Babylonian and Indian Astronomy – Early Connections, सुभाष काक का 17 फरवरी 2003 को मूलत: अंग्रेजी में प्रकाशित लेख,
धारावाहिक अनुवाद – अर्पिता शर्मा
भाग – 1 से आगे :
माह
वर्ष को 12 माहों में विभक्त किया गया, जो नक्षत्रों के अनुसार एवं चंद्र की गतियों के आधार पर निर्धारित किए गए। तैत्तिरीय संहिता (4.4.11) में सौर माहों की सूची दी गई है —
मधु, माधव (वसंत Spring); शुक्र, शुचि (ग्रीष्म Summer); नभ, नभस्य (वर्षा Rains); इष, ऊर्ज (शरद Autumn); सह, सहस्य (हेमन्त Winter); एवं तप, तपस्य (शिशिर Deep Winter)।
ऋतुओं के अनुसार माहों के निर्धारण से तात्पर्य है कि क्रांतिवलय के विविध भाग इन 12 माहों से सम्बद्ध हैं। इन माहों को उनके आदित्य नामों (सारणी 2) से भी जाना जाता है। ग्रन्थानुसार इन नामों में अंतर पाया जाता है, अतः यहाँ प्रसंग एक से अधिक परम्पराओं का है। यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि भिन्न-भिन्न नामों की सूची का यह तात्पर्य नहीं है कि वे भिन्न-भिन्न काल में प्रयुक्त हुए।
सारणी 2 : बारह माहों के नाम उनके नक्षत्रों के साथ, जिनके आधार पर उनका नामकरण हुआ एवं अपने आदित्य नामों के साथ (विष्णु पुराण से) :
माह |
नक्षत्र | आदित्य |
चैत्र | चित्रा | विष्णु |
वैशाख | विशाखा | अर्यमन् |
ज्येष्ठ | ज्येष्ठा | विवस्वन्त |
आषाढ़ | आषाढ़ | अंशु |
श्रावण | श्रोण | पर्जन्य |
भाद्रपद | प्रोष्ठपद | वरुण |
अश्वियुज | अश्विनी | इन्द्र |
कार्तिक | कृत्तिका | धातृ |
मार्गशीर्ष | मृगशिरस् | मित्र |
पौष | तिष्य | पुषन् |
माघ | मघा | भग |
फाल्गुन | फाल्गुनी | त्वष्टा |
अब हम यह अनुसंधान करते हैं कि क्रान्तिवृत्त के खण्ड से सम्बन्धित राशियों के नाम वैदिक परम्परा में हैं या इन्हें कालान्तर में बाहर से उधार लिया गया। बेबीलॉन या यूनान से उधार मानने पर नक्षत्र तन्त्र के साथ निरन्तरता की अपेक्षा नहीं की जा सकती। वेदाङ्ग ज्योतिष, जहाँ नक्षत्र एवं देवताओं के नामों का प्रयोग परस्पर विनिमय के साथ हुआ है, से संकेत लेते हुए हम यह अनुसंधान करेंगे कि क्या राशियों के नाम खण्ड देवताओं से सम्बंधित हैं?
