सुन्दरकाण्ड आदिकाव्य रामायण से – 23 से आगे …
पर-स्त्रियों के अपहरण एवं बलात्कार को अपना धर्म बता कर रावण उस परम्परा का प्रतिनिधि पुरुष हो जाता है जो आज भी माल-ए-ग़नीमत की बटोर में लगी है। येजिदी, कलश इत्यादि नृजातियों की स्त्रियों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं! जिस प्रकार रावण को केवल अपना यह ‘धर्म’ ही सूझता है, पराये धर्म या पीड़ा का उसके लिये कोई महत्त्व नहीं, ठीक उसी प्रकार समकालीन ‘मजहब’ को भी केवल अपनी लूट की पड़ी होती है जो कि किताब के अनुसार जायज है।
रावण के गुणान्वेषियों का भी एक बड़ा वर्ग है जिसके लिये वह मात्र इस कारण ‘महान’ हो जाता है कि उसने सीता का बलात्कार नहीं किया! वस्तुत: रावण एक ऐसा असंतुष्ट-अघाया चरित्र है जिसके लिये बलात्कार, हत्यादि इतने सामान्य हो चले हैं कि उनमें कोई रोमाञ्च नहीं बचा। वह ऐसी परम सुन्दरी पटरानी मन्दोदरी द्वारा उपेक्षित है जिसे रावण से दूर किनारे भिन्न शय्या पर सोया देख कर मारुति भ्रमित हो सीता समझ बैठे थे। वह सीता को सबके ऊपर बिठा कर दर्शाना चाह रहा है कि देखो! मैं आज भी समर्थ हूँ, ऐसी परम सुन्दरी, गुणवान स्त्री सीता के रूप में मेरे पास है।
बलात्कार द्वारा आहत सीता वैसी भूमिका में कैसे आ पाती? जिन सौतों के ऊपर उसे आसीन करना था, क्या उनका सम्मान पाती या आँखें मिला पाती? रावण को तो सदा प्रमुदित एवं अप्रतिहत प्रभावी विकल्प चाहिये था। वह शाप अपने स्थान पर है कि अनिच्छुक स्त्री का स्पर्श करने से सिर के सौ टुकड़े हो जायेंगे, ये गाँठें भी हैं।
अपने अपने धर्म के रावण-सीता संघर्ष में दुखिया एवं सर्वदा आतङ्क में जीती सीता के ऊपर रावण ने अपने समस्त मनोवैज्ञानिक अस्त्र वाणी के माध्यम से चला दिये तथा पराजित हुआ!
राम से पराजित होने के बहुत पहले ही रावण सीता से पराजित हो चुका था जिसकी खीझ सम्पूर्ण सुन्दर एवं उत्तरकाण्ड में बिखरी हुई है। उस दिन रावण अपनी उस अपहृता से पराजित हुआ जो बन्दिनी अवस्था में उसकी आश्रिता होते हुये भी उसके अहम को दिन प्रतिदिन पहले आहत करती रही थी। उस दिन, पेड़ के झुरमुट में छिपे मारुति के देखते देखते, रावण ने अपने तूणीर के मानो सारे नीतिमय, प्रलोभनी साम-दाम-दण्ड-भेद मय, मनोवैज्ञानिक अस्त्र चला कर देख लिये, सीता नहीं मानीं तो नहीं मानीं!
मानसिक रूप से संतप्त, टूटने के कगार पर रहती अबला को तोड़ने के लिये उसने स्त्रीप्रिय प्रलोभन दिये, प्रेम के आगे अपनी निस्सहायता भी प्रदर्शित की जो कि लम्पटों की एक प्रिय युक्ति होती है। मायके के प्रति दुर्बलता को भी उभारने के प्रयास किये। अपहरणकर्ता के प्रति सहानुभूति उत्पन्न कर अपहृत को उसके प्रति मृदु बनाने के भी प्रयास किये जिसे अब Stockholm syndrome कहा जाता है।
एवं चैतदकामां च न त्वां स्प्रक्ष्यामि मैथिलि । कामं कामः शरीरे मे यथाकामं प्रवर्तताम् ॥
काम मेरे साथ जो करना हो करे, जब तक तुम्हारे भीतर मेरे प्रति काम न उत्पन्न होगा, मैं तुम्हारा स्पर्श नहीं करूँगा।
नैतान्यौपयिकानि … स्त्रीरत्नमसि – ध्यान, उपवास, मलिन वस्त्रादि को अपना कर ऐसे रहना तुम समान स्त्री के लिये उपयुक्त नहीं।
चारुसंजातं यौवनं व्यतिवर्तते – सौंदर्य से भरा नवयौवन (व्यर्थ ही) बीत जायेगा। नदियों के प्रवाह सा अतीत लौट कर नहीं आता।
त्वां समासाद्य … कः पुमानतिवर्तेत – तुम्हारी अद्भुत रूप यौवन सम्पदा को पा कौन पुरुष विचलित नहीं हो जायेगा? भले वह ब्रह्मा ही क्यों न हों (किंतु मैंने धैर्य धारण किया हुआ है, देखो मुझे!)
