Death मृत्यु (या काल) का सन्दर्भ सनातन दर्शन में बारम्बार आता है, बिम्ब के रूप में भी तथा निरंतर एक चेतावनी के रूप में भी जैसे मृत्यु से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। मृत्यु को भयावह नहीं मानते हुए भी सनातन दर्शनों में मृत्यु का वर्णन अनूठे रूप में मिलता है। तथागत के वैराग्य प्रकरण में भी मृत्यु तथा वृद्धावस्था के प्रसङ्ग महत्त्वपूर्ण थे।
अधिक क्या कहें, सनातन दर्शन में पृथ्वी और संसार को मृत्यु-लोक ही कहा गया है अर्थात ऐसा लोक जहाँ मृत्यु नियति है। तैत्तिरीय ब्राह्मण तथा कठोपनिषद् में वर्णित नचिकेता की कथा में नचिकेता ने मृत्यु का चिंतन करते हुए अध्यात्मविद्या तथा ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति की। यहाँ सनातन संदेश स्पष्टत: यह है कि मृत्यु नियति है तथा उसके सत्य स्वरूप के चिंतन से व्यक्ति को ज्ञान की प्राप्ति होती है, न कि दुःख और अवसाद।
का वार्ता? के लिए युधिष्ठिर कहते हैं –
मासर्तुवर्षा परिवर्तनेन सूर्याग्निना रात्रि दिवेन्धनेन ।
अस्मिन् महामोहमये कराले भूतानि कालः पचतीति वार्ता ॥
अर्थात यह कौतुक करने सी बात है कि मोहमयी कड़ाही में, मास, वर्ष इत्यादि के परिवर्तन तथा सूर्य रुपी अग्नि के ईंधन से काल रात-दिन प्राणियों को पकाता है !
और व्यक्ति जब भोग की इच्छा करने लगे तो उसे यह अवश्य स्मरण रहे कि जीवन उसी प्रकार कालरूपी सर्प से ग्रस्त है जैसे साँप के मुख में पड़ा मेढक भी कीट पतङ्गों की ताक में रहता है!
यथा व्यालगलस्थोऽपि भेकोदंशानपेक्षते ।
तथा कालाहिना ग्रस्तो लोको भोगानशाश्वतान् ॥ (अध्यात्म रामायण, २.४.२१)
मृत्यु के संदर्भ किसी न किसी रूप में प्रायः सभी सनातन ग्रंथों में हैं। महाभारत में कहा गया है-
सोऽयं विपुलमध्वानं कालेन ध्रुवमध्रुवः।
नरोऽवशः समभ्येति सर्वभूतनिषेवितम् ॥
अर्थात मृत्यु के इस विशाल मार्ग का सेवन सभी प्राणियों को करना पड़ता है । यही नहीं,
गर्भस्थो वा प्रसूतो वाऽप्यथवा दशरात्रिकः।
अर्धमासगतो वाऽपि मासमात्रगतोऽपि वा ॥
संवत्सरगतो वापि द्विसंवत्सर एव वा ।
यौवनस्थोऽथ मध्यस्थो वृद्धो वापि विपद्यते ॥
इस सत्य परंतु भयावह से प्रतीत होने वाली बात को बारंबार स्मरण कराने की भला क्या आवश्यकता? सनातन दर्शन मृत्यु का स्मरण तो कराता है परंतु भय नहीं क्योंकि साथ ही यह भी बताता है – आत्मा तो अजन्मा, नित्य, शाश्वत एवं सनातन है –
न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित् ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ (कठोपनिषद्, १.२.१८ )
मृत्यु की सचाई से भय तो मूर्ख करते हैं –
मृत्योर्बिभेषिकिंबाल ! नसभीतंविमुञ्चति । अद्यवाब्दशतान्तेवामृत्युर्वैप्राणिनांध्रुव: ॥
अर्थात सनातन ग्रंथों में सदा मृत्यु का यथार्थ संज्ञान रखने का दर्शन तो है परंतु साथ में यह ज्ञान भी कि उससे भय कैसा? इस विवेचन के संदर्भ में मृत्यु के विचार पर आधुनिक अध्ययनों का अवलोकन भी रोचक है। मनोविज्ञान में मृत्यु व्यग्रता (death anxiety) एक चिंतनीय अवस्था है। बहुधा लोगों को मृत्यु की बात सोचने में कठिनाई होती है। वर्ष २००४ में मनोवैज्ञानिक विक्टर फ़्लोरियन और मारीओ मिकलिंसर ने Handbook of experimental existential psychology में लिखा :
The paralyzing terror produced by the awareness of one’s mortality leads to the denial of death awareness and the repression of death-related thoughts.
