Degeneracy of intellectual class of India
आपकी शक्ति धन बढ़ाते रहने की मशीनी शक्ति है, उसने आपको ऐेसे दलों में बाँट दिया है जो एक-दूसरे को खा जाना चाहते हैं। हमारी शक्ति सारी श्रमिक जनता की एकता की निरन्तर बढ़ती हुई चेतना की जीवनशक्ति में है। आप लोग जो कुछ करते हैं वह पापियों का काम है, क्योंकि वह लोगों को गुलाम बना देता है। आप लोगों के मिथ्या प्रचार और लोभ ने पिशाचों और राक्षसों का एक भिन्न संसार बना दिया है जिसका काम लोगों को डराना धमकाना है। हमारा काम जनता को इन पिशाचों से मुक्त कराना है। आप लोगों ने मनुष्य को जीवन से अलग करके नष्ट कर दिया है; समाजवाद आपके हाथों टुकड़े टुकड़े कर दिये गये संसार को जोड़कर एक महान रूप देता है और यह हो कर रहेगा।
– माँ, मक्सिम गोर्की
किसान एवं श्रमिक, इन दो वर्गों का भावनादोही उपयोग कम्युनिस्ट करते रहे हैं, कोई नई बात नहीं है। मूलत:, कम्युनिस्ट सिद्धान्त मनुष्य की उत्कृष्टता के विरुद्ध औसत बुद्धि एवं शक्ति के व्यक्तियों के बीच से निकले कुछ धूर्तों द्वारा गढ़े गये हैं जिनके आवरण का काम शब्दजाल करते हैं जिनका एक उदाहरण ऊपर के अनुच्छेद में दिया हुआ है। कुछ वाक्यांशों पर ध्यान दें :
– धन बढ़ाते रहने की शक्ति
– दलों में बाँट
– एक दूसरे को खा जाना
– पापियों का काम
– लोगों को गुलाम बनाना
– मिथ्या प्रचार और लोभ
– पिशाचों एवं राक्षसों का संसार
– डराना धमकाना
गोर्की का यह उपन्यास एक सौ तेरह वर्ष पूर्व छपा था। उससे कुछ वर्ष पहले से ले कर आज तक कम्युनिस्ट धड़ा इस शब्दावली का उपयोग यथावत करता रहा है। आप को आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि सत्ता में आने पर या शक्ति सम्पन्न होने पर ठीक वे ही काम, वरन बढ़ चढ़ कर, कम्युनिस्ट करते हैं, करते रहे हैं। उनके सम्पूर्ण आंदोलन का निचोड़ इसमें है – यह हो कर रहेगा, आगे अनलिखे को भी पढ़ लें – चाहे जैसे हो – धन, शक्ति, बाँट, एक दूसरे को खा जाना, पाप, लोगों को गुलाम बनाना, मिथ्या प्रचार, लोभ, पिशाच संसार, डराना धमकाना।
हिंदी क्षेत्र कविता कहानी मय है। बात समझाने के लिये ऊपर की भूमिका आवश्यक लगी। वे सारे कुकर्म जिनका आरोपण वे दूसरों पर करते हैं, उन्हें स्वयं करने होते हैं। क्यों करने होते हैं? क्यों कि उन औसत बुद्धि एवं कौशल क्षमता के लोगों को बैठे ठाले या केवल उत्पात कर वे सब पाने होते हैं जो कि उत्कृष्टता, नवोन्मेषी साधना, कुशाग्रता, कर्मठता आदि के फल होते हैं। इस हेतु वे प्रचार का आश्रय लेते हैं जिसकी शब्दावली बड़ी आकर्षक होती है, उन पिपासु आत्माओं को अपनी वासनाओं को तृप्त करने का उपाय लगती है।
आधुनिक समय में देखें तो जितने भी आंदोलन औसत एवं निम्न श्रेणी के जन के कल्याण के नाम पर चल रहे हैं, सबके मूल में एक ही स्वार्थ है – अयोग्य को योग्य के समान ही जीवन गुणवत्ता मिले, बिना कुछ किये धरे मिले क्यों कि वह भी एक ‘मनुष्य’ है। सुनने में बहुत आकर्षक लगती यह बात मानव की मौलिक श्रेष्ठता के पूर्णत: विरुद्ध होने के कारण ही आगे चल कर उनकी शत्रु बन जाती है जिनके हीतू होने के नारे ये कम्युनिस्ट लगाते रहते हैं।
समान अवसर एवं बलात समानता दो भिन्न बातें हैं जिनके बीच की रेखा को धूमिल करते रहने के समस्त जतन ये नारेबाज करते रहते हैं। अब तो इस हेतु टी वी एवं सञ्चार माध्यमों का भी बहुलता से प्रयोग होता है तथा शनै: शनै: वैश्विक स्तर पर मानव जनसंख्या का एक बहुत बड़ा वर्ग इनके प्रभाव में या तो ‘मुफ्तखोर’ निठल्ला बनता जा रहा है या अपराधी जिसके बचाव में इनके पास बहुत पहले से गढ़े हुये तर्क हैं, आकर्षक शब्दावलियाँ हैं।
रेखायें कैसे धूमिल की जाती हैं?
