चार दिन का है खेला रे; को नृप होंहि हमहिं का हानी को जीते हम दीर्घ लाभ नहीं देखते। संसार के किसी भी वाङ्मय में ऐसा कुछ भी अनूठा नहीं है जो हमारे यहाँ नहीं।
किसी हिन्दी साहित्यकार ने लिखा है कि होलिका जला कर हम वसंत की बिगड़ी बयार को शुद्ध करते हैं। ‘वसंत की बिगड़ी बयार’ किञ्चित उलझाने वाला प्रयोग है, यद्यपि इसकी व्याख्या उपलब्ध है।
कुछ ही दिनों में हम अपनी नयी लोकसभा को चुनने हेतु मतदान करेंगे। राजनीतिक प्रचारों का रव एवं भदेसपन बढ़ता ही चला जायेगा, विकृतियों के प्रदर्शन एवं प्रयोग से वातावरण कलुषित हो उठेगा। छल, बल, प्रलोभन आदि के प्रयोग द्वारा येन केन प्रकारेण चुनाव जीतने के सफल-असफल प्रयास भी होंगे तथा इन सबके बीच हम पुन: एक नयी सरकार चुन लेंगे। संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र की परिपक्वता एवं वहाँ की जनता का गुणगान भी विविध मञ्चों पर होगा। हम वास्तव में विजयी होंगे किंतु क्या ऐसी विजय ही पर्याप्त है या होगी?
पुलवामा के जिहादी आक्रमण में निहत हुये योद्धाओं की स्मृति एवं उस घटना से उठे लोकाक्रोश से ले कर आगत नवसम्वत्सर एवं नवरात्र पर्व के समान्तर होने वाले युगीन लोकपर्व की समाप्ति का कालखण्ड आधुनिक भारत के इतिहास का सम्भवत: सबसे महत्त्वपूर्ण चरण होगा। अच्छी, बहुसंख्यक हित की काम करने वाली स्पष्ट बहुमत की सरकार चुन ली गयी तो अच्छा ही होगा किन्तु यदि ऐसा नहीं हुआ तो क्या होगा?
मेरा ध्यान ‘वसंत की बिगड़ी बयार’ एवं उससे जुड़ी अग्निशोधन परम्परा पर जाता है। लगता है कि हमारी दीर्घजीविता एवं ‘हिंदू विकास दर’ के होते हुये भी हमारी ‘प्रतिष्ठा’ के बने रहने में हमारी इसी सोच का दाय है जिसमें हम सब स्वीकार कर लेते हैं, इतने समावेशी कि हमारे यहाँ भौतिक क्रांति असम्भव है तथा आध्यात्मिक क्रांति, बहुधा भ्रम पगी हो कर भी, पल पल घटित होती है।
‘कितने आये, कितने चले गये, हम ऐसे ही बने हुये हैं’ – यह वाक्य अनुभव जनित आत्मविश्वास को तो दर्शाता है किंतु उससे भी अधिक तीक्ष्णता से हमारे आत्ममुग्ध आत्महंता स्वभाव को रेखांकित करता है। दैनिक बलिवैश्व द्वारा प्रत्येक प्राणी की चिंता करती सभ्यता का यह रूप बहुत ही उलझाता है- एक विरक्त, निर्वेदी एवं प्रशांत सा भाव सम्पूर्ण अस्तित्त्व को अपने लपेटे में लेता चला जाता है कि क्या रखा है ऐसी बातों में, जीवन चार दिन का है खेला रे सबको जाना है!
विचित्र हैं हम अपनी गढ़न में।
हमारा वसन्त विद्या की देवी सरस्वती की आराधना से प्रारम्भ होता है जिसे हम मधुमास से माधव तक ले जाने में भी नहीं चूकते! बीच में बिगड़ने के गर्त तक पहुँच कर हम होली खेलते हैं, होलिका जलाते हैं तथा पक्ष भर विराम दे देवी दुर्गा के संहारक रूप की आराधना में लग जाते हैं। देवी की विदाई होती है तो मर्यादा पुरुषोत्तम राम का अवतरण भी साथ साथ हो जाता है। सरस्वती से ले कर सीतापति तक, कामपर्व, कामदहन, योगीश विवाह, कुमारी दुर्गा … हम जाने कितनी परास रखते हैं, हमारा जीव जाने कितनों आयामों में एक साथ रहता है किंतु हम अपनी नाक के नीचे घटते को या तो देख नहीं पाते या देखते हुये भी उसकी उपेक्षा करते हैं। ‘चार दिन का है खेला रे’ एवं ‘को नृप होंहि हमहिं का हानी’ को साथ साथ जीते हम कभी दीर्घ ‘लाभ’ की नहीं सोचते।
संसार के किसी भी वाङ्मय में ऐसा कुछ भी अनूठा नहीं है जो हमारे यहाँ नहीं है। हमारी समस्या नवोन्मेष की है, काल के अनुसार अपने को परिवर्तित करने की है तथा हमारे पास समय ही नहीं है!
बड़ा ही भट्ठर सा रूप है हमारा। यह भट्ठर भी किसी साहित्यकार का ही किया गया प्रयोग है, जिस मन:स्थिति की अभिव्यक्ति ही न हो सके, उसके लिये प्रयुक्त हुआ है। जाने उन्हें इस शब्द की प्रेरणा कहाँ से मिली?
निर्वेद, उदासीनता एवं आत्ममुग्ध तृप्ति से बहुत ऊँचे उठ कर सोचना एवं करना होगा। आगामी दो महीने कठिन परीक्षा के हैं। संगठित जन के रूप में, एक राष्ट्र के रूप में, एक उभरती हुई वैश्विक शक्ति के रूप में हम कुन्दन बन निकलें, हमारा कर्म केवल हमारे लिये ही नहीं, समस्त विश्व हेतु हितकारी हो, इससे अधिक आज पर्व के दिन क्या कामना की जा सकती है जब कि वसंतविषुव का सम भी साथ है?
आगत अग्निपरीक्षा में होलिका को जलायें तथा प्रह्लाद को बचायें।
न भूलें कि आज उन योद्धाओं के घर उल्लासरहित होंगे जो बिना लड़े ही आतंकी आक्रमण की भेंट चढ़ गये। एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है, अभी तो केवल ‘अस्थायी संतुलन’ मात्र है, समर शेष है। सन्नद्ध हो रहें।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने अपने निबन्ध “भारतवर्षोन्नति कैसे हो” में यह बात कही थी।
साधुवाद… इससे ज्यादा मेरी औकात नही….