माह का प्रत्येक नक्षत्र नाम 30 अंश कोण को प्रदर्शित करता है, जो चंद्र नक्षत्र के 13⅓ अंश खण्ड से भिन्न है। अतः प्रत्येक माह का विस्तार संगत अधिष्ठाता देवताओं के साथ तीन नक्षत्रों तक हो सकता है। यह चित्र 1 या नीचे दी गई सूची से देखा जा सकता है। चित्र 1 में ली गई व्यवस्था सबसे सम्भावित व्यवस्था हो सकती है जिसमें कि वैशाख मास का आरम्भ तब होता है जब सूर्य अश्विनी नक्षत्र के अंतिम भाग में एवं चंद्र स्वाती के मध्य भाग में होते हैं क्यों कि इससे दोनों आषाढ़ (पूर्व एवं उत्तर) एवं दोनों फाल्गुनी नक्षत्र अपने अपने संगत महीनों में व्यवस्थित हो जाते हैं तथा दोनों प्रोष्ठपद नक्षत्र तीन चौथाई परास तक की एवं श्रोण नक्षत्र आधी परास तक की परिशुद्धता प्राप्त कर लेते हैं।
इस प्रकार चंद्र माह की पूर्णिमा संगत नक्षत्र में पड़ेगा। चूँकि सौर एवं चंद्र मास एककालक नहीं हैं, अधिक मास लगा कर सुधार किये जाने तक यह व्यवस्था दो नक्षत्रमान तक च्युत हो चुकी होगी। अधिकतम विचलन की स्थिति में हमे राशियों का ऐसा क्रम मिलता है, जो एक चरण तक च्युत है।
वैशाख = स्वाति से अनुराधा = वायु, इन्द्राग्नि, मित्र = वृष Bull, इन्द्र के लिए वृष, उदाहरणार्थ ऋग्वेद 8.33, साथ ही वायु की संगति भी यदा कदा इन्द्र से भी की जाती है एवं दोनों को एक साथ इन्द्रवायू पुकारा जाता है और वायु गाय से सम्बद्ध है। (ऋग्वेद, 1.134)
ज्येष्ठ = अनुराधा से मूल = मित्र, वरुण, पितर: = मिथुन Gemini, मित्र एवं वरुण के ब्रह्माण्डीय संयोग से।
आषाढ़ = पूर्व आषाढ़ से श्रोण = आप:, विश्वे देव:, विष्णु = कर्क, वृत्त Cancer, विष्णु के चक्र का चिह्न, (उदा. ऋग्वेद 1.155.6)।
श्रावण = श्रोण से शतभिषज = विष्णु, वसव:, इन्द्र = सिंह Lion, जैसा कि इन्द्र को ऋग्वेद 4.16.14 में कहा गया है।
भाद्रपद = शतभिषज से उत्तर प्रोष्ठपद = इन्द्र, अज एकपाद, अहिर्बुध्न्य = कन्या Virgin, राशिचक्र में स्थिति के विपरीत दिशा में स्थित अर्यमन् से, जो कुमारियोंं को रिझाने वाला है, कन्या (ऋग्वेद, 5.3.2)
अश्विन =उत्तर प्रोष्ठपद से अश्वयुज = अहिर्बुध्न्य, पूषन्, अश्वयुजौ = तुला Libra, अश्विनों से जो युगलोंं के संतुलन के द्योतक हैं (ऋग्वेद, 2.39, 5.78, 8.35)
सूची प्रथम – क्रांतिवलय के 27 स्तरीय एवं 12 स्तरीय विभाजन। प्रथम राशि वृष है जो कि मास वैशाख से अनुकूल है।
कृत्तिका = अपभरणी से रोहिणी = यम, अग्नि, प्रजापति = अलि (वृश्चिक) Scorpion, कृत्तिका से काटना।
मृगशिरा = रोहिणी से आर्द्रा = प्रजापति, सोम, रुद्र = धनुष् Archer, ब्रह्माण्डीय धनुर्धर रुद्र से (ऋग्वेद, 2.33, 5.42, 10.125)
पौष = आर्द्रा से पुष्य = रुद्र, अदिति, बृहस्पति = मकर Goat, प्रजापति पर बकरे का सिर रखते रुद्र, एवं बृहस्पति के पुरोहित्व में किये जा रहे कर्मकाण्ड में बकरा मुख्य बलिपशु।
माघ = पुष्य से मघा = बृहस्पति, सर्प:, पितर: = कुम्भ Water-bearer, पितरों को जल-कुम्भ अर्पण (की सामग्री) से।
फाल्गुन = फाल्गुनी (दोनों) से हस्त = अर्यमन्, भग, सवितृ = मीन Fish, भग प्रतिनिधि (ऋग्वेद 10.68 में उल्लिखित)।