वर्ष २०१५ में प्रकाशित अध्ययन The worm at the core: On the role of death in life में यह पाया गया कि यदि व्यक्ति के मन में अनजाने में भी मृत्यु शब्द प्रविष्ट करा दिया जाय तो वह कट्टर व्यवहार करता है। इसी प्रकार न्यायधीशों को यदि मृत्यु शब्द सुनने या पढ़ने को मिले तो वे अधिक दण्ड वाले निर्णय लेते हैं। इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि ऐसे संस्कार वाले व्यक्ति मृत्यु व्यग्रता की अवस्था अर्थात मृत्यु के बारे में अत्यधिक सोचते हुए कैसे निर्णय लेते होंगे !
अनेक अध्ययनों में पाया गया कि ऐसे व्यक्ति अवसाद से ग्रस्त तथा निराश होने के साथ साथ रूढ़िवादी तथा घृणा करने वाले भी हो जाते हैं। कुछ वर्षों पूर्व तक अधिकतर पश्चिमी शोध मृत्यु की सोच को लेकर नकारात्मक ही रहे। मुख्य सिद्धांतों में terror management theory थी जिसके अनुसार मृत्यु के बारे में सोचने से व्यक्ति में भय तथा व्यग्रत्ता उत्पन्न हो जाती है।
परंतु इसके समांतर तथा विरोधाभासी प्रतीत होते निष्कर्षों केपिछले कुछ वर्षों में (मृत्यु को लेकर जागरूक रहने के होने वाले लाभों पर) इतने अध्ययन हुए हैं कि मृत्यु पर चर्चा करने के लिए डेथ कैफ़े जैसे विचारों तक का जन्म हो गया है! ऐसे अध्ययनों में प्रमुख हैं वर्ष 2012 में Personality and Social Psychology Review में प्रकाशित शोध When Death is Good for Life: Considering the Positive Trajectories of Terror Management तथा Psychological Science में अनेक प्रयोगों पर आधारित शोध It’s Only a Matter of Time: Death, Legacies, and Intergenerational Decisions जिसमें यह सिद्ध हुआ कि मृत्यु के बारे में जागरूक होने पर व्यक्ति को संसार के लिए कुछ अच्छा छोड़ जाने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है जिससे आने वाली पीढ़ियों को लाभ हो।
मिज़ुरी विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान की प्रोफ़ेसर लॉरा किंग ने अर्थ शास्त्र के सिद्धान्तों से प्रेरित अपने अध्ययन में पाया कि मृत्यु को लेकर चेतन (death awareness) व्यक्ति अपने जीवन के गुणों का अच्छे से अभिज्ञान करते हैं तथा अपने जीवन का मूल्याङ्कन अधिक करते हैं जिससे वे जीवन में अधिक आनंद से रहते हैं। स्वाभाविक है कि ऐसी सोच में धर्म और संस्कृति का भी योगदान होता है। इस विषय पर अधिक अध्ययन तो नहीं हुए परंतु वर्ष २०११ में प्रकाशित अध्ययन Religiosity and fear of death: a three‐nation comparison में इस्लाम में मृत्यु का भय अधिकतम पाया गया।
वर्ष २०१५ में साइंटिफ़िक अमेरिकन में प्रकाशित लेख – Thinking about Death Can Make Life Better में मृत्यु से जुड़े अनेक आधुनिक अध्ययनों का संदर्भ देकर निष्कर्ष यह था कि We run from the subject like there’s no tomorrow, but thinking about death can ease our angst and make us better people, too. Contemplating our mortality can ease our angst and make our lives more meaningful.
Existential Psychotherapy पुस्तक में Irvin D. Yalom इसे सटीक रूप में लिखते हैं – Though the physicality of death destroys an individual, the idea of death can save him.
अर्थात इस विषय पर विभिन्न प्रकार के शोधों का निष्कर्ष तो वही है कि मृत्यु तो निश्चित है परंतु भय कैसा? तथा इसका संज्ञान सुखी जीवन की ओर ले जाता है न कि दुखी जीवन की दिशा में।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥
इस दर्शन का अलौकिक लाभ हो न हो, मनोवैज्ञानिक लाभ तो अध्ययनों से स्पष्ट ही है।
केतुचित्र साभार : pixabay.com, Sirius, लुब्धक व्याध रुद्र संहारदेव