Babylonian and Indian Astronomy – Early Connections, सुभाष काक का 17 फरवरी 2003 को मूलत: अंग्रेजी में प्रकाशित लेख,
धारावाहिक अनुवाद – अर्पिता शर्मा
बेबीलॉन गणित साठ (60) पर आधारित गणना पर निर्भर करता है, जिसका अर्थ है कि उसमें स्थानिक मान तंत्र का आधार 60 है। बेबीलॉन की गणितीय परंपरा की यह मुख्य विशेषता मानी जाती है। बेबीलॉन नववर्ष वसन्त विषुव के साथ अथवा उसके अनन्तर आरम्भ होता है।
पञ्चाङ्ग चन्द्र आधारित है एवं संध्या में प्रथम बार नवचंद्र के दर्शन के साथ ही मास आरम्भ होता है। एक मास में या तो 29 दिन (अपूर्ण – हालो) अथवा 30 दिन (संपूर्ण) होते हैं। चूँकि 12 माहों में केवल 354 दिन ही होते हैं, अधिमास के रूप में कभी-कभी एक माह और जोड़ा जाता है। पाँचवीं शताब्दी के मध्य से आरम्भ होकर अधिमास परंपरा मेटोनिक चक्र का अनुसरण करती है, जहाँ प्रत्येक 19 वर्षों के समूह में सात वर्षों में अधिमास होते हैं। उत्तरवर्ती ग्रन्थों में क्रांतिवृत्त का विभाजन 12 राशि चिह्नों में किया गया है। प्रत्येक की परास 30 अंश है (यूएस)। राशि चिह्नों पर आधारित तारों की प्रथम सूची 410 ईसापूर्व की है।
भारतीय राशि चिह्नों के साथ इन राशि चिह्नों में आपसी व्याप्ति बहुत हुई है, परन्तु उनका उद्गम दिखाई नहीं देता है। उदाहरणस्वरूप हमें बकरी-मछली का आधार समझ नहीं आता, जबकि बकरा मस्तकधारी प्रजापति की कथा वैदिक कथाओं में प्रमुख है। ये चिह्न एक ही प्रकार के किसी मूल से संबद्ध नहीं दिखते हैं। इसमें हल रेखा (फरो), नियुक्त हाथ एवं नक्षत्र सम्मिलित हैं। अपने अस्थिर स्वभाव गुणों के कारण ये चिह्न भारतीय अथवा ग्रीक राशिचक्रीय नामों के रूप में उपयुक्त प्रतीत नहीं होते हैं। तथापि यह सम्भव हो सकता है कि ये चिह्न किसी अस्पष्ट रूप से व्यक्त की गई भारतीय परम्परा को दर्शाते होंं, जिसे बेबीलॉन तंत्र ने अपना लिया हो। दो सहस्राब्दी ईसापूर्व के पश्चिम एशिया के भारतीय राज्य इस प्रकार के संक्रमण में माध्यम इकाइयों की भूमिका में हो सकते हैं।
सारणी 3 : राशि चिह्न
# |
लैटिन |
बेबीलॉन |
ग्रीक |
01. | एराइज | हुन, लू (नियुक्त हाथ) | क्रिओस (मेढ़ा) |
02. | टॉरस | मुल (नक्षत्र) | तॉरस (भैंसा) |
03. | जैमिनी | माश, माश-माश (जुड़वां) | डिडीमोई (जुड़वां) |
04. | कैंसर | अल्ला, कुसु (?) | कारकिनोस (केकड़ा) |
05. | लियो | ए (शेर) | लियोन (शेर) |
06. | विर्गो | अबसिन (हल) | पार्थेनोस (कुमारी) |
07. | लिब्रा | रिन (तुला) | खेलई (पंजा) |
08. | स्कार्पियो | गिर (बिच्छू / वृश्चिक) | स्कोरपिओस (वृश्चिक) |
09. | सैगिटेरस | पा (एक देव का नाम) | टोक्सोटीज (धनुर्धर) |
10. | कैप्रिकोर्नस | मास (बकरी-मछली) | आईगोकेरोस (बकरी के सिंगवाला) |