चैत्र = हस्त से स्वाती = सवितृ, इन्द्र, वायु = मेष Ram, इन्द्र से (देखें, ऋग्वेद 1.51)।
हम देखते हैं कि अधिकांश सौर राशि चक्र खण्डनामों हेतु देवताओं के नामों से व्युत्पत्तियाँ निस्सृत हो रही हैं। प्रतीकों का चुनाव अन्य कारक से भी सञ्चालित हुआ। ब्राह्मण ग्रंथ वर्ष को यज्ञ को पुकारते हैं एवं उनका संबंध विविध पशुओं से जोड़ते हैं। 22 लघु अनुक्रम में ये पशु अज, मेष, वृषभ, अश्व एवं मनुष्य हैं। वैशाख से आरम्भ अनुक्रम में नवें स्थान पर स्थित अज-दैत्य (goat-dragon) से प्रारम्भ करने पर हम बारहवें स्थान पर मेष, पहले स्थान पर वृष, तीसरे स्थान पर सूर्यगोलक के रूप में अश्व ( भारत में सूर्य नाम का एक पर्याय) एवं आठवें स्थान पर धनुर्धर के रूप में मनुष्य को पाते हैं।
अन्तर्निवेश (अधिमास)
महीनों में अंतर्निवेश (अधिमास या अधिकमास) का प्रयोग पाँच वर्ष की अवधि में सौर एवं चंद्र वर्षों की एककालिकता सुनिश्चित करने के लिए किया जाता था। अधिकमास की परंपरा ऋग्वेद जितनी पुरानी है :
वेद मासो धृतव्रतो द्वादश प्रजावतः । वेदा य उपजायते ॥ (ऋग्वेद 1.25.8)
धृतव्रत (वरुण) को बारह उत्पादक मासों का ज्ञान है। उसे तेरहवें अतिरिक्त मास का भी ज्ञान है।
अथर्ववेद (13.3.8) में कहा गया है :
अहोरात्रैर्विमितं त्रिंशदङ्गं त्रयोदशं मासं यो निर्मिमीते।
वह जो तीस दिवसों वाले तेरहवें मास की रचना करता है।
तैत्तिरीय संहिता 1.4.14 में दो अधिमासों संसर्प एवं अंहस्पति का नाम दिया गया है।
संहिता साहित्य में इसी प्रकार के अनेक अन्य प्रसंग भी हैं, जिनमें इस प्रकार के अधिमास योजनाओं का संदर्भ है, जिनका प्रयोग सौर वर्ष एवं चंद्र वर्ष के बीच आये व्यतिक्रम के समाधान के लिए होता था।
युग की संकल्पना
ऋग्वेद युग के बारे में जो संदर्भ प्रस्तुत करता है, वह ऐसा लगता है कि कोई पाँच वर्ष की अवधि होगी :
दीर्घतमा मामतेयो जुजुर्वान्दशमे युगे । अपामर्थं यतीनां ब्रह्मा भवति सारथिः ॥ (ऋग्वेद, 1.158.6)
इन पाँच वर्षों में से दो के नाम संवत्सर और परिवत्सर को ऋग्वेद में देखा भी जा सकता है :
ब्राह्मणासो अतिरात्रे न सोमे सरो न पूर्णमभितो वदन्तः।
संवत्सरस्य तदहः परि ष्ठ यन्मण्डूकाः प्रावृषीणं बभूव॥
ब्राह्मणासः सोमिनो वाचमक्रत ब्रह्म कृण्वन्तः परिवत्सरीणम्।
अध्वर्यवो घर्मिणः सिष्विदाना आविर्भवन्ति गुह्या न के चित्॥ (ऋग्वेद 7.103.7-8)
वाजसनेयी संहिता (27.45 एवं 30.16) एवं तैत्तिरीय संहिता (5.5.7.1-3) में समस्त पाँचों वर्षों (वत्सरों) के नाम मिलते हैं। ये नाम इस प्रकार हैं – संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इदुवत्सर एवं वत्सर।
पाँच का क्रम वैदिक कल्पनाशीलता का मूल है। अतः वेदिका के पाँच स्तर हैं, मनुष्य के भीतर पाँच प्रकार के श्वास हैं, पाँच ऋतुयें हैं एवं पाँच प्रकार के यज्ञ हैं। अतः पाँच वर्ष के युग की कल्पना आधारभूत अवधि के रूप में करना स्वाभाविक ही था क्योंकि अपेक्षाकृत विशाल युगमान पहले से ही ज्ञात थे।
