घर आँगन वन उपवन उपवन
करती ज्योति अमृत से सिञ्चन
मङल घट ढलके
…
आधा है चंद्रमा रात आधी
रह न जाये तेरी मेरी बात आधी
पिया आधी है प्यार की भाषा
आधी रहने दो मन की अभिलाषा
आज अरबी सनी उर्दू का गढ़ बन चुके बॉलिवुड में कभी ऐसे गीत भी लिखे जाते थे। व्यावसायिक लाभ सुनिश्चित करने के साथ साथ सांस्कृतिक आक्रमण को मनोरञ्जन की जवनिका में छिपा कर प्रस्तुत करने का अनैतिक कर्म कथित हिंदी सिनेमा में बहुत पहले से आरम्भ हो गया था। भरत व्यास, नरेंद्र शर्मा जैसे गीतकार सुनियोजित ढङ्ग से बाहर किये गये तथा कुछ बचे खुचों ने समझौता कर लिया। गीतों से ले कर संवाद तक हिंदी व हिंदी संस्कृति की दुर्गति करने का जो अभियान चला, वह और उसकी सफलता ऐतिहासिक हैं।
दो दशकों में ही हिंदी सिनेमा उर्दू सिनेमा बन गया जिस पर कथित हिंदुस्तानी होने का आवरण डाल दिया गया। इतनी बड़ी बोलने वाली जनसंख्या होने पर भी आज हिंदी का अपना कोई सिनेमा तक नहीं, संस्कृत व देसी शब्दावली से युक्त भाषा लोग बोल ही नहीं सकते,जो बोले वह हास्य का पात्र होता है। शायरी के दलदल में पड़ा हिंदी भारत छल व आक्रमण को न समझते हुये हिंदुस्तानी, हिंदी उर्दू बहनें, भाषा बहता नीर जैसी बातें करता है।
यह पतन एक ऐतिहासिक त्रासदी है। दूषित शिक्षापद्धति के जाये विद्वानों ने यदि इस त्रासदी पर अत्यल्प या नहीं ही लिखा तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये। बाल्यावस्था में विद्यालयों में जो सीख मिलती है, घर पर यदि बहुत ही प्रबल संस्कार नहीं रहे तो आजीवन अमिट रहती है। अवचेतन के बीज सम्पूर्ण वयस्क जीवन में समय समय पर प्रस्फुटिक हो व्यक्ति को ऐसे भँवर जाल में डालते रहते हैं कि वह समझे तब भी उनसे बाहर नहीं आ पाता।
भाषा व काव्यविधान अपने साथ जननी संस्कृति के रूप, अभिव्यक्ति एवं सोच विधान भी लिये चलते हैं। यहाँ उद्धृत पहले गीत अंश पर यदि आप मनन करेंगे तथा यदि अध्ययन है तो आप वाल्मीकि से ले कर कालिदास की झङ्कृति पायेंगे। अरबी उर्दू काव्य में आप को वर्षा के विविध व गहन रूपों का दर्शन हो ही नहीं सकता क्योंकि वहाँ होती ही कितनी है? ऋतु, परिवेश, भूगोल, जलवायु से प्रभावित होने वाले मानवीय मनोभावों के अभिव्यक्ति वहाँ की अपनी भाषा में ही हो सकती है। उर्दू में आप को जाम, साकी, कब्र पर चिराग, जिगर का जलना, खजूर आदि ही मिलेंगे, पावस ऋतु थी पर्वत प्रदेश, पल पल परिवर्तित प्रकृति वेश तो मिलने से रहा!
उच्च शैक्षिक स्तर पर कम्युनिस्ट सोच ने अपने मठ बना लिये। जो कला व नाट्य संस्थायें बॉलिवुड को अभिनेता उपलब्ध करवाती थीं, उनमें भी वही संस्कृति प्रबल हुई और देखते ही देखते प्रगतिशील क्रांतिकारिता के खोखे में लिपटी जिहादी मानसिकता का साहित्य युवाओं का कण्ठ व हृदयहार हो गया। यह सब सहसा या यादृच्छ नहीं हो गया, इसके लिये उन लोगों ने बहुत तप किये। तप तो किसी के भी फलते हैं और तपच्युत देवता भी दीन हो जाते हैं। परिणाम यह हुआ कि विद्यार्थी युवाओं से ले कर परिवारों तक एक विचित्र सी परजीवी पराई चेतना ने घर कर लिया जिसके आत्मघाती प्रभाव में अपना मूल ही दोषी, लिजलिजा व निकृष्ट लगने लगा। हिंदी मानस स्वयं के प्रति ही हिंसक हो गया। वह आत्मद्वेष व जुगुप्सा में धसता चला गया।
मूलोच्छेद पूर्ण हुआ तो प्रत्यारोपण का समय आया। पुन: प्रगतिशीलता की आड़ में शत्रुबोध से पूर्णत: रिक्त हो चुके मानस में सभ्यता व संस्कृति की शत्रु अभिव्यक्तियाँ आरोपित कर दी गईं। भारतीय कवि व साहित्य पुरातनपंथी व सौंदर्य एवं आधुनिक चेतना से विलग लगने लगे तथा घातक अभारतीय सोच की कविता एवं साहित्य प्रगतिशील। आत्मघृणा के उर्वरक वाले मानस में जो कुछ बोया गया, उसकी सस्य आज दिख रही है। पाकिस्तान जैसे देश में फैज़ द्वारा रची नज्म जोकि सत्ता से संघर्ष के समय कठमुल्लों को ‘नरम’ व विद्रोह को भड़काये रखने के लिये रची गयी थी, भारतवर्ष में जिहादियों के समर्थन में उतरे विद्यार्थियों की इतने वर्षों पश्चात ‘एंथेम’ बन जाती है, उन्हें ‘कूल’ लगती है!