11. | एक्वेरियस | गु (?) | हायड्रोखूस (पानी डालने वाला) |
12. | पिसेस | जिब, जिब-मे (पूंछ) | इख्ताइस (मछली) |
बेबीलॉन जनों के पास क्रांतिवृत्त पर राशियों को जमाने के दो सिद्धान्त थे। पहले में ग्रीष्म संक्रांति 8डिग्री कुसु पर थी (जबकि शीत संक्रांति 8 डिग्री मास पर), दूसरे सिद्धान्त में संक्रांतियां चिह्नों पर 10 डिग्री थीं। उन्होंने क्रांतिवृत्त से चंद्र एवं अन्य ग्रहों को शी नामक एक ईकाई से नापा था, जो डिग्री के 1/72 के बराबर थी। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने सूर्य की गतियों के लिए दो आदर्श प्रयोग में लिए होंगे। प्रथम में सूर्य की गति अचानक परिवर्तित हो जाती है, जबकि दूसरे में यह वक्र पथ में चलती है।
जहां तक ग्रहों का प्रश्न है, उन्होंने प्रतिगमन के प्रारंभ एवं समापन के क्षणों की तिथियों की गणना की, प्रथम दृष्टव्य सूर्योदय एवं अंतिम दृष्टव्य सूर्योदय एवं इसके उलट। उन्होंने क्रांतिवलय में किसी ग्रह की स्थितियों के क्षणों की भी गणना की। इस ग्रह संबंधी (प्लानेटरी) सिद्धान्त में धर्मसभा (साइनाइडिक मंथ) माह को 30 भागों में बांटा गया, जिसे भारतीय परिप्रेक्ष्य में आज हम तिथि कहते हैं। बेबीलॉन ग्रह संबंधी आदर्श में मूलभूत चिंता प्रथम स्थाई बिन्दुओं का समय एवं स्थान की गणना है। इस हेतु दो भिन्न-भिन्न सिद्धान्त प्रस्तावित किए गए, जिनका अभी के वर्षों में पुनर्निर्माण किया गया है।
बेबीलॉन ज्योतिष एवं वेदांग ज्योतिष
डेविड पिंग्री द्वारा बेबीलॉन ज्योतिष से भारतीय ज्योतिष के उद्भव एवं प्रभाव वाले वाद का सारांश निम्न प्रकार से है :
“बेबीलॉन ज्योतिषी सातवीं, छठवीं एवं पाँचवीं शताब्दी ईसापूर्व में पञ्चाङ्ग में चक्रों के प्रवेश एवं गणना में समर्थ थे और ग्रीक एवं कीलाक्षर स्रोतों में इसका प्रमाण उपलब्ध है कि उन्होंने ऐसा किया भी। एवं चौथी शताब्दी ईसापूर्व तक उन्होंने उन्नीस वर्षों का परिशुद्ध चक्र वाला तंत्र अपना लिया था। मेरा तर्क है कि इस ज्ञान का कुछ अंश कुछ विशेष ज्योतिषीय सामग्री के साथ पाँचवीं शताब्दी ईसापूर्व में ईरानी मध्यस्थों द्वारा भारत पहुँचा, जिसका प्रभाव लगध द्वारा ज्योतिषवेदांग में चयनित वर्षावधि में दृष्टव्य है किन्तु पाँच वर्ष की युग की वास्तविक लंबाई / अवधि लगध द्वारा कदाचित वैदिक पंचाब्द प्रभाव के कारण स्वीकार की गई। जिस प्रकार का विशद पर्यवेक्षण बेबीलॉन को उपलब्ध था, उसके अभाव में उसे स्यात अपने तंत्र की अपरिपक्वता का भान नहीं था एवं भारतीयों द्वारा छह, सात या इससे अधिक शताब्दियों तक इस चक्र की स्वीकार्यता अन्यों के साथ यह भी दर्शाती है कि भारतीय ज्योतिषीय पर्यवेक्षण की सबसे सरल युक्तियाँ भी प्रयुक्त नहीं करना चाहते थे।”