पाँच वर्ष की अवधि वाले युग का प्रयोग सौर एवं चंद्र वर्षों के आधारभूत समकालन (सिंक्रोनाइजेशन) करने के लिए स्वाभाविक है। अधिक सूक्ष्म नियमनिष्ठ समकालन के लिए लंबी अवधि के युगों की आवश्यकता पड़ती है।
360 अंश का चक्र
ऋग्वेद (1.164.11) में संदर्भ आता है कि 12 आरियों वाले समयचक्र के 720 युग्म पुत्र हैं। ये 720 युग्म एक सावन वर्ष के 720 दिवस एवं रात हैं :
द्वादशारं नहि तज्जराय वर्वर्ति चक्रं परि द्यामृतस्य ।
आ पुत्रा अग्ने मिथुनासो अत्र सप्त शतानि विंशतिश्च तस्थुः ॥
ऋग्वेद 1.164.48 में हमें स्पष्टतः समय के चक्र के 360 भागों के बारे में बताया गया है :
द्वादश प्रधयश्चक्रमेकं त्रीणि नभ्यानि क उ तच्चिकेत ।
तस्मिन्त्साकं त्रिशता न शङ्कवोऽर्पिताः षष्टिर्न चलाचलासः ॥
बारह अरे, एक चक्र, तीन नाभियाँ इनको कौन बूझ सकता है? इसमें 360 अरे खूँटियों की भाँति लगे हैं जो ढीले नहीं पड़ते।
इसका अर्थ यह है कि क्रांतिवलय, जो कि समय का चक्र है, 360 भागों में विभाजित है। प्रत्येक भाग वही है, जिसे हम अंश के नाम से जानते हैं। तीन नाभियाँ उस चक्र का तीन प्रकार से विभाजन प्रतीत होती हैं : सौर एवं चान्द्र एवं दिवस।
चक्र के चार चतुर्थांशों, जिनमें प्रत्येक 90 अंश का है, में विभाजन का भी एक ऋचा में वर्णन किया गया है :
चतुर्भिः साकं नवतिं च नामभिश्चक्रं न वृत्तं व्यतीँरवीविपत् । (ऋग्वेद, 1.155.6)
एक गोल चक्र के समान उसने अपने 90 द्रुतगामी घोड़ों को उन चार के साथ तीव्र गति में नाध दिया है। समय के चक्र का 360 भागों में विभाजन अन्यत्र भी प्राप्त होता है। शतपथ ब्राह्मण 10.5.4.4 में यह कहा गया है कि 360 क्षेत्रों ने सूर्य को चारों ओर से घेर रखा है :
आकाश में आधे अंश के विभाजन का अभिज्ञान बहुत सरल है। सूर्य एवं चंद्रमा का दीप्तिमान आकार उनके कोणीय आकार से थोड़ा अधिक होता है, जो कि 60/133 अंश है।23
ध्यान दीजिए, वेदांग ज्योतिष में दिवस को 60 नाड़ियों में बांटा गया है – जिस प्रकार दिवस वर्ष के लिए, उसी प्रकार अंश चक्र के लिए। तात्पर्य यह कि अंश को आगे भी 60 भागों में बाँटा गया है।
क्रांतिवलय के विविध विभाजन
कहा जा सकता है कि 27 नक्षत्रों की वास्तविक सूची में केवल 24 नाम ही विशिष्ट नाम हैं, जो कि वर्ष में अर्द्धमासों की संख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं। कालान्तर में चंद्र युति को सम्मिलित करने के लिए, चंद्र गतियों को वर्णित करने के लिए संख्या का विस्तार किया गया गया।
ऋग्वेद (2.27) में छह आदित्यों को सूचीबद्ध किया गया है, जो छह ऋतुओं को दर्शाने वाले अंश प्रतीत होते हैं। जो नाम दिए गए हैं, वे हैं – मित्र, अर्यमन्, भग, वरुण, दक्ष एवं अंश।
इस विचार का समर्थन इस तथ्य से होता है कि क्रांतिवलय को सारणी 3 में 12 आदित्यों के रूप में वर्णित किया गया है। शतपथ ब्राह्मण (6.1.2.8) में प्रजापति के बारे में कहा गया है कि उसने बारह सूर्यों का निर्माण किया एवं उनको आकाश में स्थापित कर दिया – स म॑नसैव॑ वा॑चम्मिथुनं स॑मभवत्स द्वा॑दश द्रप्सा॑न्गर्भ्य॑भवत्ते द्वा॑दशादित्या॑असृज्यन्त ता॑न्दिव्यु॑पादधात्।