सर्वाणि राज्यं चैतदहं च ते – तुम्हें अपनी समस्त सम्पदा, राज्य सहित दे दूँगा।
विजित्य पृथिवीं … जनकाय प्रदास्यामि – पृथ्वी को जीत राजा जनक को प्रदान कर दूँगा।
पश्य मे सुमहद्वीर्यमप्रतिद्वन्द्वमाहवे – मुझे देखो! जिसकी वीरता के आगे प्रतिद्वंद्वी नहीं ठहरते।
ललस्व मयि विस्रब्धा … ललन्तां बान्धवास्तव – मेरे साथ भोगलिप्त हो आनन्द लूटो, मुझे आदेश करो, मैं तुम्हारी हर प्रकार से मानूँगा। मुझे अपनाओगी तो तुम्हारे बंधु बांधव भी जीवन के आनंद लूटेंगे।
निक्षिप्तविजयो रामो … च शङ्के जीवति वा न वा – राम ने विजय की आशा त्याग दी है। वह जीवित भी है या नहीं, इसमें शङ्का है।
मनो हरसि मे भीरु सुपर्णः पन्नगं यथा– जैसे गरुड़ सर्प को ले जाते हैं, उसी भाँति तुमने मेरा मन हर लिया है (तुम्हारा हरण किया तो क्या?)
अन्तःपुरनिवासिन्यः स्त्रियः … सर्वासामैश्वर्यं कुरु जानकि– मुझे समर्पण कर तुम सभी अन्त:पुर निवासिनी स्त्रियों पर स्वामित्व पा सकती हो।
वैश्रवणे सुभ्रु रत्नानि च धनानि च… भुङ्क्ष्व यथासुखम्– कुबेर की समस्त धन सम्पदा का यथासुख मेरे साथ भोग करो।
न रामस्तपसा देवि न बलेन न विक्रमैः । न धनेन मया तुल्यस्तेजसा यशसापि वा ॥
न तप से, न बल से, न विक्रम से, न धन से, न तेज से, न यश द्वारा ही राम मेरी समानता कर सकते हैं।
समस्त प्रलोभनों के समक्ष सीता हेतु दो शब्दों, तपस्विनी यशस्विनी, का प्रयोग कर वाल्मीकि ने उनकी निरर्थकता रेखाङ्कित की है, जो तप एवं यश का लोभी है उस पर इनका क्या प्रभाव होना?
वह रावण जो रुद्र द्वारा मर्द्दित हो रोने के कारण रावण कहलाया, वह सीता को रौद्र लगा – रुलाने वाला। आर्त, दीन स्वर में उन्होंने धीरे धीरे उत्तर देना आरम्भ किया। रावण ने अपने कथन में साम, दाम, भेद नीतियाँ अपनाईं थी, सीता ने साम एवं भेद का आश्रय लिया। दु:खार्ता, रुदति, वेपमाना (काँपती), चिन्तयन्ती पतिव्रता, जिस तपस्विनी ने रावण की कुदृष्टि के कारण अपने उदर वक्ष छिपाये थे, उस शुचिस्मिता – पवित्र मुस्कान वाली- ने तिनके की ओट कर कहना आरम्भ किया (कवि वाल्मीकि ने रावण के वचनों के विरुद्ध शब्दों की बाड़ सी लगा दी है)!