बेबीलॉन ज्योतिष की वे “मुख्य मदें” जिनके बारे में पिंग्री का विश्वास है कि उन्हें भारतीय पश्च वैदिक ज्योतिष ने स्वयं में समेटा है, निम्न हैं :
• सबसे लंबे एवं सबसे छोटी अवधि वाले दिवस का अनुपात 3:2, 700 ईसापूर्व के पश्चात उपयोग में आया।
• माध्यमिक माहों में दिवस प्रकाश की अवधि को सीमाबद्ध करने हेतु एकघाती फलन का प्रयोग
• जल-घड़ी का प्रयोग
• तिथि की चंद्र मास के तीसवें अंश होने की संकल्पना
• पाँच वर्ष की अवधि में दो अधिमासों की संकल्पना
• पाँच वर्ष के युग की संकल्पना
इनमें से प्रत्येक बिन्दु का उत्तर अनेक इतिहासकारों द्वारा दिया गया है। विशेषकर टी एस कुप्पन्ना शास्त्री जी ने वेदांग ज्योतिष पर एक बहुप्रचारित एवं लोकप्रिय ग्रंथ लिखा है, जो यह प्रदर्शित करता है कि कैसे वह इसकी तिथि-निर्धारण 1300-1200 ईसापूर्व का समर्थन करते हैं, और अब अचार तर्क करते हैं कि इसकी तिथिनिर्धारण 1800 ईसापूर्व ठहरता है। अपने गौरव ग्रंथ भारतीय ज्योतिष (1896) में एस बी दीक्षित ने वैदिक साहित्य में वैदिक ज्योतिष की जड़ों का प्रलेखीकरण प्रस्तुत कर चुके हैं। निकट वर्तमान में आचार29 भारत में प्राचीन गणितीय ज्योतिष के वैदिक स्रोत पर आधारित अपने पत्रक में इन प्रश्नों पर विस्तृत चर्चा कर चुके हैं।
दिवस की अवधि
सर्वाधिक लंबे एवं सर्वाधिक लघु दिवस हेतु 3:2 का अनुपात उत्तर-पश्चिम भारत के लिए शुद्ध है। जबकि दूसरी ओर, बेबीलॉन जनों द्वारा 700 ईसापूर्व अथवा इसके आसपास जो अनुपात प्रयोग हो रहा था, वह था 2:1, जो कि अशुद्ध था। अतः स्पष्ट है कि बेबीलॉन जन लंबे समय तक उस पैमाने का उपयोग करते रहे, जो एकदम अशुद्ध था। उन्होंने निश्चय ही किसी बाहरी प्रभाव के वश में होकर अपने इस अशुद्ध पैमाने में सुधार किया होगा। किसी भी स्थिति में 3:2 अनुपात किसी भी परिणाम पर नहीं पहुंचता है, क्योंकि यह भारत एवं बेबीलॉन दोनों देशों के लिए शुद्ध बैठता है। इसका बेबीलॉन में उत्तरार्द्ध में प्रयोग 700 ईसापूर्व बेबीलॉन पर्यवेक्षणीय ज्योतिष की सीमाएं बताता है।
दिवस की लंबाई हेतु एकघाती फलन का उपयोग
ऋग्ज्योतिष, मंत्र7 के अनुसार आंतरगणन सूत्र (इंटरपोलेशन फॉर्मूला) निम्न है—
d(x)= 12+2x/61
यहां पर d मुहूर्त दिवस की अवधि (ड्यूरेशन) हेतु एवं x उन दिवसों की संख्या है, जो शीत संक्रांति के पश्चात् बीत गए हैं।
जब कोई इस तथ्य को स्वीकार कर लेता है कि 3:2 अनुपात में शीत संक्रांति हेतु आवश्यक मुहूर्तों की संख्या 12 है, तब इस समीकरण का उपयोग प्राकृतिक है। यह सुनिश्चित करता है कि विषुवों पर दिवस एवं रात्रि प्रत्येक की अवधि 15 मुहूर्तों के बराबर होगी।
