प्रत्येक वर्ष प्रतिपदा चै. शु. 1 युगादि नवसंवत्सर आता है, प्रत्येक वर्ष बैसाखी भी आती है जिसे देश के कई भागों में विविध नामों से नववर्ष के रूप में मनाया जाता है।
प्रत्येक वर्ष बहुत से लोग यह प्रश्न भी पूछते हैं कि यह क्या चक्कर है? कुछ पञ्चाङ्ग एवं पण्डितों को कोसने भी लगते हैं।
कोई चक्कर वक्कर नहीं है बल्कि अनेक नववर्ष भारत की प्राचीनता एवं रंग बिरंगे वैविध्य के प्रमाण हैं।
वर्ष का सम्बंध पृथ्वी से दिखती सूर्य की आभासी वार्षिक गति, ऋतुओं एवं कृषि चक्र तथा उससे जुड़े व्यवसायों से है। उत्तरी गोलार्द्ध में सूर्य जब अपने अधिकतम दक्षिणी झुकाव पर होते हैं तो सबसे लघु दिन एवं सबसे तिर्यक किरणपात के कारण जाड़े का समय अपने चरम पर होता है। दक्षिण से उत्तर की ओर चढ़ने लगते हैं तो ऋतु की कठोरता के क्रमश: लुप्त होने की आस बँधती है – नवजीवन, शीत मृत्यु है, ऊष्मा प्राण। प्रेक्षण की दृष्टि से भी वह समय बहुत उपयुक्त रहता है। इन सब कारणों से कभी उत्तरायण के समय ही नववर्ष होता था, पुराने समय के माघ मास में। जो भी कैलेण्डर पूर्णत: सौर गति पर आधारित होगा उसमें यह घटना एक निश्चित दिनाङ्क को होगी, आज कल 21/22 दिसम्बर।
हुआ क्या कि जब लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले हमने नक्षत्र पद्धति के साथ राशि पद्धति अपनायी तो उत्तरायण संक्रांति अर्थात मकर राशि वाले क्षेत्र में सूर्य के प्रवेश से जोड़ दिया गया। लट्टू की भाँति घूमती पृथ्वी की उत्तर दिशा की किसी नक्षत्र या तारे की सीध लगभग 25792 वर्ष की लम्बी आवृत्ति से दोलन करती रहती है।
इस कारण संक्रांति एवं उत्तरायण का सम्पात समाप्त होता गया, आज 24 दिनों का अंतर आ गया है। 14 जनवरी को संक्रांति तो मनायी जाती है किंतु वह उत्तरायण से 24 दिनों के अंतर पर होती है।
एक दूसरा नववर्ष वसंत ऋतु में होता है जबकि समूची धरा नवरस नववसन धारण कर रही होती है। उस ऋतु में कभी वेदाध्यायी वटुकों का उपनयन किया जाता था, श्रौत सत्र नये पुराने किये जाते थे। 22 दिसम्बर से बढ़ते हुये जब सूर्य आज के 20/21 मार्च तक पहुँचते हैं तो दिन रात लगभग सम हो जाते हैं, ठीक पूरब में उदय, ठीक पश्चिम में अस्त। ऐसा दिन नववर्ष के लिये उत्तम माना गया – वसंत विषुव, आजकल महाविषुव भी कहते हैं।
समस्या यह हुई कि चंदामामा की गति से चलने वाले मास नाम सौर-चंद्र पञ्चाङ्ग की देन थे। अपनी कलाओं में घटते बढ़ते चंद्रमा तिथि के लिये आकाश में वैसे ही कैलेण्डर की भाँति थे जैसे आज कल घर की भीति पर टँगा कैलेण्डर होता है। उसके निकट की शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को नववर्ष का आरम्भ माना गया जोकि प्रेक्षण एवं आनुष्ठानिक कारणों से भी उपयुक्त था। वही हुआ युगादि, गुड़ी पड़वा, चैत्र नवसंवत्सर का प्रथम दिन।
ऐसे में सौर कैलेण्डर वाले कैसे पीछे रहते? उन्होंने कहा, न जी, हम तो उसके निकट की सूर्य संक्रांति से नववर्ष मानेंगे। उसके निकट की संक्रांति हुई मेष संक्रांति अर्थात जिस दिन सूर्य मीन राशि से मेष राशि में प्रवेश करते दिखें। प्राचीनकाल होता तो ठीक वही दिन विषुव का दिन मनाते किंतु अब पुन: 24 दिनों का अंतर हो गया। बैसाखी प्रत्येक वर्ष आज के 13 अप्रैल को ही पड़ती है, सतुवान भी 13/14 अप्रैल को, 20/21 मार्च से लगभग 24 दिन पश्चात जिसका कि चंद्रगति से कोई सम्बन्ध नहीं।
जनस्मृति में अब भी उत्तरायण एवं विषुव, बीसू, बीहू आदि बने हुये हैं जो वस्तुत: संक्रांतियों से प्रतिस्थापित हो चुके हैं।
आज के इस अङ्क में अरुण उपाध्याय जी के एक चित्रमय आलेख में भारतीय पञ्चाङ्ग, कैलेण्डर आदि के समस्त मूलभूत तथ्य एक स्थान पर रख दिये गये हैं, अवश्य पढ़ें।
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॥जय जामदग्नेय राम॥