अल्पकालिक हो या दीर्घकालिक, जीर्ण हो या त्वरित; किसी भी समस्या से निपटने या उसके समाधान हेतु जो कुछ किया जाता है, वह व्यक्ति, समूह या तन्त्र में अन्तर्निहित उसकी सकल निर्मिति पर निर्भर होता है तथा परिणाम की गति व दिशा भी उसी पर निर्भर होते हैं। निर्मिति मूल मान्यताओं, मूल्यों, प्राथमिकताओं और प्रवृत्ति की देन होती है जो एक दिन में नहीं बन जाती, दीर्घकालिक सम्यक सतत कर्म की देन होती है। चरित्र महत्त्वपूर्ण होता है।
कर्म या अभियान क्रियात्मक होंगे या प्रतिक्रियात्मक, यह भी ऊपर लिखे पर ही निर्भर होता है। यदि मूल में दोष नहीं होगा तो परिणाम के अनुकूल न होने या अप्रभावी होने की प्रायिकता बहुत ही घट जाती है। क्रियात्मक अभियान मौलिक समाधान पर निष्ठा के साथ केन्द्रित होते हैं जबकि प्रतिक्रियात्मक अभियान तात्कालिक, कृत्रिम व आवरणी समाधानों पर। प्रतिक्रियात्मक अभियानों के पूर्व या तो स्थायी समाधान हेतु विचार विमर्श किया ही नहीं जाता या छिछले ढंग से किया जाता है जिसका उद्देश्य बहुधा आग की ताप के अनुभव को मिटाना होता है, उसे बुझाना नहीं।
अभारतीय आक्रामक अब्राहमी मतों के नितान्त हानिकारक व विघटक अभियानों से निपटने हेतु कुछ सरकारों द्वारा जो कुछ किया जा रहा है, वह बहुत प्रभावी नहीं होने वाला क्योंकि वह स्थायी समाधान पर केन्द्रित ही नहीं है । यौन-जिहाद को जिसने भी love jihad नाम दिया हो, नाम भ्रामक है और जाल में फँसाने वाला भी। यौवन में काम व प्रेमभाव स्वाभाविक होते हैं, मैथुन परिणति का एक अंश मात्र । देह व मन की मैथुनेच्छा का दोहन कर युवतियों को जिहादी सपोलों को उत्पन्न करने वाली मशीन बनाने व देह व्यापार द्वारा जिहाद हेतु संसाधन उपलब्ध कराने का स्रोत बनाने वाले दीर्घकालिक कुचक्र के नामकरण में love अर्थात प्रेम शब्द का प्रयोग आत्मघाती है।
विकृत शिक्षातन्त्र में शिक्षित युवजन प्रेम व चयन की स्वतन्त्रता को ले कर अतिरिक्त रूप से संवेदी होते हैं। ऐसे में यह नामकरण मूल समस्या से ध्यान हटा कर उन्हें औपचारिक उपायों के विरुद्ध बनायेगा। इसके विपरीत यौन–जिहाद शब्द का प्रयोग स्पष्टत: उस अन्धत्व व आत्महन्ता प्रवृत्ति को लक्षित करता है जो यौन अंगों के मिलन के उन्माद को ही सब कुछ मान कर अन्धकूप में कुदा देती है। अत:, सामान्य संवाद में लव-जिहाद के स्थान पर यौन-जिहाद शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिये।
यौन-जिहाद के विरुद्ध जो भी विधिक प्रावधान किये जा रहे हैं, वे प्रतिक्रियात्मक होने व तन्त्र में निहित विविध विकृतियों के चलते कुछ विशेष सफल नहीं होने। तोड़ व काट निकाल ही लिये जायेंगे क्योंकि समस्या के मूल पर आघात हो ही नहीं रहा! अल्पसंख्यकवाद के कारण अब्राहमी मतों को विशेष संरक्षण प्राप्त हैं। विधान को विकृत कर उसमें सेकुलर व समाजवाद जोड़े गये जोकि निर्माताओं के उद्देश्य ही नहीं थे! आगे सेकुलर का अर्थ कथित अल्पसंख्यकों को विशेष सुविधायें व शक्तियाँ देना हो गया। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड एक उदाहरण है।
भारत की आवश्यकता ‘दूसरा विधान’ है। किन्तु जब तक विकृत शिक्षा से मुक्त एक दो पीढ़ियाँ बीत नहीं जातीं, ऐसा करना सम्भव नहीं। ‘दूसरा विधान’ शिक्षातन्त्र सुधार के साथ जुड़ा हुआ है। उसकी आवश्यकता की समझ, उसके लिये सक्रिय अभियान और अनुकूल परिणाम तब ही सम्भव होंगे जब वर्तमान शैक्षिक तन्त्र आमूल चूल परिवर्तित नहीं हो जाता और न्यूनतम एक वयस्क पीढ़ी उससे नहीं शिक्षित हो जाती। उसके लिये अभी से लगना होगा। दुर्भाग्य से कथित नयी शिक्षा नीति इस दिशा में बनाई गई प्रतीत नहीं होती क्योंकि बनाने वाले भी उसी पुराने ‘सेकुलर डेमोक्रेटिक’ तन्त्र की देन हैं जो घेरे से बाहर सोच नहीं पाये और प्रतिक्रियात्मक होने के कारण आमूल चूल परिवर्तन के भीतर से विरोधी भी हैं।
तो क्या किया जाना चाहिये?