तैत्तिरीय संहिता 6.5.3.4 सूर्य के उत्तरार्द्ध एवं दक्षिणार्द्ध गतियों के बारे में स्पष्टतः कहता है — आदित्योसंमासो दक्षिणैति सदुत्तारेणा।
ब्राह्मण ग्रंथों में शीत संक्रांति से शुरू होने वाले दिवसों की गणना एवं दो संक्रांतियों के मध्य अवधि की संकल्पना 183 दिन करते हैं। उपरोक्त समीकरण के साथ पुरा वैदिक ज्योतिषीय परंपरा स्थितियों को अपनाना प्राकृतिक है। किसी भी क्षेत्र में इसका प्रयोग का तात्पर्य केवल अधिग्रहण नहीं है, यह सर्वाधिक प्रत्यक्ष फलन है।
जल घड़ी का प्रयोग
जलघड़ी के प्रयोग का संदर्भ अथर्ववेद 19.53.3 में मिलता है30:
पूर्णः कुम्भोऽधि काल आहितस्तं वै पश्यामो बहुधा नु सन्तम् ।
स इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यङ्कालं तमाहुः परमे व्योमन् ॥
काल के ऊपर एक भरा बर्तन रख दिया गया है।
इस मंत्र का उद्देश्य यह बतलाना है — एक भरे पात्र को समय की गणना के लिए जमाना है।
चूँकि अथर्ववेद बेबीलॉन ज्योतिष से किसी भी हिसाब से पुराना ही है, यह दर्शाता है कि भारत में जल-घड़ियों का प्रयोग होता था। संभव है कि बेबीलॉन वासी अपने किसी अन्य प्रकार की स्वतंत्र जल-घड़ियों का प्रयोग करते रहे हो।
तिथि की संकल्पना
वर्ष की 30 समान भागों में विभाजन वेदों एवं वेदों के अनुवर्ती अनुषांगी ग्रंथों में अनेक स्थानों पर प्राप्त है।
ऋग्वेद (10.85.5) में कहा गया है कि चंद्र वर्ष की संरचना तय करता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में अनेक स्थानों पर तिथि का दोष-रहित तकनीकी अभिप्राय बताया गया है। उदाहरणस्वरूप, 1.5.10 में कहा गया है कि चंद्रमा वै पंचदशाः। ईसा ही पंचदशायमपक्षयते। पंचदशायामपूर्यते, पंद्रह दिवस पर चंद्रमा घटने लगता है, एवं पंद्रह दिवस पर बढ़ने लगता है। 3.10 में चंद्रमा की बढ़ती हुई एवं घटती हुई पंद्रह-पंद्रह दिन की कलाओं को नाम दिया गया है।
तिथि की संकल्पना ही अमूर्त है। 29.5 दिवसों के एक माह में केवल 27 बार ही चंद्रोदय होता है। इनको 30 भागों में विभाजित करने का तात्पर्य है कि तिथियाँ दिवसों से अवधि में छोटी हैं। भारत में सोम अनुष्ठान की परंपरा से संबंध के कारण ऐसा होता है।
वैदिक विचार का मूलभूत विचार ही 360 की संख्या है। यह समय एवं विषय की अनुरूपता का संकेत करता है। आयुर्वेद में विकसित होते गर्भस्थ शिशु की हड्ड़ियों की संख्या 360 ही बताई गई है।
चूँकि सबी छह संकल्पनाएं संहिताओं में पहले से ही प्रयोग होती आ रही थीं, जो किसी भी प्रकार से 1000 ईसापूर्व से पूर्व की हैं, यह कैसे संभव हो सकता है कि इसे भारतीयों ने बेबीलॉन जनों से सीखा, जिनकी संकल्पनाएं 700 ईसापूर्व में ही प्रयोग में ली जाने लगी थीं।
बेबीलॉन पर्यवेक्षण एवं सिद्धान्त ज्योतिष