शतपथ ब्राह्मण (11.6.3.8) में ही यह कहा गया है कि आदित्य बारह मास हैं – कतम॑आदित्या इ॑ति द्वा॑दश मा॑साः संवत्सर॑स्यैत॑आदित्या॑एते ही॒दं स॑र्वमाद॑दाना य॑न्ति ते य॑दिदं स॑र्वमाद॑दाना य॑न्ति त॑स्मादादित्या इ॑ति। इससे स्पष्टतः तात्पर्य सूर्य की परिक्रमा का बारह भागों में विभाजन है।
क्रांतिवलय के 27 स्तरीय विभाजन एवं 12 स्तरीय विभाजन में परस्पर संगति सूची-1 में दृष्टव्य है।
क्रांतिवलय का अन्य विभाजन, प्रत्येक राशि के उप विभाजन 2, 3, 4, 7, 9, 10, 12, 16, 20, 24, 27, 30, 40, 45, 45, एवं 60 भागों में देखा जा सकता है।
नक्षत्र एवं कालक्रम
वसन्तविषुव पर कृत्तिका से आरम्भ होने वाली यह सूची संकेत करती है कि इसे तीसरी सहस्राब्दी ईसापूर्व में बनाया गया था। प्रजापति के शिरच्छेदन के आख्यान से उस समय का संकेत मिलता है, जब वर्ष का प्रारंभ मृगशिरा से होता था, जो पाँचवीं सहस्राब्दी ईसापूर्व है (सारणी 1)। विद्वानों का तर्क है कि एक अनुवर्ती सूची रोहिणी से प्रारंभ होती थी। इस तर्क का समर्थन इस तथ्य से होता है कि रोहिणियाँ दो हैं, जो 14 नक्षत्रों द्वारा विलग की गई हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि यह दो की संख्या दो अर्द्धवर्षों के प्रारंभ का संकेत करती है।
नक्षत्र सूची के आरम्भ नक्षत्र में परिवर्तन संबंधी कालक्रमबद्ध निहितार्थों के अतिरिक्त अन्य संदर्भ भी हैं, जो विविध कालखण्डों के अभिज्ञान को निरंतर, वर्तमान समय तक सुनिश्चित करते हैं।
पूर्णिमा के दिन चंद्रोदय सूर्यास्त के साथ होता है। उससे आगे प्रत्येक रात्रि को वह प्राय: 50 मिनट विलम्ब से उगता है एवं मास के अंत काल में शिवरात्रि के दिन, जो कि अमावस्या से दो दिन पहले होती है, चंद्र सूर्योदय के एक घंटे पहले उदित होता है। नवचंद्र पहले क्षितिज पर उदित होता है, जिसके पश्चात सूर्योदय होता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे शिव ने अपने मस्तक पर चंद्र धारण कर रखा है। शुक्ल द्वितीय पर चंद्र के पुनः आविर्भाव से पहले मास का यह अंतिम उदय होता है। सम्भवत: इन दो दिनों का प्रयोग अमावस्या के निर्धारण के लिए किया गया होगा।
शीत अयनान्त काल में महाशिवरात्रि सर्वाधिक लंबी रात्रि है। वर्तमान में यह फरवरी 26 ± 15 दिवस (यह अनिश्चितता अधिमास की गणना विधि के कारण उत्पन्न होती है।) के निकट पड़ती है और जब इसका प्रचलन हुआ, (आज प्रचलित किसी कैलेंडर के समान ही मानते हुए) युगारंभ दिसम्बर 22 ± 15 दिवस रहा होगा। 66 दिनों का अंतर इस पर्व के प्रचलन हेतु 2600 वर्ष ईसापूर्व ± 100 वर्ष के कालखण्ड को इङ्गित करता है। 24
कौषितकी ब्राह्मण (स वै माघस्य अमावास्यायाम् उपवसत्य् उदन्न् आवर्त्स्यन् – 19.3) माघ की अमावस्या के समय शीत अयनान्त का उल्लेख करता है। इससे 1800-900 ईसा पूर्व की समय सीमा का संकेत मिलता है, जो सम्भवत: उस समय मघा नक्षत्र के यथार्थ अभिज्ञान की संदिग्धता के कारण था।