आगे के वर्ष संक्रमण के होने चाहिये जिसमें सेकुलरिज्म के नाम पर अल्पसंख्यकवाद को नष्ट किया जाय। विधान की प्रस्तावना को अग्रहायण शुक्ल ७, २००६ वि. के मूल रूप में लाया जाय जिससे सेकुलर व सोसलिस्ट शब्दों का विधान से तिरोहण हो सके, इनकी विशिष्ट वैधता समाप्त हो सके जिस पर कि भारत के जिहादी व मसीही अधिग्रहण का पूरा तन्त्र खड़ा है।
अल्पसंख्यक मन्त्रालय, पर्सनल लॉ बोर्ड आदि समाप्त किये जायें तथा अल्पसंख्यक की परिभाषा सुनिश्चित की जाय जो सकल जनसंख्या का मात्र दो प्रतिशत हो। सहस्रो करोड़ की वह बन्दरबाँट समाप्त हो जो भारतघातियों के प्रवर्धन व संरक्षण में लग रही है। ऐसा कौन सा दूसरा देश होगा जो अपने नागरिक करदाताओं से की गयी उगाही का उपयोग परोक्ष रूप से उन्हीं के विनाश अभियान हेतु करता हो?
विदेशों से आ रहे धन पर प्रभावी रोक भी लगानी होगी, साथ ही पर्यटन की अनुमति ले भारत में घुस कर मतान्तरण कर करा रहे मिशनरियों पर कठोर कार्रवाई भी करनी होगी। राजनयिक व कूटनीतिक पग बढ़ा इसे अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसी समस्या के रूप में बारम्बार उछालना होगा जो राष्ट्र की आन्तरिक सुरक्षा व सम्प्रभुता हेतु अति घातक है। निर्मम हो कर दोषियों को दण्डित करना होगा जिससे कि स्पष्ट सन्देश जाये।
ऊपर बताये गये उपाय अब्राहमी षड्यन्त्रों की जड़ो़ं पर प्रहार करेंगे। उन्हें मिलने वाले खाद, पानी और धन पर बड़ा विराम लगेगा। इन सबके साथ यदि यौन-जिहाद के विरुद्ध विधिक प्रावधान होंगे तो वे सफल होंगे अन्यथा सिवाय खानापूरी और मानसिक तुष्टिमात्र के इतर कुछ नहीं होना जाना! स्पष्ट है कि संघीय तन्त्र को नेतृत्त्व करना होगा। प्रान्तों की बिखरी पहलें बहुत प्रभावी नहीं होनीं!
निश्चितता के साथ कहा जा सकता है कि आपके विचार अत्यधिक यथार्थपूर्ण एवं संवेदना से परिपूर्ण है…परंतु जब तक हम अधकचरे, अविकसित, संस्कृति से दूर होती ज्ञानार्जन शैली को अपनाये रहेंगे तब तक तो विवेकशील, राष्ट्र एवं विश्व के कल्याण हेतु मानव सम्पदा का निर्माण तो कतई संभव नहीं है…और हम अपनी ही जड़ों से दूर होते जायेंगे, अब्राह्मिक धर्म को मानने वाले चाहे अपने पक्ष में कितने ही तर्क दें परंतु हमारा कर्तव्य है कि अपने बच्चों को इनके धूर्तता और स्याह पक्ष को उजागर करें और प्रसार भी करें…