भारतीय एवं बेबीलॉन ज्योतिष का एक और संभव संबंध यह है कि क्या बेबीलॉन जनों की विलक्षण पर्यवेक्षणीय परंपराएं क्या भारतीयों के लिए उपयोगी थीं। क्या आर्यभट द्वारा प्रयोग में ली गई ज्योतिष बाहर से उधार ली गई थी या भारत की ही परंपरा का एक हिस्सा थी। कुछ वर्ष पूर्व31 अभ्यंकर ने तर्क दिया, “आर्यभट के भग्न का मान संभवतः बेबीलॉन के ग्रह संबंधी डाटा से लिया गया।” किन्तु अभ्यंकर ने पेपर में अनेक विरोधाभासी दावे किए हैं, एक स्थान पर वह कहते हैं कि आर्यभट ने अपना स्वयं का पर्यवेक्षण से ही गणनाएं की एवं दूसरे स्थान पर लिखते हैं कि उन्होंने बिना समझे ही अंकों की नकल की एवं इस प्रक्रिया में अनेक अशुद्धियां कीं।
अपनी थ्यौरी के समर्थन में अभ्यंकर ने दावा करते हैं कि आर्यभट अपने प्रारंभिक बिन्दू के रूप में बेबीलॉन के 3600 वर्षों में 44528 संयुत मासों के मान का प्रयोग किया। किन्तु यह मान पहले से ही शतपथ वेदिका ज्योतिष का हिस्सा रहा है, जो सौर एवं चंद्र वर्षों में सामंजस्य के लिए 95 वर्षों के युग का प्रबंध करता है। इस अनुष्ठान में एक क्षेत्र में एक वेदिका का निर्माण किया जाता है, जो नक्षत्र अथवा तिथियों में चंद्र वर्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं, और इससे आगे बिल्कुल उसी खाके में एक और वेदिका बनाई जाती है, किन्तु वह आकार में बड़ी होती है (तिथियों में सौर वर्ष), किन्तु चूँकि यह बड़ी वेदिका बहुत बड़ी होती है, वेदिका का निर्माण 95 के अनुक्रम में निरंतर चलता रहता है। ऐसा प्रतीत होता है कि 360 तिथियों के चंद्र वर्ष में अधिमास जोड़कर संतोषप्रद सामंजस्य के कारण ही सौर वर्ष के 372 तिथियों में से एक निश्चित तिथियों की संख्या को घटाना संभव हो पाया, जिसका सर्वाधिक संभावित मान 95 वर्ष में 89 तिथियाँ है।32
वेदिकाओं का क्षेत्रफल 7.1/2 से प्रत्येक में बढ़ता हुआ 95 तक के अनुक्रम में 101.1/2 तक बढ़ जाता है। वेदिका का औसत आकार 54.1/2 होता है, जिससे यह तात्पर्य निकलता है कि चंद्र एवं सौर वर्षों में अंतर 54.1/2 के साथ एक ईकाई ली जाए, जो चंद्र वर्ष के 360 तिथियों हेतु 6.60 तिथियों के लगभग है।
95 वर्षों में 89 तिथियों के सुधार को ध्यान में रखते हुए वर्ष की संशोधित लंबाई 372-89/95= 371.06316 तिथियाँ है। चूँकि प्रत्येक चांद्रमास 30 तिथियों के पश्चात आता है, तो 3600 वर्षों में चांद्रमास की संख्या 44527.579 हैं। एक महायुग में यह संख्या 53,433.095 होगी। वास्तव में आर्यभट द्वारा चुनी गई संख्या (सारणी 4 की प्रथम पंक्ति) बेबीलॉन जनों द्वारा चुने गए 53,433,600 संख्या से कहीं अधिक समीप है। कोई भी कल्पना कर सकता है कि आर्यभट एक ऐसे तंत्र के निर्माण में लगे थे, जो पूर्व की वेदिका ज्योतिष तंत्र में एक प्रकार का संशोधन था।