स्पष्टता को कैसे संदिग्ध बनाया जाता है?
भावनाओं को चिकोटी काटती असम्बद्ध सचाइयों को प्रासंगिक एवं महत्त्वपूर्ण दर्शा कर। गोर्की के रूस में श्रमिक था, भारत में किसान है। बहुत सरल सी युक्ति है कि किसान वाले तर्क को खींच खींच कर असम्बद्ध क्षेत्रों में लाते रहो, यदि कोई अंगुली उठाये तो उसे किसानविरोधी बताते चलो। रूस में श्रमिकविरोधी एवं क्रांतिविरोधी बता कर लाखों को मार दिया गया, वह पैशाचिकता एवं राक्षसी भाव के प्रसार का अंतिम चरण था, भारत में तो अभी भी सपने देख रहा है। उसने अपना रूप परिवर्तित कर लिया है, वह बहुत बड़ा अभिनेता बन गया है। कैसा अभिनय? एक सामयिक उदाहरण लेते हैं।
वह एक ‘कायर आतंकी आक्रमण’ में सैनिकों के वीरगति प्राप्त होने पर इसकी मीमांसा करता ही नहीं कि आक्रमण के पीछे क्या कारण हैं? जड़ में कौन सी विचारधारा है? उससे किन्हें लाभ मिलने वाला है? जिन्हें लाभ मिलने वाला है वे मानवता का क्या करने वाला है? अनेक प्रश्न हैं जिन पर वह मौन रहता है। वह बहुत ही गम्भीर, प्राय: रूदन वाली मुद्रा के साथ ऐसे वायवीय शब्द उछालता है जो कहीं भी सुविधानुसार ‘फिट’ हो जाते हैं – राजनीतिक स्वार्थ साधन में किसान के बेटे मारे जा रहे हैं। उन्हें ‘बलिदानी’ होने की मान्यता भी नहीं मिलती। उन्हें तो सैनिक भी नहीं कहा जाता, अर्द्धसैनिक कहा जाता है …
जो भी वह उछालता है, सब सच होता है या सत्य प्रतीत होता है किंतु उसकी सम्बद्धता, प्रासंगिकता होती ही नहीं ! वह लोगों के मन में घूमते शब्दों एवं हृदय में उठती भावनाओं को सहेज कर अनुच्छेद रचता है जिसका उपयोग आगे शिरच्छेद हेतु किया जाने वाला होता है। इस प्रसंग में ही सचाइयाँ देखते हैं – राजनीतिक स्वार्थ पूर्ति हेतु सामान्य जन का दोहन या मारा जाना अंतर्मन में गहरे धँसी एक आकर्षक भावना है, सचाई भी है किंतु उसकी मारक क्षमता भावना के कारण है। सामान्य जन को क्या नाम दें तो प्रभावी होगी? हाँ, किसान का नाम दे दो, किसान के बेटे। वे बेटे सीमा पर किसानी करने तो गये नहीं थे, न खेत जोतते हुये उन्हें मारा गया किंतु जब सैन्य कर्म में किसानी प्रविष्ट करा दी जाती है तो मिथ्या प्रचार प्रभावी हो जाता है। यह लोभ ही उससे वह बात कहलवाता है।
यहाँ सुरक्षा तंत्र में प्रचलन है कि ‘बलिदानी’ या तो किसी को नहीं कहेंगे या सब को कहेंगे क्यों कि विधान में ऐसा कुछ है ही नहीं, मात्र ‘कार्यस्थल पर या कार्रवाई में मृत्यु’ कहे जाने का विधान है जिस पर सैन्य कर्म के कारण सामान्य नागरिकों की तुलना में क्षतिपूर्ति भिन्न है। उसका किसानी से कुछ नहीं लेना देना। अर्द्धसैनिक वाली बात तो और भी हास्यास्पद है क्यों कि उसका अंग्रेजी रूप para military सार्वदेशिक सचाई है – पुलिस एवं सेना, दोनों से कुछ वांछित संकल्पनायें ले कर विशेष उद्देश्य हेतु गठित बल। ‘अर्द्धसैनिक’ उस कारण कहा जाता है, किसी हीनता के भाव के कारण नहीं। किंतु नहीं? असम्बद्ध एवं नितांत असत्य को नहीं जोड़ेंगे तो बात में गुरुता कैसे आयेगी? क्रांति कैसे होगी?
आधुनिक भारत की समस्या उसके प्रबुद्ध वर्ग के घोर पतन की है। जन सामान्य सदैव ऐसे ही रहे हैं। वांछित सुखद परिवर्तन प्रबुद्ध वर्ग की उत्कृष्टता में अभिवृद्धि से होते हैं, उनके पतन से देश का पतन होता है। प्रबुद्ध वर्ग निराशा भरा है। ऐसे वर्ग के साथ हम अगली ऊँचाई की छलांग नहीं लगा सकते। इनके दुष्प्रचार में बहने के पूर्व सत्यनिष्ठा के साथ चिंतन मनन करें। आप का चिंतन केवल आप सुन रहे होते हैं, कोई अन्य नहीं, निष्ठा के साथ करें।
पुलवामा में वीरगति प्राप्त योद्धाओं को श्रद्धाञ्जलि।