Acid attack अम्ल हिंसा तो थी ही, अचानक ही एक नये प्रकार की हिंसा बढ़ती दिख रही है – जीवित मनुष्य को आग लगा देना! प्रतिशोध हो या शत्रुता हो, इस प्रकार की घटनाओं का बढ़ना सामाजिक क्षरण व जन में व्यक्तिगत मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं से जुड़ता है। क्रोध की ऐसी स्थिति कैसे हो जाती है कि उसमें जीवन छीनने के साथ असह्य यातना देनी भी जुड़ जाती है? हम किस दिशा में बढ़ रहे हैं?
अग्नि जीवन का चिह्न मानी जाती है। जब तक देह में ताप है, जीवन है। कुछ प्राणी अग्नि को बचाने हेतु ही शीतनिद्रा में चले जाते हैं। भावनाओं एवं दैहिक समस्याओं को भी अग्नि से जोड़ कर देखा जाता रहा है। क्रोध से जल उठना लक्षणा प्रयोग है ही, उर दाह, पेट में जलन, विरह का ताप, मन्दाग्नि, जठराग्नि, संताप, कामाग्नि जैसे प्रयोगों पर भी ध्यान अपेक्षित है। देखें तो ये प्रयोग अग्नि या उसके विविध रूपों के जीवन से सीधे जुड़ाव से आते हैं। देह में सङ्क्रमण होने पर ज्वर हो ताप बढ़ जाना भी देह की प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा ‘जीवनमित्र अग्नि’ का ही प्रयोग है। बहुत प्राचीन समय से ही अग्नि से जीवन के प्रगाढ़ सम्बन्ध को समझा जाता रहा है। ऋग्वेद के अधिकांश मण्डलों का आरम्भ अग्नि देवता से सम्बंधित ऋचाओं से है जहाँ अग्नि सर्वहितकारी पुरोहित भी है।
अग्नि का एक नाम पावक भी है, पावन कर देने वाला। रसोई के दूषित पात्रों को अग्नि द्वारा शुद्ध किया जाता है। दूषण को मृत्यु से सम्बंधित जानें जिसे अग्नि दूर करती है। देह से जीवन निकल जाने पर उसे अग्नि को समर्पित करने में भी सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक अर्थ छिपे हैं।
अग्नि निकष भी रही है। अग्नि की साक्षी में विवाह संस्कार होते हैं, अग्नि की साक्षी में मैत्री सम्बंध भी बनाये जाते थे। साथ ही किसी से सच, झूठ या चरित्र की परीक्षा हेतु भी विविध अग्नि रूपों का उपयोग पुरातन मानव समाज करता रहा है।
अग्नि का दण्ड रूप भी स्मृतियों में जघन्य अपराधों हेतु मिलता है। निषिद्ध यौन सम्बंध, अगम्य गमन के दण्ड स्वरूप रक्ततप्त लोहे की खाट पर सोने या रक्ततप्त लौह स्त्रीप्रतिमा के आलिङ्गन का दण्डविधान मिलता है। ब्राह्मण यदि मदिरा पी ले तो शुद्धि हेतु खौलते हुये द्रव के पान का विधान है जिसे करने पर कोई भी मृत्यु से बच नहीं सकता। एक कथा कुमारिल भट्ट की भी मिलती ही है जिन्होंने गुरुद्रोह के अपराध के प्रायश्चित स्वरूप तुषाग्नि, जलते हुये भूसे के ढेर में बैठ कर प्राण त्याग देने का उद्योग किया था।
उक्त समस्त पुरातन प्रयोगों में अग्नि के भीषण रूप का उपयोग है, जो जीवनदायी है, उसे जीवन समर्पित कर देने का भाव अन्तर्निहित तो है किंतु मुख्य कारण जीवित ही जलने की दारुण पीड़ा व त्रास को भोगना ही है। यह रेखाङ्कित करने की आवश्यकता ही नहीं कि जघन्यतम अपराधों हेतु ही ऐसे दण्ड या प्रायश्चित विधान थे।
आधुनिक समय में ऐसे दण्ड कोई सोच भी नहीं सकता किंतु मानव मन के किसी कोने में अग्नि का भीषण पीड़ादायी रूप सदैव रहता है। यह सहस्राब्दियों पुराना वह गुणसूत्रीय लेख है जिसका ककहरा प्रथम बार आग का उपयोग करते समय हाथ के जलने की पीड़ा से निस्सृत हुआ होगा। किसी भी प्रकार की परपीड़ा समान अधम कर्म तो है ही नहीं किंतु एक सहज निषेध की भाँति मानव मन पर टङ्कित होना ही चाहिये कि किसी को भी जीवित ही जला देने की पीड़ा कदापि नहीं दी जानी चाहिये। पहले दहेज हत्याओं में जीवित जला देने की घटनायें होती थीं, थम गईं। उनका होना यह प्रमाण था कि मानवद्रोह के चरम बिंदु पर मनुष्य आग ढूँढ़ता है जिससे कि वह शत्रु को पीड़ित कर सके। आग पीड़ा देने का सबसे सुलभ एवं धनदक्ष उपाय है।
अब ऐसा क्या हो गया जो जीवित जला देने की घटनायें अधिक सुनाई देने लगी हैं। कहीं वे जनसाधारण में मौन ही पसरती किसी घातक विकृति की सङ्केतक तो नहीं? इस पर समाजशास्त्रियों एवं व्यवहारविदों को विचार करना चाहिये।
हमारा समय ‘अवमुक्त’ समय है। अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता के नाम पर, व्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर सामाजिक एवं धार्मिक निषेध बहुत तनु होते गये हैं। कहीं न कहीं हम अधिक स्वकेन्द्रित होते जा रहे हैं। कथित सामाजिक स्ञ्चार माध्यमों के विस्फोट काल में, सहस्रो अंतर्जाल मित्रों के काल में सहज मानवीयता की परास लघु होती चली गयी है। संवाद सिमटते जा रहे हैं तथा उनका स्थान स्वार्थी नारों ने ले लिया है। अनौपचारिक बातचीत के नेपथ्य में भी नारे काम कर रहे होते हैं तथा सहस्रमित्र जानता तक नहीं! निर्वात बढ़ रहा है, जिसकी पूर्ति जीवनप्रिय सहज मानवीय ऊष्मा नहीं, मृत्युप्रेमी प्रतिहिंसक आग कर रही है। विडम्बना ही है कि ऐसे प्रतिहिंसक समूहबद्ध हो गिरोह का रूप भी ले लेते हैं। ऐसी स्थिति में अपराध हेतु सुलभ लक्ष्य मिलते नहीं तो बना लिये जाते हैं, ब्याज कुछ भी हो सकता है।
Stop this fire यह आग रुकनी चाहिये। हमारा समय बर्बरता को नये अर्थ देने वाला न हो, इस हेतु व्यक्तिगत से ले कर संस्थागत प्रयास होने चाहिये। नहीं, यह अति-प्रतिक्रिया नहीं, आग के लघु स्फुल्लिङ्ग को देखते ही किया जाने वाला हल्ला है – आग! आग! बुझाओ इसे!! पानी डालो इस पर!!!