सारणी 4 में अभ्यंकर द्वारा बेबीलॉन संख्या आर्यभट के नियतांकों के साथ दी गई है, जो कि संयुत चंद्र मासों एवं चंद्र आसंधि संबंधी क्रांति, चंद्र शिरोबिन्दु एवं ग्रहों से संबंधित है। इस पर ध्यान दिया जाए कि तथाकथित बेबीलॉन अंक किसी बेबीलॉन ग्रंथ से नहीं लिए गए हैं, बल्कि अभ्यंकर ने उनकी गणना विभिन्न बेबीलॉन नियतांकों पर तीन के नियम का पालन करते हुए की है।
सारणी 4 – पुनर्संगठित बेबीलॉन एवं आर्यभट पैमाने —
# | प्रकार | बेबीलॉन का | आर्यभट |
01. | संयुत चंद्र मास | 53433600 | 52433336 |
02. | चंद्र आसंधि | -232616 | -232352 |
03. | चंद्र शिरोबिन्दु | 486216 | 488219 |
04. | बुध (मर्करी) | 17937000 | 17937020 |
05. | शुक्र (वीनस) | 7022344 | 7022388 |
06. | मंगल (मार्स) | 2296900 | 2296824 |
07. | बृहस्पति (जूपिटर) | 364216 | 364224 |
08. | शनि (सैटर्न) | 146716 | 146564 |
हम देख सकते हैं कि कोई भी अंक में मेल नहीं है। अतः कैसे कोई भी यह दावा कर सकता है कि आर्यभट ने ये अंक बेबीलॉन से उधार लिए। अभ्यंकर कहते हैं कि ये अंक पृथक हैं क्योंकि उसने (आर्यभट) स्वयं के पर्यवेक्षण के आधार पर इनको दिया, जो कि “अधिक शुद्ध हैं।” किन्तु यदि आर्यभट के पास स्वयं का पर्यवेक्षण था तो उनके बेबीलॉन के अंकों की नकल उतारने का क्या मतलब था एवं उनको फिर काम में भी नहीं लिया।
कुछेक अंकों में तो भयानक असंगति है, जैसे कि चंद्र का शिरोबिन्दु संबंधित, जिसके बारे में अभ्यंकर कहते है कि ‘6 को 8 पढ़’ लेने की चूक के कारण यह हुआ। हालांकि यह उनके पिछले पेपर में दिए गए विचारों के विपरीत ठहरता है, जो यह कहता है कि आर्यभट का स्वयं का पर्यवेक्षण था – और आर्यभट के पास स्वयं का कोई डाटा नहीं था और उन्होंने अंकों को किसी बेबीलॉन से प्राप्त नियमावली के अनुसरण से प्राप्त किया।
आर्यभट द्वारा दिए गए अंक टॉलमी द्वारा दिए गए जैसे पश्चिमी अंकों से कहीं अधिक शुद्ध हैं।33 उपरोक्त सभी तर्कों को ध्यान में रखते हुए भी बेबीलॉन से अंकों को उधार लेने के सिद्धान्त पर विश्वास नहीं किया जा सकता।
अभ्यंकर आगे भी यह कहते हैं कि आर्यभट ने संभवतय अपने तंत्र के दो मुख्य केन्द्रीय गुण भी बेबीलॉन से ही उधार लिए हैं, जो हैं – 1. महायुग की संकल्पना एवं, 2. समय के किसी दूरस्थ युगारंभ में सभी ग्रहों के महायुति-ज्योतिष (mean superconjunction)
वास्तव में अभ्यंकर ने बेबीलॉन से इन दो प्रमुख विचारों के संचरण की पिंग्री34 और वैन डेर वीर्डन35 की पुरानी परिकल्पना ही प्रस्तुत की है। यहां हम दिखाने का प्रयत्न करेंगे कि ये दोनों विचार पहले से ही सिद्धान्तिक ज्योतिष में पहले से ही उपलब्ध थे एवं बेबीलॉन सारणी से कोई अवास्तविक संबंध जोड़ना एकदम अनावश्यक है।
