भी योगदान हो सकता है। यह माना जाना चाहिये कि कार्यकारी नियंत्रण प्रक्रियाएं चयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
बहुत सारी स्मृतियों को छोड़कर केवल कुछ विशेष स्मृतियों का बार-बार चुनाव करने पर स्मृति पुनरावर्तन प्रक्रिया प्रभावित हो सकती है, और इससे अवांछित स्मृतियाँ अचेतन में धकेल दी जाती हैं। इस प्रकार का तंत्र विकसित किया जा सकता है जिससे अवांछित स्मृतियाँ जागृति के क्षेत्र में प्रवेश न कर पाएं और नकार दी गईं इन स्मृतियों को रोकने के इस संज्ञानात्मक कार्य के कई स्थाई निष्कर्ष निकल सकते हैं।
मस्तिष्क की उपस्थिति जैसी स्थिति में कार्यकारी नियंत्रण सरलता से स्मृतियों के छाँटने का काम कर सकता है। इस मस्तिष्क की उपस्थिति की स्थिति को कुछ लोग मेटा-अवेयरनेस (आत्म की अनुभूति) के रूप में देखते हैं, जिससे व्यवहार का नियंत्रण (आत्म-नियंत्रण) किया जा सकता है और आत्म व अन्यों के बीच सकारात्मक संबंध स्थापित किए जा सकते हैं।
यद्यपि जागृति अपने आप में संपूर्ण है अथवा कुछ भी नहीं। चेतना की स्थिति इस पर निर्भर करती है कि जागृति किस सीमा तक प्रीकांशस और स्मृति तक पहुँच पा रही है। दृष्टिकोण को ज्ञानेन्द्रियों द्वारा अनुभव किए गए संवेगों से भिन्न करना भंग चेतन स्थिति की तरह है। किसी व्यक्ति की स्मृतियों विशेष से भिन्न किए गए चेतना स्तर इस ओर संकेत करता है कि यह स्थिति वास्तविकता का मूल हो सकती है और अस्तिकाय (ontological) वास्तविकता का एक महत्वपूर्ण अङ्ग हो सकता है।
भौतिकी, गणित और मस्तिष्क स्तरों के क्षेत्र में वास्तविकता के विभिन्न आयाम या तो विरोधाभासी आयाम हैं या गणनायोग्य (कंप्यूटेबल) नहीं है। अतः यह मानना कि तर्क एवं गणित पर आधारित मशीनें प्राकृतिक तंत्र की समता कर सकती हैं, त्रुटिपूर्ण है। होगा यह कि मशीनों द्वारा बताई गई वास्तविकता प्राकृतिक वास्तविकता से भिन्न होगी।
किंतु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि एआई मशीनें अधिकतर सेवाओं में मानव का स्थान नहीं ले पायेंगी। और यदि मशीनें चेतन नहीं भी होती हैं तो इस बात की अधिक संभावना है कि मानवों में उनसे इस प्रकार व्यवहार करने की प्रवृत्ति बढ़ती रहेगी मानों वे चैतन्य हों।
मूल आङ्ग्ल लेख Artificial Intelligence, Consciousness and the Self से अर्पिता शर्मा द्वारा अनूदित,
सम्पादन – ललित कुमार
चित्र आभार : https://pixabay.com/en/users/geralt-9301/
Suject ko object ki tarah samghne ka prayas hai shayd or jab bhi subject ko object banaya jayega vo samagh nahi ayega ek bulb jo electricity se chalta hai us electricity ko kewal jana ja sakta hai bulb ko khol kar uspe kai prayog karke use nahi jana ja sakta ha bulb ke jalne ki upma dekar thoda uska anubhav karaya ka sakta hai bulb swayam kabhi electricity nahi bana sakta use bahar se ayatit karni hi padegi. Vaise hi matter se chetan ko utpan nahi kiya ja sakta.