pakistan zindabad jihad
जाङ्गल लघु ग्राम के किनारे स्थित एक कुटिया में वृद्धा ने खिचड़ी की बटलोई चूल्हे से उतारी ही थी कि चेंचरा पर खट-खट हुई। किसी जङ्गली मार्जार की सोच वृद्धा ने हाथ में लुकाठा लिया और द्वार तक आई। मंद प्रकाश मे दो दीन जन खड़े दिखे, वदन से ही लग रहा था कि भूखे थे। देह से आती गंध बता रही थी कि बहुत स्वेद बहा कर वहाँ पहुँचे थे।
अतिथि?
वृद्धा ने चेंचरा हटा भीतर आने को संकेत किया। उनमें से एक युवा ने भीतर आ कर भुँइया बैठते ही याचना की, माता, तीन दिनों से अन्न का एक कण तक नहीं मिला, क्षुधा तृप्त करो। साथ का वृद्ध मौन था किंतु उसकी वनैली आँखों से उसकी भूख का अनुमान सहज हो जाता था। वृद्धा ने मटके की ओर संकेत किया कि मुँह हाथ धो लो और दो बिठैइयों के आगे कदलीपात लगा दी। उसने सद्य: उतरी अति ऊष्ण खिचड़ी के दो विषम भाग पत्तों पर परोस दिये, अन्न पाओ। वृद्ध अभी देख ही रहा था कि युवा ने लप्प से खिचड़ी के मध्य भाग में हाथ डाल दिया और जली अंगुलियों को पल भर में ही बाहर खींच सी सी करने लगा। वृद्ध ने उसे कठोर दृष्टि से देखा और वृद्धा के पोपले मुख पर मातृत्व का हास उभर उठा – तुम तो चंद्रगुप्त की भाँति उतावले हो पुत्र!
वृद्ध की आँखें क्षण भर को भभक कर शांत हो गईं किंतु युवक का मुँह खुला का खुला रह गया, संयत हो उसने पूछा – कौन है चंद्रगुप्त? क्या कर दिया उसने? वृद्धा ने उच्छवास भरा, है एक पगला योद्धा। वह और उसका एक मूर्ख गुरु प्रतापी मगध की राजसत्ता हथियाना चाहते हैं। सीधे राजधानी पर आक्रमण करते हैं और पिट पिटा कर पलायन कर जाते हैं। उन्हें इतनी भी समझ नहीं कि आक्रमण सदैव सीमांत से किया जाना चाहिये, जहाँ प्रतिरोध या तो तनु होता है या अल्पजीवी।
तुमने भी वही किया, खिचड़ी केंद्र में अति ऊष्ण होती है, सीधे वहीं हाथ डालोगे तो जलोगे ही! किनारे से आरम्भ करो धीरे धीरे, वहाँ खिचड़ी सहने योग्य होगी। वृद्ध की आँखें हिंस्र जंतु सी चमक उठीं किंतु तुरंत प्रकृतिस्थ हो उसने मौन ही भोजन समाप्त किया। विदा लेने से पूर्व उसने वृद्धा को साष्टाङ्ग प्रणाम किया। वृद्धा आश्चर्य से भरी उन्हें अंधेरे में लुप्त होती देखती रह गई। उक्त घटना आगामी क्रांतिकारी परिवर्तन का अंश आधार हुई।…
… इस कथा की सामरिक समझ पर सबने ध्यान दिया है किंतु जिस पर ध्यान नहीं गया है, वह है दिक्काल का विशिष्ट सूक्ष्म आयाम। मकड़ी, चींटियों के प्रेक्षण से जुड़ी ऐसी अन्य कथायें भी उपलब्ध हैं जिनकी सामरिक व नैतिक सीखों पर लिखा जाता है किंतु सूक्ष्म कारकों की विशिष्टता आँखों से ओझल ही रहती है। मानव मन परिणाम प्रिय होता है, प्रक्रिया या घटित की भूमा से उसे लगाव नहीं होता। जो बुद्धिमान होते हैं, उनकी दृष्टि शिक्षा से, परिणामों से या लघु प्रेरक प्रसंगों के आकर्षण से बहुत आगे तक जाती है। वे मनोरञ्जन या केवल घटित मान कर भूल नहीं जाते।
भारत आज सांस्कृतिक संकट में है। वह संकट दृष्टि का है। मानव नेत्र की रेटिना मस्तिष्क का ही प्रसार होती है, मस्तिष्क यदि विशेष स्थिति प्राप्त कर चुका हो तो दिखते हुये भी नहीं दिखता। वह विश्लेषण नहीं कर पाता, कर लिया तो कर्मरत नहीं हो पाता, कर्मरत हुआ तो परिणाम तक पहुँच नहीं पाता, परिणाम मिल भी गया तो वांछित नहीं होता।
