Find your passion! Is it so? हमें अपनी एक विशेष रुचि ‘पैशन ‘ढूंढना होता है या फल की इच्छा बिना कर्म करना होता है। नए शोध सनातन दर्शन की ओर झुकते दिखाई पड़ते हैं।
हमें बहुधा यह सुझाव सुनने को मिलता है कि जो अच्छा लगता है वही करना चाहिए— find your passion। पश्चिमी देशों में सफलता और आत्मोन्नति के सूत्रों में यह सुझाव सबसे प्रमुख होता है। जीवनवृत्ति हो या सम्बन्ध, पश्चिमी सभ्यता में सफलता हेतु सदा इस बात को प्रमुखता दी जाती है कि हमें उस एक वृत्ति या व्यक्ति को ढूंढना चाहिए जो हमें प्रिय लगे, जिसमें हमारी रुचि हो— अर्थात जिस कार्य को हम उत्साह से करें या जिस व्यक्ति से मिलकर हमें उत्कटेच्छा की अनुभूति हो।
इसके विपरीत सनातन दर्शन में रुचि में लिप्तता, अभिलाषा, आवेग और आवेश जैसे मनोभावों के पीछे न भागने की बात मिलती है। बौद्ध दर्शन के तो मुख्य सिद्धान्त ही अनासक्ति पर निर्भर हैं और फिर बिना परिणाम की अभिलाषा किये कार्य करना गीता का मुख्य सन्देश ही है। सफलता के इन विरोधाभासी से प्रतीत होने वाले सिद्धान्तों की गुत्थी इससे जुड़े एक लोकप्रिय शोध से सुलझती है।
स्टैनफ़र्ड और येल विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिकों ने पिछले महीने Psychological Science में छपे अपने शोध Implicit Theories of Interest: Finding Your Passion or Developing It? में यह दर्शाया कि रुचि को ढूँढ़ने का प्रसिद्ध सुझाव ही भ्रामक और अनुपयुक्त है। इसके स्थान पर किसी भी कार्य में उद्यम करते हुए रुचि विकसित करने के सुझाव होने चाहिए अर्थात रुचिपूर्ण अभिलाषा वाले कार्य को ढूँढ़ने के स्थान पर कर्म करने का सुझाव होना चाहिए।
इस शोध के अनुसार अर्थपूर्ण कार्य वे होते हैं जिन्हें करते हुए हम रुचि विकसित करते हैं न कि वे जिन्हें हम कहीं से ढूँढ़ निकालते हैं। इसका एक उपयुक्त उदाहरण है— लोगों का अपने कार्य को अच्छी तरह नहीं करना एवं यह दोष देना कि उस कार्य विशेष में उनकी रुचि ही नहीं है। रोचक बात यह होती है कि जिस कार्य में हमें रुचि होने का भ्रम होता है उसकी कठिनता का हमें बहुधा कोई अनुमान नहीं होता। उदाहरणतया यदि किसी व्यक्ति को विज्ञान विषयक कहानियाँ पढ़कर विज्ञान में रुचि हो जाए परन्तु उसे शैक्षणिक अध्ययन तथा समीकरणों की कठिनाई का कोई अनुमान ही न हो। किसी व्यक्ति को सुन्दर चित्र देख फोटोग्राफी में रुचि होने का भ्रम हो परन्तु जैसे ही उसका कैमरे की तकनीकी बातों से सामना हो उसकी रुचि समाप्त हो जाय।
अपने रुचि का कार्य और प्रेम ढूँढ़ लेने की बात सभी को आकर्षित करती है। ऐसा कार्य करना जिसे करने में सदा उत्सुकता बनी रहे और आनंद भी आता रहे! पॉल’ओ कीफे, कैरोल ड्वेक और ग्रेगरी वाल्टन ने इस शोध से निष्कर्ष निकाला कि सफलता का यह प्रचारित पथ एक भ्रम है। ऐसा कार्य या ऐसे व्यक्ति को ढूँढ़ने के स्थान पर हमें विविध क्षेत्रों के कार्यों को अर्थपूर्ण रूप में करते हुए उनमें रुचि विकसित करने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि रुचि एवं उत्साह समय के साथ धीरे-धीरे विकसित किये जाते हैं, रातों-रात, आविष्कृत नहीं!