देह के भाव दीन थे किन्तु यह तिनके की ओट मानो रावण के समस्त नीति अस्त्रों के आगे अभेद्य कवच सी सज गई – तृणमन्तरत: कृत्वा प्रत्युवाच शुचिस्मिता। अशुचि हैं तुम्हारे कर्म, तुम्हारी बातें, तुम्हारा समस्त ऐश्वर्य, तुम्हारा प्रलोभन, तुम्हारा भोग प्रस्ताव, सब मेरे लिये तृणवत हैं रावण! यह तृण मेरी मर्यादा है।
उस एक तिनके की ओट में छिपे तिरस्कार, विवश होने पर भी अप्रतिहत मर्यादा भाव एवं पवित्र मुस्कान में छिपी दृढ़ता को क्या रावण ने न समझा होगा? ऐसी बन्दिनी द्वारा विनम्र किन्तु दृढ़कथन, जिसके साथ वह जब चाहे, कुछ भी कर सकता था! जिस सत्ता, सामर्थ्य एवं बल को वह जाने कितने शब्दों में दुहराता रहा था, एक सङ्केत, केवल एक वह तृण उन्हें निरर्थक सिद्ध करने के लिये पर्याप्त था।
पहले ही वाक्य में वैदेही ने उसे पापाचारी बता दिया, सीधे नहीं, सामान्य सत्य के उद्धरण द्वारा –
न मां प्रार्थयितुं युक्तस्त्वं सिद्धिमिव पापकृत् । अकार्यं न मया कार्यमेकपत्न्या विगर्हितम् ॥
पापाचारी पुरुष सिद्धि माँगे, इस भाँति मुझसे प्रार्थना न कर अर्थात जैसे पापाचारी पुरुष सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता, वैसे ही तुम मेरी इच्छा नहीं कर सकते।
कोई सम्भावना भी शेष न रहे, इस हेतु सीता ने आगे जोड़ दिया – जो एक पतिव्रता के लिये विगर्हित है, उसे मैं नहीं कर सकती। महान कुल में उत्पन्न हूँ, एक पुण्यशाली कुल की ब्याहता हूँ – कुलं संप्राप्तया पुण्यं कुले महति जातया।
पुलस्त्य एवं विश्रवा जैसों की सन्तति महाभिमानी रावण के जातीय एवं कुल श्रेष्ठता भाव पर यह वाक्य जैसे कुठाराघात था। ऐसा कह कर यशस्विनी वैदेही ने सम्मुख होना छोड़ उसकी ओर अपनी पीठ कर दी मानो उपेक्षा एवं तिरस्कार को पक्की कर रही हों! रावणं पृष्ठत: कृत्वा भूयो वचनमब्रवीत।
मैं सती एवं पराई स्त्री हूँ, तुम्हारी भार्या बनने योग्य नहीं! – नाहमौपयिकी भार्या परभार्या सती तव।
तुम जिस अपहरण एवं बलात्कार को अपना धर्म बताये हो, उसे तज साधु धर्म की ओर दृष्टिपात कर, साधु व्रत का आचरण कर – साधु धर्ममवेक्षस्व साधु साधुव्रतं चर। ‘चर‘ कहने से जैसे संतोष न हुआ कि इसकी तो चाल ही उल्टी है। ‘निशाचर’ कह उसे जताया कि सारा संसार तो दिनचर होता है, तू तो निशाचर है, तब भी जैसे अपनी पत्नियों की रक्षा करता है, वैसे ही दूसरों की पत्नियों की रक्षा तुम्हें करनी चाहिये – यथा तव तथान्येषां रक्ष्या दारा निशाचर।
‘वयं रक्षाम:’ के उद्घोषी रावण को यह बताते हुये कि देख तू कितना पतित हो चुका है, रक्षा का ऐसा प्रबोध जानकी ही दे सकती थीं।
परदारा पराभव: – चपल इंद्रिय वाले के लिये पराई स्त्रियों पर कुदृष्टि पराभव का कारण होती है। यहाँ सन्त नहीं रहते क्या या रहते हुये भी तुम उनका अनुसरण नहीं करते – इह सन्तो न वा सन्ति सतो वा नानुवर्तसे?
सीता कहती चली गयीं, हर वाक्य रावण के लिये आघात ही था,“अथवा तुम्हारे यहाँ बुद्धिमान तो हैं किंतु राक्षसों के विनाश पर तुले रहने के कारण तुम उनकी सुनते ही नहीं!