शतपथ ब्राह्मण (एता॑ह वै प्रा॑च्यै दिशो न॑च्यवन्ते स॑र्वाणि ह वा॑अन्या॑नि न॑क्षत्राणि प्रा॑च्यै दिश॑श्च्यवन्ते तत्प्रा॑च्यामेवा॒स्यैत॑द्दिश्याहितौ भवतस्त॑स्मात्कॄत्तिकास्वा॑दधीत – 2.1.2.3) में एक कथन एक पूर्व युगारंभ की ओर संकेत करता है, जहाँ यह कहा गया है कि कृत्तिका कभी भी पूर्व से नहीं विचलित होती है। इसका संबंध 2950 ईसापूर्व से है। मैत्रायणीय ब्राह्मण उपनिषद (द्वादशात्मकं वत्सरमेतस्याग्नेयमर्द्धमर्द्धं वारुणं मघाद्यं श्रविष्ठार्द्धमाग्नेयं क्रमेणोत्क्रमेण सार्पाद्यं श्रविष्ठार्द्धान्तं सौम्यं … 6.14) शीत अयनांत को श्रविष्ठा खण्ड के मध्य में होने का संदर्भ प्रस्तुत करता है और मघा के प्रारंभ में ग्रीष्म अयनान्त का। इससे 1660 ईसा पूर्व का संकेत मिलता है।
वेदाङ्ग ज्योतिष (यजुर्वेद 5-8) में संदर्भ आता है कि शीत संक्रांति श्रविष्ठा के प्रारंभ में थी, और ग्रीष्म संक्रांति अश्लेषा के मध्य में पड़ता था।
इसका सम्बंध लगभग 1350 ईसापूर्व, यदि इस नक्षत्र का बीटा डेल्फिनीस के रूप में अभिज्ञान लें, से लेकर 1800 ईसापूर्व (यदि हम गामा कैप्रिकोर्नस के रूप में अभिज्ञान लें तो) तक रहता है, जो कि अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है।
तैत्तिरीय संहिता 7.4.8 में यह कहा गया है कि वर्ष का आरम्भ फाल्गुन की पूर्णिमा से होता है।
वेदाङ्ग ज्योतिष में यह मघा की पूर्णिमा से शुरू होता है, जिससे आगे के लिए तर्कसंगत प्रमाण मिलने लगते हैं।
शतपथ ब्राह्मण में उल्लिखित सात ऋषियों (सप्तर्षि मण्डल के तारे) एवं कृत्तिकाओंं (सात तारे) के विवाह की कथा का पुराणों में विस्तार से वर्णन मिलता है, जहाँ यह कहा गया है कि ऋषि प्रत्येक नक्षत्र में सौ वर्षों तक रहते हैं।
दूसरे शब्दों में कहें तो भारत के प्रारम्भिक वर्षों में शतवर्षीय पञ्चाङ्ग का अस्तित्व था, जिसका 2700 वर्षों का चक्र होता था। इसे सप्तर्षि पञ्चाङ्ग कहा जाता था। भारत के अनेक भागों में यह आज भी प्रचलित है। इसका वर्तमान प्रारम्भ 3076 ईसापूर्व माना गया है, किन्तु ग्रीक इतिहासकार प्लिनी एवं एरियन के अनुसार मौर्य काल में यह पञ्चाङ्ग 6676 ईसापूर्व से प्रारंभ होता था।
बेबीलॉन ज्योतिष
बेबीलॉन ज्योतिष के विषय में हमें तीन प्रकार के ग्रंथों से ज्ञान मिलता है। प्रथम श्रेणी में हैं :
(1) En¯uma Anu Enlil एनूमा अनु एनलिल (जब अनु एवं एनलिल देवता …) की शैली वाले ज्योतिषीय शकुन जो 70 टेबलेटों की शृंखला में हैं तथा जो द्वितीय सहस्राब्दी ईसापूर्व तक जाते हैं।
(2). अपेक्षतया नवीन दो मूल अपिन टेबलेट, जो कि अधिक ज्योतिषीय हैं; (3) 700 ईसापूर्व से प्राप्त शकुन चिह्नों पर राजकीय प्रपत्र।
द्वितीय श्रेणी में 750 ईसापूर्व से 75 ईस्वी काल में किए गए उन्नत पर्यवेक्षणों वाली ज्योतिषीय दैनिन्दिनियाँ हैं। तीसरी श्रेणी में बेबीलॉन एवं उरूक के लेखागार से प्राप्त सामग्री है, जो अंतिम चार से पाँच शताब्दी ईसापूर्व के काल की है एवं गणितीय ज्योतिष से संबंधित हैं।
नवीनतम ग्रंथों में क्रांतिवलय को 12 राशि चिह्नों में बाँटा गया है, जिनमें प्रत्येक की परास ठीक 30 अंश है। आबोए का मानना है कि नक्षत्रमण्डलों का 30 अंश परास के खण्डों से प्रतिस्थापन पाँचवीं शताब्दी ईसापूर्व में घटित हुआ।
संदर्भ :