मनोवैज्ञानिकों ने ४७० लोगों के ऊपर पाँच विभिन्न प्रयोगों में दो प्रकार के मनोभाव वाले लोगों का अध्ययन किया दृढ़ (fixed mindset) एवं संवृद्ध (growth mindset)। इन प्रयोगों में यह पाया गया कि दृढ़ मनोभाव वाले व्यक्ति अपने रुचि क्षेत्र के बाहर की बातों में अल्प रुचि रखते हैं। बहुविषयक संसार में यह बात ऐसे व्यक्तियों की समझ को संकीर्ण बनाती है तथा सफलता के लिए हानिकारक होती है। साथ ही ऐसे व्यक्ति कठिन चुनौतियाँ भी स्वीकार नहीं करते। दृढ मनोभाव वाले व्यक्ति को ऐसा लगता है कि उनके रुचि के क्षेत्र में कठिनाई होती ही नहीं! यदि कुछ कठिन मिल जाए तो उसे वे यह सोच कर छोड़ देते हैं कि वह उनके रूचिविषयक क्षेत्र का है ही नहीं।
कुछ छात्रों को जब ब्रह्माण्ड तथा कृष्ण-विवर से जुड़े चलचित्र दिखाए गए तो छात्रों ने इस विषय में अत्यंत रुचि दिखाई परन्तु जब उन्हें इन सिद्धांतों से जुड़े वैज्ञानिक शोधपत्र पढ़ने को दिए गए तो उन्होंने उस विषय को छोड़ दिया। वहीं संवृद्ध मनोभाव वाले छात्रों ने चुनौती स्वीकार की। दृढ मनोभाव वाले छात्रों ने संभवतः यह सोचते हुए कि यह विषय वैसे भी उनकी रुचि का नहीं है, पढ़ने की चुनौती को स्वीकार नहीं किया अर्थात हर कार्य में रुचि ढूँढ़ने वाले व्यक्ति कठिनाई से सामना होने पर उसे स्वीकार करने के स्थान पर बहुधा कार्य अधूरा ही छोड़ देते हैं।
शोधकर्ताओं ने यह निष्कर्ष निकाला कि अपनी रुचि वाला कार्य ढूँढ़ने के स्थान पर व्यक्ति को अपने हर कार्य को ही संवर्धित करने के प्रयत्न करने चाहिए। प्रो. वाटसन कहते हैं—
If you look at something and think,
“that seems interesting, that could be an area I could make a contribution in,”
you then invest yourself in it, You take some time to do it, you encounter challenges, over time you build that commitment.
दृढ़ मनोभाव वाले व्यक्ति अपनी रुचि के विषय के सहज होने में विश्वास करते हैं। उनकी अपेक्षाओं एवं वास्तविकता में बहुधा अंतर होता है। अपनी रुचि के विषय में वे अन्तहीन प्रेरणा, अल्पतम परिश्रम और संघर्ष न होने की अपेक्षा करते हैं। वास्तव में उसके कठिन होंने पर वे अपना समय तथा उद्यम निवेश नहीं कर पाते और जो विषय उनकी रुचि का नहीं उसे तो पहले ही त्याग देते हैं। इसके विपरीत कार्य में रुचि न होते हुए भी समय के साथ रुचि विकसित करने का संवृद्ध मनोभाव रखने वाले व्यक्ति मनोरथ न करते हुए कार्य करते हैं तथा सफलता के साथ-साथ विशेषज्ञता एवं रुचि भी विकसित कर लेते हैं।
ये सभी अध्ययन मनोरथ, अपेक्षा और उद्यम की ही तो बात करते हैं। निष्कर्ष— जीवन में रुचियों में भी तन्यकता (resilience) होनी चाहिए। विद्यार्थियों को मात्र रुचि के अनुसार एक सरल विषय नहीं पढ़कर समझदारी से विभिन्न विषयों का उत्सुकता से अध्ययन करना चाहिए। उसी प्रकार हर प्रकार के कार्य का अनुभव भी प्राप्त करना चाहिए। सफलता के लिए अपने वास्तविक रुचि (true passion) के मनोरथ की प्रतीक्षा करने के स्थान पर यह समझना आवश्यक है कि रूचि, विशेषज्ञता एवं उत्साह ढूँढ़ने से बने बनाए नहीं मिलते वरन अनुभव, उद्यम एवं अनवरत परिश्रम से विकसित किये जाते हैं।
अन्तरंग सम्बंधों (romantic relationship) में भी ठीक यही मनोभाव देखने को मिलता है। दृढ़ मनोभाव के मनोरथ रखने वाले व्यक्ति अपने सम्बंध को बिना किसी प्रयास के सदा ही उत्साह, अनुराग से पूर्ण तथा अन्तहीन संतोषप्रद पाने का मनोरथ रखते हैं। प्रारब्ध को मानते हुए वे एक आदर्श जीवन साथी (the one) का मनोरथ करते हैं परन्तु संवृद्ध मनोभाव के व्यक्ति मुक्तमना हो कठिनाइयों और अनुभूतियों को भी आत्मसात करते हैं। वे the one को ढूँढ़ते नहीं, अपितु किसी को भी the one बना देते हैं!
