प्राकृत सुभाषित – चारित्र, ज्ञान, क्रिया एवं दु:खनाश
असुहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं । [द्रव्यसंग्रह]
अशुभ से निवृत्ति एवं शुभ में प्रवृत्ति ही चारित्र है।
चारित्तं खलु धम्मो । [प्रवचनसार]
यथार्थत: चारित्र ही धर्म है।नाणंमि असंतंमि, चारित्तं वि न विज्जए । [व्यवहार भाष्य]
ज्ञान के अभाव में चारित्र भी नहीं है ।जेण तच्चं विबुज्झेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि ।
जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, त णाणं ॥ [मूलाचार]
जिससे तत्त्व का बोध होता है, चित्त का निरोध होता है तथा आत्मा शुद्ध होती है, उसी को ज्ञान कहा गया है।चरणगुणविप्पहीणी, बुड्डइ सुबहुंपि जाणंतो । [आवश्यकनिर्युक्ति]
जो व्यक्ति चारित्र-गुण से रहित है, वह बहुत से शास्त्र पढ़ लेने पर भी संसार सागर में डूब जाता है।न नाणमित्तेण कज्जनिप्फत्ती । [आवश्यकनिर्युक्ति]
जान लेने मात्र से कार्य की सिद्धि नहीं हो जाती।अब्बं पि सुयमहीयं, पयासयं होई चरणजुत्तस्स ।
इक्को वि जह पईवो, सचक्खुअस्सा पयासेइ ॥ [आवश्यकनिर्युक्ति]
शास्त्र का सामान्य अध्ययन भी सच्चरित्र साधक हेतु प्रकाशदायक होता है। जिसके चक्षु खुले हैं, उसे एक दीप भी अपेक्षित प्रकाश दे देता है।णाणे णाणुवदेसे, अवट्टमाणो अन्नाणी । [निशीथभाष्य]
वह ज्ञानी भी अज्ञानी है, जो ज्ञान के अनुसार आचरण नहीं करता है ।हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया ।
पासंतो पंगुलोदड्ढ़ो, घावमाणो अ अंधओ ॥ [विशेषावश्यक-भाष्य]
क्रियाहीन ज्ञान नष्ट हो जाता है एवं ज्ञानहीन क्रिया, जैसे दावानल में पंगु उसे देखता हुआ तथा अंधा दौड़ता हुआ भी बच नहीं पाता ।नाणेण य करणेण य दोहि वि दुक्खक्खयं होइ । [मरणसमाधि]
ज्ञान एवं तदनुसार क्रिया – इन दोनों की साधना से ही दु:ख का क्षय होता है।