अकृतात्मानमासाद्य राजानमनये रतम्। समृद्धानि विनश्यन्ति राष्ट्राणि नगराणि च॥
मनमाना आचरण करने वाले कुमार्गी राजा के हाथ में पड़ कर समृद्ध राष्ट्र एवं नगर नष्ट हो जाते हैं, एक तुम्हारे अपराध के कारण यह रत्नराशि पूर्ण लङ्का शीघ्र ही नष्ट हो जायेगी – लङ्का रत्नौघसंकुला अपराधात् तवैकस्य नचिराद् विनशिष्यति।
अदूरदर्शी रावण! पापकर्मा के विनाश का समस्त प्राणी अभिनन्दन करते हैं, उस पर प्रसन्न होते हैं – रावणदीर्घदर्शिन: अभिनन्दन्ति भूतानि विनाशे पापकर्मण:। इस प्रकार पापी का विनाश उससे रुष्ट हुये जन के हर्ष का कारण होता है – पापकर्माणं … व्यसनं प्राप्तो रौद्र इत्येव हर्षिता:।
ऐश्वर्य तथा धन से तुम मुझे लुभा नहीं सकते। मैं राघव की वैसे ही अनन्या हूँ जैसे सूर्य की प्रभा – अनन्या राघवेणाहं भास्करेण प्रभा यथा।“
सीता ने सन्त की भाँति रावण को सदुपदेश भी दिये,”यदि दारुण बन्धन से बचने तथा नगर की रक्षा की इच्छा हो तो पुरुषोत्तम श्रीराम को मित्र बना लो। जीने की इच्छा हो तो उनसे मैत्री कर लो – तेन मैत्री भवतु ते यदि जीवितुमिच्छसि। वे शरणागतवत्सल हैं, उनकी शरण ले मुझे लौटा कर उन्हें प्रसन्न करो अन्यथा तुम भारी विपत्ति में पड़ जाओगे – अन्यथा … परां प्राप्स्यसि चापदम्, तुम क्रुद्ध लोकनाथ राघव के क्रोध से बचोगे नहीं – संक्रुद्धो लोकनाथः स राघवः।“
सीता मैत्री का उपदेश देते हुये भी आततायी को दण्ड देने की अमोघ लोकोन्मुखी रघु परम्परा को नहीं भूलीं। रावण को जनस्थान राक्षस संहार तथा कायरतापूर्ण अपहरण की स्मृति दिलाती सीता ने राम की महिमा की झड़ी लगा दी कि तुम्हारी डीङ्ग उनके शौर्य पराक्रम के आगे कुछ भी नहीं !
“रामस्य धनुषः शब्दं श्रोष्यसि त्वं महास्वनम् । शतक्रतुविसृष्टस्य निर्घोषमशनेरिव ॥
इह शीघ्रं सुपर्वाणो ज्वलितास्या इवोरगाः । इषवो निपतिष्यन्ति रामलक्ष्मणलक्षणाः ॥
रक्षांसि परिनिघ्नन्तः पुर्यामस्यां समन्ततः । असंपातं करिष्यन्ति पतन्तः कङ्कवाससः ॥
राक्षसेन्द्रमहासर्पान्स रामगरुडो महान् । उद्धरिष्यति वेगेन वैनतेय इवोरगान् ॥
अपनेष्यति मां भर्ता त्वत्तः शीघ्रमरिंदमः। असुरेभ्यः श्रियं दीप्तां विष्णुस्त्रिभिरिव क्रमैः ॥
जनस्थाने हतस्थाने निहते रक्षसां बले । अशक्तेन त्वया रक्षः कृतमेतदसाधु वै ॥
आश्रमं तु तयोः शून्यं प्रविश्य नरसिंहयोः । गोचरं गतयोर्भ्रात्रोरपनीता त्वयाधम ॥
[5019020-26]
तब जब कि दोनों नरशार्दूल भ्राता नहीं थे, सूने आश्रम में प्रवेश कर तुम अधम ने मेरा अपहरण किया। जिस शौर्य एवं पराक्रम की डीङ्गें हाँक रहा है, वे तुझमें होते तो ऐसा करता? जिस प्रकार सूर्य किरणें अल्प जल को सोख लेती हैं, उस प्रकार ही राम एवं लक्ष्मण के बाण तुम्हारे प्राण हर लेंगे – तोयमल्पमिवादित्यः प्राणानादास्यते शरैः। तुम कुबेर गिरि जाओ या वरुण सभा, राम के बाणों से वैसे ही नहीं बच पाओगे जैसे तड़ित पात से चाहे जितना भी बड़ा वृक्ष हो, नहीं बचता – महाद्रुमः कालहतोऽशनेरिव।“
