Andropogon muricatus usira उशीर, तुम तो पुण्यगन्धा हो!
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का दृष्टासि … पिनद्धमञ्जरी
सीहाङ्गदा काञ्चिप्रमृष्टधारणी ।
कुशाग्ररक्ता सुपिनद्धकुण्डला
उशीरवर्णा प्रतिभाय शोभसि ॥
(महावस्तु, २.५९.५६)
कौन तुम मञ्जरीगुच्छ आभरणयुक्ता,
सिंहाकृति अङ्गद काञ्चिप्रमृष्टधारणी,
कुशाग्र-रक्त केशी सुनद्धकुण्डला,
उशीरमूल सी (पाटलवर्णी) सुशोभती?
बौद्ध संस्कृत ग्रंथ महावस्तु के मञ्जरी जातक में एक कथा आती है जिसमें शक्र(इंद्र) देव(त्रिदश)-सारथी मातली द्वारा महर्षि कौशिक के पास सुधा(अमृत) भेजते हैं जिसके आहार से क्षुधा, पिपासा, अरति, ज्वर आदि बारह सन्तापों से मुक्ति मिल जाती है। कौशिक उत्तर देते हैं कि यद्यपि मैं पहले अकेले आहार ग्रहण के पक्ष में था – भुजितु पूर्वे अदत्त्वा किंतु अब उसे ठीक नहीं मानता। ऐसा करने वाला सुख नहीं पाता – असविभागो हि सुख न विन्दति।
बिना बाँटे आहार करने वाला मित्रघातियों, पथभ्रष्टों, स्त्रीघातकों एवं धन अपहर्ता दस्युओं मत्सरियों के समान ही होता है। मैं अकेले अमृत का भी पान नहीं कर सकता!
मित्र औपायिक पारिपन्थिका स्त्रीघातका येऽपहरन्ति अर्थं।
सर्वेपि ते मत्सरिने समा मता प्राप्तं अदत्त्वा अमृतमपिनासे ॥
तब देवराज ने कौशिक के पास तप की आभा से शोभती अपनी चार कन्याओं, श्रद्धा, आशा, श्री (शिरी) एवं ह्री (हिरी), को अमृत का भाग प्राप्त करने को भेजा – प्रेषिता देवराजेन आत्मजा कन्या चरस्रो तपनीयसन्निभा।
उन चारों से कौशिक का जो सम्वाद हुआ हुआ, उपर्युक्त श्लोक उनमें से ह्री को सम्बोधित है। उक्त छंद अनेक सङ्केत लिये हुये है।
कुश को पवित्र माना गया है तथा एक पाठभेद कुशाग्र के स्थान पर कुशाग्नि है। दोनों से बौद्ध परम्परा में भी कुश एवं अग्नि की पवित्रता के स्वीकार का सङ्केत मिलता है।
कुश एवं दर्भ दो भिन्न श्रेणी की तृण वनस्पतियाँ हैं जो पवित्र मानी गई हैं। इनके बीच बहुत पुरातन काल से एक अभेद सी स्थिति भी रही अर्थात दर्भ को कुश नाम से भी लोग कह लेते थे। ऋतुचक्र के अनुसार दर्भ का वर्ण रक्त-स्वर्णिम सा हो जाता है (विस्तृत आलेख में यहाँ देखें)।
रक्तिम सुनहले केशों वाली देवकन्या के लिये ‘कुशाग्ररक्ता‘ या कुश अर्पित करने पर उठने वाली अग्नि की लपटों के समान ‘कुशाग्निरक्ता‘ शब्द प्रयोग ‘तपनीयसन्निभा‘ के साथ मिल कर अद्भुत चाक्षुष बिम्ब उपस्थित करता है। ह्री (मान-सम्मान) को पुष्पमञ्जरियों के आभरण से युक्त बताना सौंदर्य के साथ साथ यह भी दर्शाता है कि मनुष्य का सम्मान उसी प्रकार सुंदर, सुगंधित किंतु कोमल होता है।
बौद्ध परम्परा में सिंह की बड़ी महत्ता रही है। बुद्ध शाक्यसिंह हैं और धर्मचक्र को चार सिंह ही धारण करते हैं। संस्कृत ग्रंथ महावस्तु में सिंह हेतु ‘सीह‘ शब्द का प्रयोग एक पुरातन विकल्प को दर्शाता है जब सिंह की ‘हिंस्र‘ से वर्णविपर्ययमूलक व्युत्पत्ति रूढ़ नहीं हुई थी। श्री एवं ह्री हेतु क्रमश: शिरी एवं हिरी प्रयोग भी महत्त्वपूर्ण भाषिक सङ्केत हैं। ध्यान रहे कि महावस्तु पालि भाषा में नहीं, संस्कृत में है।
