लंकादहन की भूमिका, रामायण, पिछले भाग से आगे
अग्नि की शीतलता के कारणों का महाकपि विश्लेषण करते चले गये। उनके मन का सहज कृतज्ञ भाव ही प्रवाहित हो चला जिसमें अहङ्कार का लेश मात्र भी नहीं था –
अथ वा तदिदं व्यक्तं यद्दृष्टं प्लवता मया ॥
रामप्रभावादाश्चर्यं पर्वतः सरितां पतौ । यदि तावत्समुद्रस्य मैनाकस्य च धीमथ ॥ [पाठभेद – धीमतः]
रामार्थं संभ्रमस्तादृक्किमग्निर्न करिष्यति । सीतायाश्चानृशंस्येन तेजसा राघवस्य च ॥
पितुश्च मम सख्येन न मां दहति पावकः । भूयः स चिन्तयामास मुहूर्तं कपिकुञ्जरः ॥
[गीताप्रेस पाठ में अतिरिक्त –
कथमस्मद्विधस्येह बन्धनं राक्षसाधमै:। प्रतिक्रियास्य युक्ता स्यात् सति मह्यं पराक्रमे॥
ततश्छित्त्वा च तान् पाशान् वेगवान् वै महाकपि:।]
उत्पपाताथ वेगेन ननाद च महाकपिः । पुरद्वारं ततः श्रीमाञ्शैलशृङ्गमिवोन्नतम् ॥
विभक्तरक्षःसंबाधमाससादानिलात्मजः । स भूत्वा शैलसंकाशः क्षणेन पुनरात्मवान् ॥
ह्रस्वतां परमां प्राप्तो बन्धनान्यवशातयत् । विमुक्तश्चाभवच्छ्रीमान्पुनः पर्वतसंनिभः ॥
वीक्षमाणश्च ददृशे परिघं तोरणाश्रितम् । स तं गृह्य महाबाहुः कालायसपरिष्कृतम् ॥
रक्षिणस्तान्पुनः सर्वान्सूदयामास मारुतिः ।
स तान्निहत्वा रणचण्डविक्रमः; समीक्षमाणः पुनरेव लङ्काम् ॥
प्रदीप्तलाङ्गूलकृतार्चिमाली; प्रकाशतादित्य इवांशुमाली । [पाठभेद – इवार्चिमाली]
वीक्षमाणस्ततो लङ्कां कपिः कृतमनोरथः ॥
ऐसा राम के प्रभाव के कारण होना चाहिये जिसके कारण सागर प्लवन के समय मुझे अद्भुत पर्वत दिखा था। यदि रामकाज हेतु समुद्र एवं मैनाक पर्वत में इतनी व्यग्रता (सम्भ्रम:) थी तो अग्निदेव क्या नहीं करेंगे (शीतल होंगे ही)।
निश्चय ही सीता की अनुकम्पा, राम के तेज व पिता पवन की मैत्री के प्रभाव से अग्निदेव मुझे नहीं जला रहे हैं। पुन: कपिकुञ्जर ने कुछ समय तक विचार किया तथा अपने महान कपिगुण के अनुसार तीव्र गति से ऊपर को उछल गर्जना करने लगे।
देवी सीता का आशीष साथ था, वाल्मीकि जी ने लिखा – ‘श्रीमान’। श्री अर्थात सीता।
पवनपुत्र राक्षसों के समूह से परे पर्वत की चोटी के समान ऊँचे नगरद्वार जा पहुँचे। देह को शैल समान स्फीत कर एवं पुन: लघु सङ्कुचित कर आत्मरूप हो उन्होंने स्वयं को बंधनों से मुक्त कर लिया। बंधनमुक्त होने के पश्चात उन्होंने अपनी देह को पुन: स्फीत कर पर्वताकार कर लिया। इधर उधर देखने पर उन्हें तोरण से लगा हुआ एक परिघ दिख गया। महाबाहु मारुति ने उस लोहे के परिघ को ले उसके द्वारा वहाँ के समस्त रक्षकों का वध कर दिया। उन्हें मार कर रणचण्डविक्रम हुये मारुति पुन: लङ्कापुरी का निरीक्षण करने लगे।
लङ्का प्रवेश के पश्चात हनुमान जी ने जो भी पराक्रम किये थे, उनके लिये आदिकवि ने बारम्बार सूर्य संज्ञाओं का प्रयोग किया है, सूर्य अर्थात अग्निसम ताप। हेमशैलाभदेहधारी परम तेजस्वी हनुमान अग्नि से घिरे कैसे दिख रहे थे, बताने हेतु कवि चाक्षुष बिम्ब गढ़ते हैं – उनकी प्रदीप्त पूँछ अग्नि ज्वालाओं की माला सी दिख रही थी जिससे अलङ्कृत हनुमान रश्मियों की माला से प्रकाशित आदित्य की भाँति प्रकाशित हो रहे थे।
यहाँ शब्द प्रयोग महत्त्वपूर्ण हैं। परिघ को एक प्रकार का दण्ड समझें। पुराने बड़े द्वारपट देखें, उन्हें बन्द करने के लिये एक बड़ा सा आड़ा दण्ड होता है। अर्गला समान प्रयुक्त वह क्षैतिज दण्ड परिघ कहलाता है। उसे दृढ़ बनाने हेतु लोहे से मण्डित किया जाता है। यहाँ लोहे हेतु शब्द प्रयुक्त हुआ है – कालायस, काली धातु। यह हुई एक युक्ति, जुगाड़।
