Bauhinia vahlii Maluva चाम्बुली ~ मेरी प्रेमिका मुझसे मालुवा लता की भाँति लिपटी है। (बौद्ध जातक से)
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कदास्सु मं कञ्चनजालुरच्छदा, धीता तिरीटिस्स विलग्गमज्झा।
मुदूहि बाहाहि पलिस्सजिस्सति, ब्रहावने जातदुमंव मालुवा॥
(खुद्दक निकाय, जातकपाळि २.६६)
भारतीय वाङ्मय में अपने परिवेश, जन, अरण्य, पशु-पक्षियों व वनस्पतियों के प्रति अनुराग और जुड़ाव बहुत ही सहज रूप में दिखता है। अब उपेक्षा और अज्ञान इतने बढ़ चुके हैं कि आज के भारतीय जन को देख कर तो लगता ही नहीं कि यह वही धरा है, उसी के लोग हैं! कवियों व मनीषियों ने अपनी वाणी में उपमाओं, अन्योक्तियों व रूपकों में इनके बहुत उपयोग किये हैं। बहुधा उनके नाम लेते ही उनका कोई न कोई ऐसा प्रिय अवश्य ध्यान में आ जाता है, यथा कालिदास के साथ रसाल आम या चूत (Mangifera indica)।
बुद्ध ने अपनी वाणी में मालुवा लता (Bauhinia vahlii) का अनेक बार प्रयोग किया है जो उनके भ्रमण क्षेत्र का परोक्ष साक्ष्य भी है। मालुवा लता भारतीय वनों की एक बड़ी लता है जिसके पत्ते ऊँट के पदचिह्नों की भाँति होते हैं जिससे इसे अंग्रेजी में camel’s foot creeper नाम दिया गया। इसे मालू और चाम्बुली नामों से भी जाना जाता है। इसके पत्तों से दोने बनाये जाते हैं। वनवासी क्षेत्रों में इसके दोनों में फल आदि बिकते दिख जाते हैं।
बुद्ध-वाणी में इसका प्रयोग इसके एक विशेष गुण के कारण हुआ है। भारतीय वनों की यह सबसे बड़ी लता शाल/साल (साखू, Shorea robusta) जैसे वृक्षों पर चढ़ती है तथा उन्हें अपने प्रगाढ़ आलिङ्गन में लेती हुई अन्तत: मार ही देती है। मार का अस्त्र कहे गये विकारों काम, क्रोध, मद, लोभ, मोहादि की उपमा बुद्ध ने मालुवा लता से दी तथा उनसे ग्रस्त या उनमें लिप्त जन को उस साल से जो कि अंतत: उनके कारण नष्ट हो जाता है।
अवसेसदियड्ढगाथाय पन अयं सब्बसङ्गाहिका अत्थवण्णना – एवं अत्तसम्भूता च एते पुथू विसत्ता कामेसु। रागोपि हि पञ्चकामगुणिकादिवसेन, दोसोपि आघातवत्थादिवसेन, अरतिआदयोपि तस्स तस्सेव भेदस्स वसेनाति सब्बथा सब्बेपिमे किलेसा पुथू अनेकप्पकारा हुत्वा वत्थुद्वारारम्मणादिवसेन तेसु तेसु वत्थुकामेसु तथा तथा विसत्ता लग्गा लग्गिता संसिब्बित्वा ठिता। किमिव? मालुवाव वितता वने, यथा वने वितता मालुवा तेसु तेसु रुक्खस्स साखपसाखादिभेदेसु विसत्ता होति लग्गा लग्गिता संसिब्बित्वा ठिता, एवं पुथुप्पभेदेसु वत्थुकामेसु विसत्तं किलेसगणं ये नं पजानन्ति यतोनिदानं, ते नं विनोदेन्ति सुणोहि यक्ख।
(सुत्तनिपात अट्ठकथा, २७६)
यस्स अच्चन्तदुस्सील्यं, मालुवा सालमिवोत्थतं।
करोति सो तथत्तानं, यथा नं इच्छती दिसो’’ति॥ (धम्मपद, १६२)
मालुवा लता से वेष्टित साखू के वृक्ष की भाँति जिसका दुराचार पसरा हुआ है; वह अपने को वैसा ही कर लेता है जैसा उसके शत्रु चाहते हैं।
मनुजस्स पमत्तचारिनो, तण्हा वड्ढति मालुवा विय।
सो प्लवती हुरा हुरं, फलमिच्छंव वनस्मि वानरो॥ (धम्मपद, ३३४)
प्रमत्त होकर आचरण करने वाले मनुष्य की तृष्णा मालुवा लता की भाँति बढ़ती है। वन में फल की इच्छा करते वानर की भाँति वह जन्म-जन्मांतर में भटकता रहता है।