सीता के ऐसे परुष (कठोर) वचन सुन रावण को मानो आग लग गयी, अप्रिय वचनों के साथ उसने उत्तर दिया,”प्रेमी स्त्रियों से जितनी ही सज्जनता एवं प्रेम से बात करते हैं, उतनी ही निर्ममता से अपमानित किये जाते हैं। तुम्हारे प्रति काम ने मेरे क्रोध को वैसे ही वश में कर रखा है जैसे अच्छा सारथी अश्वों को अमार्ग पर भागने से रोकता है – द्रवतो मार्गमासाद्य हयानिव सुसारथिः।“
झुँझलाये हुये रावण के मुख से नीति भी निकसी :
वामः कामो मनुष्याणां यस्मिन् किल निबध्यते। जने तस्मिंस्त्वनुक्रोशः स्नेहश्च किल जायते ॥
काम मनुष्य के वाम होता है। जिसके मन काम बँधा है, उसमें करुणा तथा स्नेह उत्पन्न होते ही हैं।
इस कारण ही मैं तुम्हें दण्ड नहीं दे पा रहा – एतस्मात्कारणान्न तां घतयामि वरानने।
क्रोध एवं उत्तेजना में रावण ने अंतिम चेतावनी दी,”मुझसे परुष वाणी बोलने के कारण तुम तो दारुण वध के योग्य हो – वधो युक्तस्तव मैथिलि दारुणः।
सीता! तुम्हारे पास दो मास की अवधि है, यदि उसके पश्चात भी मेरी सेज पर नहीं आई तो मेरे प्रात:कालीन आहार हेतु महानस (पाककक्ष, रसोई) में तुम्हारा वध कर दिया जायेगा।
द्वौ मासौ रक्षितव्यौ मे योऽवधिस्ते मया कृतः । ततः शयनमारोह मम त्वं वरवर्णिनि ॥
द्वाभ्यामूर्ध्वं तु मासाभ्यां भर्तारं मामनिच्छतीम् । मम त्वां प्रातराशार्थमारभन्ते महानसे ॥“
सीता को इस प्रकार धमाकाया जाता देख रावण के साथ आयी देव एवं गंधर्व स्त्रियों की दु:खित आँखों में आँसू भर आये। उस राक्षस द्वारा धमकायी गयी सीता को बिना बोले, कुछ ने ओठों की भङ्गिमा से तो कुछ ने मुख एवं नेत्रों की भङ्गिमा से आश्वस्त किया –
ओष्ठप्रकारैरपरा नेत्रवक्त्रैस्तथापराः । सीतामाश्वासयामासुस्तर्जितां तेन रक्षसा ॥
इस प्रकार विजयी सीता ने अन्त:पुर की स्त्रियों के मन में भी अपने प्रति सहानुभूति जीत ली थी। यह महत उपलब्धि थी। जिन स्त्रियों ने मन मार कर परिस्थितियों से समझौता कर बलात्कारी रावण के प्रति समर्पण कर दिया था, सीता उनके लिये प्रतिरोध एवं शक्ति की प्रतीक हो गयी थीं।
ताभिराश्वासिता सीता रावणं राक्षसाधिपम्। उवाचात्महितं वाक्यं वृत्तशौण्डीर्यगर्वितम् ॥
उनसे इस प्रकार आश्वस्त हो निज सतीत्व गुण के प्रति गर्विता सीता आत्महित राक्षसाधिप रावण से इस प्रकार बोलीं …
(क्रमश:)
प्रतिलोमानुलोमैश्च सामदानादिभेदनैः। अवर्जयत वैदेहीं दण्डस्योद्यमनेन च॥
उल्टा सीधा, साम, दाम, दण्ड, भेद उद्यम; चाहे जैसे हो, सीता को मेरे वश में करो।
बहुत ही सुंदर लेख।
भारत सतियों औऱ यतियों का देश है। गर्व है इस पवित्र स्थान पर जन्म हुआ।
उत्तम लेख
उत्तम लेख
– कुबेर की समस्त धन सम्पदा का यथासुख मेरे ससथ* भोग करो।
यहाँ ”ससथ” टंकन त्रुटि है या कोई विशेष प्रयोग है!
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