परिघ का एक अर्थ घड़ा भी होता है। परिघ शस्त्र भी है जिसके एक छोर पर स्थित घटाकार गोल भाग पर लोहा या उसके काँटे लगे होते हैं।
हनुमान जी के साथ जो गदा अनिवार्य रूप से जुड़ गई है न, उसका उत्स यही प्रसङ्ग है। इस शब्द के प्रयोग से वाल्मीकि जी दोनों सम्भावनाओं को समक्ष कर देते हैं, अस्त्र या युक्ति का अस्त्र के रूप में प्रयोग, जैसा समझें।
परिघ की मार उसमें लगे लम्बे डण्डे से ही प्रभावी होगी जिसे चलाने वाले को बलशाली बाँहों वाला होना चाहिये, कवि ने शब्द प्रयोग किया – महाबाहु।
अंशु कहते हैं किरणों को, अंशुमाली अर्थात जिसने किरणों की माला पहन रखी हो। रूढ़ अर्थ हुआ सूर्य। आदित्य का यह रूप स्पष्ट करने के लिये उसके साथ अंशुमाली या अर्चिमाली शब्दों का प्रयोग किया क्योंकि आदित्य तो अनेक हो सकते हैं। आदित्य शब्द ही क्यों? अदिति को देवमाता कहा जाता है, दिति को दैत्यमाता। राक्षसों की साम्यता दैत्यों से थी, हनुमान वहाँ देव अंश ले कर पहुँचे थे।
परिघ सूर्य के समक्ष उड़ते बादलों को भी कहते हैं। बादल मरुत देव वायु के प्रभाव में उड़ते हैं। अग्निकिरणों के घेरे में परम तेजस्वी सूर्य सम प्रकाशित मारुति द्वारा चलाये जाते परिघ का सम्पूर्ण बिम्ब इन शब्द प्रयोगों से भासमान हो उठता है!
वीक्षमाणस्ततो लङ्कां कपिः कृतमनोरथः । वर्धमानसमुत्साहः कार्यशेषमचिन्तयत् ॥
रावण से भेंट, उसकी सभा का आकलन आदि कपि के मनोरथ पूर्ण हो गये थे। उत्साह बढ़ा तो लङ्का का निरीक्षण करते हुये वह शेष कार्य की सोचने लगे – किन्नु खल्ववशिष्टं मे कर्तव्यमिह साम्प्रतम् । यदेषां रक्षसां भूयः सन्तापजननं भवेत् ॥ अब वास्तव में ऐसा और क्या शेष रह गया है जिसको करने से राक्षस पुन: सन्तप्त हों?
वनं तावत्प्रमथितं प्रकृष्टा राक्षसा हताः । बलैकदेशः क्षपितश्शेषं दुर्गविनाशनम् ॥
दुर्गे विनाशिते कर्म भवेत्सुखपरिश्रमम् । अल्पयत्नेन कार्येऽस्मिन् मम स्यात्सफलश्श्रमः॥
यो ह्ययं मम लाङ्गूले दीप्यते हव्यवाहनः। अस्य सन्तर्पणं न्याय्यं कर्तुमेभिर्गृहोत्तमैः॥
प्रमदावन को नष्ट कर दिया, उत्कृष्ट राक्षस योद्धाओं का नाश कर दिया, रावण की सेना के एक अंश का भी नाश कर दिया, दुर्ग का विनाश करना रह गया है। दुर्ग के विनाश से मेरे द्वारा किया गया परिश्रम सुखद हो जायेगा। इस कार्य को करने से अल्पयत्न से ही स्यात मेरा श्रम सफल हो जायेगा। मेरी पूँछ पर जो हव्यवाहन अग्नि विराजमान हैं, उनकी तृप्ति के लिये इन उत्तम घरों की आहुति न्यायसङ्गत जान पड़ती है।
यह सब सोचते प्रदीप्त पूँछ के साथ हनुमान तड़ितयुक्त बादल की भाँति लग रहे थे – ततः प्रदीप्तलाङ्गूलस्सविद्युदिव तोयदः।
वाल्मीकि बादल हेतु शब्द प्रयोग करते हैं – तोयद, जल देने वाला। वह बादल जो परिघ था, जल की वर्षा करने वाला था? या जलप्रतीप की? पूर्वाषाढ़ वर्षा नक्षत्र को भी तोय कहते हैं, चिह्न है हाथ में लिया हुआ पंखा – मारुति के हाथ परिघ, वायुदेव मरुत के साथ पवनपुत्र महाकपि मारुति। आगे जाने क्या होने वाला था!
भवनाग्रेषु लङ्काया विचचार महाकपिः॥
महाभारत की नीलकण्ठी टीका में ‘परिघ’ शस्त्र पारिभाषित है –
पवनपुत्र की जय हो।