अब आते हैं Andropogon muricatus, usira, उशीर, Vetiver सुगंंधिमूल तृण पर जो कि प्राकृत व पाळि में ‘उसीर‘ है। इसका वैज्ञानिक नाम Andropogon muricatus है तथा इसे जनसामान्य ‘खस‘ के नाम से जानता है। जिस क्षेत्र में बुद्ध विचरते थे, हिमालय की तराई, अतिशय वर्षा व आर्द्रता वाला वह क्षेत्र वानस्पतिक एवं पाशव रूप से बहुत समृद्ध रहा है और बहुत ही उर्वर भी। उनकी वाणी में सहज ही उस समृद्धि से जुड़ी उपमायें व रूपक आ गये हैं जो बड़े ही सुंदर एवं अर्थगहन हैं। चीनी त्रिपिटक के द्वादशविहरण सूत्र में यह समृद्धि उल्लिखित है –
जम्बूद्वीप में मछलियों की ६४०० जातियाँ हैं, पक्षियों की ४५०० और पशुओं की २४००। वृक्षों की १०००० जातियाँ हैं, तृणों की ८०००, औषधियों की ७४० एवं सौगन्धिक पादपों की ४३।
उशीर / उसीर या खस भी एक सौगंधिक तृण है जिसकी जड़ सुगंधित होती है तथा बौद्ध मतावलम्बियों हेतु इसकी आसनी भी बड़ी पवित्र है।
संस्कृत वाङ्मय में सुलक्षणा सुंदरी हेतु बहुत ही सुंदर सम्बोधन विशेषण मिलता है – पुण्यगन्धा, जिसकी उपस्थिति मात्र से ही परिवेश पुण्यों की सुगंधि से भर उठे! महावस्तु में भी यशसा, यशस्विनी जैसों शब्दों सहित पाटला (Bignonia suaveolens) वृक्ष के साथ सुपुण्यगंधा शब्द का भी प्रयोग हुआ है – साला पियाला पनसा च तिंदुका शोभाञ्जना लोध्रा .. पाटला सुपुण्यगन्धा मुचिलिन्दका च।
स्त्री व वनस्पति के सौंदर्य गुणों के ऐक्य पर इस लघु चर्चा के पश्चात आते हैं उपर्युक्त छंद में उशीरवर्णा शब्दप्रयोग पर। उशीर की सद्य: खनी हुई जड़ का वर्ण कैसा होता है? किञ्चित लाली लिये हुए, कहते हैं न कि कन्या का वर्ण ऐसा जैसे मलाई के साथ लाली मिला दी गयी हो! उशीर की जड़ रंग में वैसी ही होती है, साथ में सुगंध भी मिला लें – पुण्यगंधा, इंद्र की आत्मजा ह्री उशीरवर्णा पुण्यगंधा हैं। सुजनों का सम्मान भी वैसा ही होता है न?
सूख चुके उसीर तृण की जड़ बीरण कहलाती थी, खस, जिसकी शय्या पर मृत देह लिटाई जाती थी, सम्मान दर्शाने की एक युक्ति कह सकते हैं – कालङ्कतञ्च नं बीरणत्थम्बके सुसाने छड्डेस्सन्ती’ति (दीघ निकाय, पथिकवग्गपाळि, ३.७)।
उशीर के बारे में यह सब जानने के पश्चात यह सुगंधमयी बुद्धवाणी कितनी अर्थगहन लगती है!
तं वो वदामि भद्दं वो, यावन्तेत्थ समागता।
तण्हाय मूलं खणथ, उसीरत्थोव बीरणं।
मा वो नळंव सोतोव, मारो भञ्जि पुनप्पुनं॥
(धम्मपद, ३३७)
इस कारण मैं तुम्हें, जितने भी यहाँ आये हो, तुम्हारे कल्याण के लिये कहता हूँ – जैसे खस के लिये लोग उसीर को खोदते हैं, वैसे ही तुम तृष्णा की जड़ खोदो। अपने को मार द्वारा बार बार उस प्रकार भञ्जित न होने दो जैसे बाढ़ नळ को करती है।
नळ उस धरा पर बहुलता से होने वाला तृण है जिस पर कभी बुद्ध भ्रमण करते थे। उसकी जड़ें बहुत दूर तक पहुँचती हैं। अगले अङ्क में भी तो कुछ जानना है न?
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