ब्राह्मणों36 के वेदिका अनुष्ठानों में वेदिका के क्षेत्र से संबंधित अंक वर्ष की लंबाई से अनुरूपता रखते हैं। वेदांग ज्योतिष में 5 वर्ष के युग का वर्णन है, जहां केवल सूर्य एवं चंद्रमा की गतियां ही वर्णित हैं। शतपथ ब्राह्मण भी सूर्य की असंयमित गति के विषय में37 वर्णँन करता है, जिसके विषय में ग्रीक जन केवल लगभग 400 ईसापूर्व ही वार्ता करते हैं।
विशेषरूप से हमे केवल नाममात्र के 372 तिथियों के वर्ष, 324 तिथियों के नक्षत्र वर्ष एवं 371 तिथियों के सौर वर्ष के बारे में ही वर्णन मिलता है। यह तथ्य की 95 वर्ष में किसी संशोधन की आवश्यकता है, इस ओर इंगित करता है कि ये आंकड़ें अनुमान के आधार पर ही प्रस्तुत किए हुए माने गए हैं।
वेदिका अनुष्ठान में आदिम व्यक्ति ने 7.1/2 पुरुष का एक क्षेत्र बनाया, यद्यपि जब पुरुष को 360 वर्षों के बराबर माना गया, तो यह फिर से 2700 वर्षों के चक्र बन गया। सप्तर्षि चक्र को ही महायुति (सुपरकंजक्शन) से प्रारंभ होना एवं समापन होना माना गया है।
शतपथ ब्राह्मण 10.4.2.23-24 वर्णित करता है कि ऋग्वेद में 432000 अक्षर / शब्दांश (सिलेबल) हैं, यजुर्वेद में 288000 एवं सामवेद में 144000 हैं। इससे पता चलता है कि 3:2:1 के अनुपात में अपेक्षाकृत अधिक लंबे युगों के विषय में ज्ञान संहिताओं की संकल्पना के समय ही था।
चूँकि ऋग्वेद का लघुतम (नॉमिनल) का आकार 432000 अक्षर / शब्दांश (सिलेबल) माना गया है, हम अपेक्षाकृत लंबे युग की संकल्पना की ओर मोड़ दिए जाते हैं, क्योंकि ऋग्वेद सांकेतिक रूप से ब्रह्माण्ड का प्रतिनिधित्व करता है।
वान डेर वीर्डन38 ने अनुमान लगाया है कि एक अनगढ़ अधिचक्र (epicycle) सिद्धान्त का ज्ञान ग्रीक लोगों को प्लेटो के समय से ही था। उन्होंने यह भी सुझाया कि संभव है कि ऐसे सिद्धांत का ज्ञान बृहत्तर भारोपीय विश्व को प्रथम सहस्राब्दी ईसापूर्व के आरम्भिक वर्षों में रहा हो। भारोपीय संसार के प्राक् इतिहास के बारे में उभरते नये विचारों के आधार पर इस कालखण्ड को एक सहस्राब्दी और पीछे धकेलना संभव है। सम्भव है कि स्रोत के रूप में कोई एक ऐसा पुराना सिद्धांत रहा हो, जिससे ग्रीस एवं भारत में दो नितांत भिन्न प्रकार के अधिचक्र सम्बंधित प्रारूपों का विकास हुआ हो।
जैसा कि शतपथ ब्राह्मण के हमारे विश्लेषण से पता चलता है, ग्रहों के पर्यवेक्षण एवं उनसे सम्बंधित सिद्धांतों की एक स्वतंत्र परंपरा अस्तित्त्व में थी। उससे इस पहेली का उत्तर मिल जाता है कि आखिर सिद्धान्त कालीन भारतीय ज्योतिष विद्या ऐसे ढेरों स्थिराङ्कों का प्रयोग क्यों करती है, जो ग्रीकवासियों द्ववारा प्रयुक्त स्थिराङ्कों से भिन्न हैं।
संदर्भ :