विश्वविद्यालयों से निस्सृत टुकड़े-टुकड़े करने का उद्घोष हो या सार्वजनिक मञ्च से पाकिस्तान जिंदाबाद का, भारत केवल क्षण या घटना विशेष एवं उसके शमन हेतु किये गये उपायों पर ही सीमित रहता है। उसे यह समझ में आता ही नहीं कि पाकिस्तान जिंदाबाद और मुम्बई पर आक्रमणकारी कसाब एक ही हैं। उसे दिखता ही नहीं कि अल्ला हू अकबर हो या नारा ए तदबीर, पिछली चौदह शताब्दियों से आक्रमण एक ही है, आक्रांता भी एक ही हैं। जब ये एक हैं तो परिणाम भी वही रहना है, भले दशकों पश्चात हो, उसे दिखता ही नहीं।
विचित्र स्थिति है। कलन गणित के विद्यार्थी जानते हैं कि चाहे जैसी वक्र रेखा हो, वृत्त हो या कोई अन्य आकृति, Δx➜0 अर्थात अति लघु दूरी की स्थिति में सरल रेखा ही दिखती है। Δt➜0 अर्थात क्षणसूक्ष्म समय में वक्रीय पथ पर चलने वाले को सरल रेखा सी ही अनुभूति होती है किंतु वही सरल शून्यवत लघु खण्ड अपने में पूरी वक्र रेखा को समाहित किये होता है। सरल सीधी रेखा दिखते समानधर्मा अतिलघुखण्ड जब समीकृत होते हैं, एकत्र होते हैं तो टेंढ़ी, वक्र रेखा का निर्माण करते हैं। आश्चर्य की ही बात है कि पूरब हो या पश्चिम, मेधावी जन कलन गणित को सांस्कृतिक संघर्षों पर लगाने की सोच ही नहीं रहे! क्यों है ऐसा? क्या है यह?
संस्कृतियाँ अपने विनाश स्वयं लिखती हैं। अति उदारता एवं औचित्य में पड़ कर वे ऐसी शैक्षिक व सामाजिक पारिस्थितिकी बनाती हैं जिसमें कतिपय ‘पवित्र’ सीमाओं का उल्लङ्घन कर सोचना भी निषिद्ध होता है। अपने से पुराने समाज की जिन ‘पाप अवधारणाओं’ पर वे हँसती हैं, उन्हें पिछड़ा बताती हैं; उन्हीं के समांतर पाप-पुण्य की भिन्ननामा पारिस्थितिकी का निर्माण बहुत ही समर्पण के साथ करती हैं तथा उनका अनुपालन येन-केन प्रकारेण सुनिश्चित करती हैं। उनके विधानों एवं मजहबों की किताबों की बातों में अद्भुत समानता होती है — दो नितान्त विपरीत तत्वों की घूर्णन सममिति। समझना हो तो संविधान व कुरान को साथ-साथ देखें। सत्य उद्घाटित होगा। आश्चर्य नहीं कि जहाँ आक्रांता कुरान को आगे रखते हैं, वहीं उनके आंदोलनकारी हरावल दस्ते संविधान को। इस तिलस्म को न तो समझा गया है और न ही इसकी तोड़ हेतु कुछ किया गया है या किया जा रहा है। मस्तिष्क ही वह भूमि है जिसमें विचारों के बीज पड़ते हैं। भूमि ही बञ्जर हो और बीज निस्सार तो कुछ नहीं हो सकता न!
हम क्षण व लघुता को जोड़ कर आगे बढ़ाना भूल गये हैं। वैधानिक औचित्य के पथबाधक भौतिक तो हैं ही किंतु उनसे कहीं बहुत बड़े और प्रभावी बाधक हमारे चिंतनपथ पर स्थापित हैं और वे एक नहीं हैं, अनेक हैं, बहुरूप हैं, विविध आकार प्रकार के हैं। उनके बीच के अंश हमें सीधी सरल रेखा प्रतीत होते हैं, एक दूसरे से असम्पृक्त लगते हैं। वही Δx एवं Δt के आभासी शून्य मान हमें भोथर किये हुये हैं। और उनके पार हो जोड़ने की, वक्र रेखाओं को देख पाने की, उन्हें सरल कर पाने या तिरोहित कर पाने की प्रक्रिया बहुत ही पीड़ादायक और असुविधाजनक है। प्रश्न यथावत है कि भारत हो या शेष संसार, जिहाद पर कलन गणित का प्रयोग कब होगा? कब??