मनोविज्ञान के इस सिद्धांत से आदर्श जीवन साथी (the one) की खोज, प्रतीक्षा और अपेक्षा करने वाले व्यक्ति के सम्बन्ध वास्तविक कठिनाइयों को पार करने में असमर्थ होते हैं तथा टूट जाते हैं। (संदर्भ)
यहाँ एक और रोचक तथ्य यह भी है कि ये सिद्धांत एक दूसरे से परस्पर सुन्दरता से जुड़े हुए हैं। साहचर्य (compassionate) एवं आवेशी (passionate) प्रेम सम्बन्ध की जो चर्चा हमने एक अन्य लेखांश में की थी, उसका भी तो निष्कर्ष यही था।
आदर्श के मनोरथ की मानसिकता वाले व्यक्ति तीन महत्वपूर्ण कारकों में भिन्न होते हैं—
- वे अपनी रुचि से जुड़ी हर बात के सरल होने की अपेक्षा करते हैं।
- उनकी रुचियाँ बहुधा क्षणिक होती हैं।
- एवं वे अपने सुविधा क्षेत्र के बाहर निकल नए क्षेत्रों में प्रयास नहीं करते।
वास्तव में यदि हमें किसी विषय में उत्कृष्ट होना है तो हमें उसके लिए उद्यम करना होगा। रुचि, उत्साह एवं आवेश स्वतः विकसित हो जायेंगे। परन्तु यदि हम मात्र मनोरथ ही करते रहे कि हमारे रुचि का विषय एक दिन हमें मिल जाएगा एवं हम उसी के विशेषज्ञ बनेंगे तो उत्कृष्ट होना तो दूर की बात है, हम कुछ नहीं कर पायेंगे!
अर्थात :
करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत-जात के, सिल पर परत निशान॥
प्रयत्न से न केवल कार्य सिद्ध होते हैं, उनके प्रति रुचि भी विकसित होती है। आदर्श मिल जाने के मनोरथ करने के स्थान पर संवृद्ध मनोभाव से प्रयत्न करने से सम्बन्ध सफल भी होते ही हैं एवं साथ में प्रेम अपने सत्यरूप में विकसित भी होता है।
प्राय: प्रत्येक महत्वपूर्ण पत्रिका में छपे इस शोध के सन्दर्भ में ऐतेरेय ब्राह्मण के इस श्लोक का अवलोकन करें तो!
आस्ते भग आसीनस्योर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः।
शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगश्चरैवेति॥
एवं इन सुन्दर सुभाषितों का अवलोकन भी करें—
उद्यमेनैव हि सिध्यन्ति, कार्याणि न मनोरथै।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मृगाः॥
यथा हि एकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत्।
एवं पुरूषकारेण विना दैवं न सिध्यति॥
न दैवमपि सञ्चित्य त्यजेदुद्योगमात्मनः।
अनुद्योगेन कस्तैलं तिलेभ्यः प्राप्तुमर्हति॥