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से, सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम, मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे, सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का, जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
विचलित व भ्रष्ट प्रज्ञा व प्राथमिकताओं का ऐसा उदाहरण स्यात ही मिले। अब तो प्रौद्योगिकी संस्थान भी इन सबसे दूषित हो चुके हैं। मूर्खता के चरम का स्पर्श कर चुके आत्मघृणा में सने विद्यार्थी उसके जिहादी एवं विनाशक शब्दावली में कुछ भी अवांछित नहीं पाते, उसका औचित्य सिद्ध करने के प्रयास करते हैं तथा उसके प्रभाव में ऊपर दर्शाये गये पोस्टर बना कर सार्वजनिक प्रदर्शन करते हैं। यह पोस्टर सौ करोड़ हिंदुओं के मुख पर थूकना ही है, उन हिंदुओं पर जिन्होंने पारसियों से ले कर मुसलमानों तक को शताब्दियों से शरण दिया, फलने फूलने दिया। फोबिया की बातें करते फेचकुर फेंकने वालों को इसमें कोई फोबिया नहीं दिखी तो आश्चर्य नहीं। सब कुछ उनकी संतानों द्वारा अपने ही विनाश के उपादान रचने जैसा ही है। आश्चर्य न करें कि उक्त प्रदर्श एक प्रतिष्ठित कला संस्थान की उपज है, अति निंदनीय है! जानें कि भ्रष्ट और विकृत मेधा अपनी रचनात्मकता का कैसा घातक प्रयोग कर सकती है।
सांस्कृतिक व मानवीय दृष्टि से भी ऐतिहासिक (CAA नागरिकता संशोधन अधिनियम) विधिक प्रावधान को मुस्लिम विरोधी बना कर प्रस्तुत किया गया। उसकी आड़ में ‘direct action’ और जिहाद का पूर्वाभ्यास किया गया। करोड़ो की सम्पत्ति स्वाहा कर दी गयी। हिंसा इतनी प्रबल रही कि आरक्षियों को भी अपने प्राण बचाने हेतु अनेक स्थानों से पलायन करना पड़ा। कृतघ्नता का नंगा नाच पूरे भारत में हुआ, और नज्म, शायरी व जाली क्रांतिकारिता से प्रदूषित विद्यार्थियों का बहुत बड़ा समूह इतना मतिभ्रष्ट रहा कि उनके समर्थन में स्वयं भी आग लगाता रहा, वाचा विरोध तो दूर, मिनी जिहाद के समर्थन में नारे गढ़ता रहा, कुतर्क करता रहा! सांस्कृतिक आक्रमण व प्रत्यारोपण कितना घातक हो सकता है, यह प्रकरण आँखें खोलने हेतु पर्याप्त होना चाहिये। आसन्न सङ्कट का केंद्र बाहरी और एकल नहीं रहा, अब घर घर में, हर परिवार में विनाश के लघु केंद्र हैं और बहुसंख्यक को भान ही नहीं।
नेतृत्व सहित सामान्य जन को आत्ममंथन कर सुधरना होगा। सधैर्य इस पर सचेत समय देना होगा। संघर्ष में शस्त्रास्त्र स्वयं नहीं लड़ते, योद्धा उन्हें बल, वीर्य, समर्पण व अपनत्व के साथ चलाते हैं। क्या हमारे पास योद्धा हैं? नहीं हैं क्योंकि हमारा सम्पूर्ण शिक्षा तन्त्र आत्मविनाशक सैनिक गढ़ता है। स्वतंत्रता के नाम पर अनुशासनहीनता. मुफ्तखोरी व अराजकता को प्रश्रय देता है। बिना अनुशासन के एवं बिना नियंत्रित प्रातिभ निर्माण के कोई राष्ट्र महान नहीं हुआ, कोई समाज विकसित नहीं हुआ। क्या हम उस दिशा में सोच भी रहे हैं? काम तो बहुत दूर की बात है।