Valmikiya Ramayan वाल्मीकीय रामायण – 41 से आगे
बहुत कुछ दिख रहा था, स्वामी के हित कार्य करने की अपार सम्भावनायें थीं। प्लवग हनुमान का मन विकल्पों पर विचार के साथ साथ कुछ सार्थक करने को उन्हें प्रेरित करने लगा। बुद्धिमान हनुमान सोचते चले गये :
न चास्य कार्यस्य पराक्रमादृते विनिश्चयः कश्चिदिहोपपद्यते। हतप्रवीरा हि रणे हि राक्षसाः कथञ्चिदीयुर्यदिहाद्य मार्दवम्॥
कार्ये कर्मणि निर्दिष्टे यो बहून्यपि साधयेत्। पूर्वकार्याविरोधेन स कार्यं कर्तुमर्हति॥
राक्षसों की शक्ति जानने हेतु आज पराक्रम प्रदर्शन के अतिरिक्त उपाय के अवलम्बन का मार्ग नहीं है। यदि युद्ध में इनके कुछ मुख्य वीर मारे जायँ तो ये कथञ्चित मृदु हो नियन्त्रण में आ सकते हैं।
पूर्व निर्दिष्ट कार्य को पूरा करने के साथ साथ बिना उसमें बाधा लाये जो अन्य बहुत से कार्य भी साध लेता है, वही (कार्य करने में) अर्हत है, वही कार्य को सुचारु रूप से कर सकता है।
न ह्येकस्साधको हेतुस्स्वल्पस्यापीह कर्मणः। यो ह्यर्थं बहुधा वेद स समर्थोऽर्थसाधने॥
इहैव तावत्कृतनिश्चयो ह्यहं यदि व्रजेयं प्लवगेश्वरालयम्। परात्मसम्मर्दविशेषतत्त्ववित्ततः कृतं स्यान्मम भर्तृशासनम्॥
लघु से लघु कर्म की भी सिद्धि के लिये कोई एक ही साधक हेतु नहीं हुआ करता। जो पुरुष किसी कार्य या प्रयोजन को अनेक प्रकार से सिद्ध करना जानता हो, वही कार्यसाधन में समर्थ होता है।
यदि आज मैं शत्रु की एवं वानरों की शक्ति के संतुलन की स्थिति यहीं सुनिश्चित कर लूँ तथा किष्किन्धा लौटूँ तो ऐसा करना स्वामी के आदेश का अच्छे से अनुपालन होगा।
कथं नु खल्वद्य भवेत्सुखागतं प्रसह्य युद्धं मम राक्षसैः सह। तथैव खल्वात्मबलं च सारवत्सम्मानयेन्मां च रणे दशाननः॥
परंतु आज मेरा यहाँ आना सुखद कैसे होगा? राक्षसों के साथ हठात युद्ध करने का अवसर मुझे कैसे प्राप्त होगा? तथा दशानन समर में अपनी सेना को और मुझे भी तुलनात्मक दृष्टि से देख कर यह कैसे समझ सकेगा कि कौन सबल है?
ततस्समासाद्य रणे दशाननं समन्त्रिवर्गं सबलप्रयायिनम्।
हृदि स्थितं तस्य मतं बलं च वै सुखेन मत्त्वाऽहमितः पुनर्व्रजे॥
मैं सुख पूर्वक तब ही लौट सकूँगा जब युद्ध में दशानन की सेना की शक्ति का अनुमान लगा लूँ तथा मंत्रियों एवं सहायकों सहित उसके अभिप्राय का पता लगा लूँ।
इदमस्य नृशंसस्य नन्दनोपममुत्तमम्। वनं नेत्रमनःकान्तं नानाद्रुमलतायुतम्॥
इदं विध्वंसयिष्यामि शुष्कं वनमिवानलः। अस्मिन्भग्ने ततः कोपं करिष्यति दशाननः॥
नृशंस रावण का यह सुंदर उपवन नेत्रों को आनंद देने वाला एवं मनोरम है। नाना प्रकार के द्रुम एवं लताओं से व्याप्त होने के कारण यह नंदनवन के समान उत्तम प्रतीत होता है।
मैं इसका वैसे ही विध्वंस कर डालूँगा जैसे सूखे वन को आग। तब इसके नष्ट होने से दशानन कुपित होगा।
ततो महत्साश्वमहारथद्विपं बलं समादेक्ष्यति राक्षसाधिपः।
त्रिशूलकालायसपट्टिसायुधं ततो महद्युद्धमिदं भविष्यति॥
अहं तु तैः संयति चण्डविक्रमै स्समेत्य रक्षोभिरसह्य विक्रमः।
निहत्य तद्रावणचोदितं बलं सुखं गमिष्यामि कपीश्वरालयम्॥
तत्पश्चात वह राक्षसाधिपति हाथी, घोड़े तथा विशाल रथों से युक्त एवं त्रिशूल, लौहपट्टिश एवं आयुधों सहित बहुत बड़ी सेना ले कर आयेगा। तब यहाँ महान युद्ध होगा।
उस युद्ध में मेरी गति रुक नहीं सकती, मेरा पराक्रम कुण्ठित नहीं हो सकता। मैं प्रचण्ड पराक्रम दिखाने वाले उन राक्षसों से भिड़ जाऊँगा और रावण की भेजी हुई उस सारी सेना को मार कर सुखपूर्वक सुग्रीव के निवासस्थान को लौट जाऊँगा।
कार्य का निश्चय कर लिया तो विलम्ब कैसा? कपि अपनी प्रवृत्ति के साथ पूरे मनोयोग से लग गये :
ततो मारुतवत्कृद्धो मारुतिर्भीमविक्रमः। ऊरुवेगेन महता द्रुमान्क्षेप्तुमथारभत्॥
ऐसा सोच कर भयानक पुरुषार्थ प्रकट करने वाले मारुति क्रोध से भर गये एवं वायु के समान बड़े भारी वेग से वृक्षों को उखाड़ उखाड़ कर फेंकने लगे।
ततस्तु हनुमान्वीरो बभञ्ज प्रमदावनम्। मत्तद्विजसमाघुष्टं नानाद्रुमलतायुतम्॥
तदनंतर वीर हनुमान ने मत्त पक्षियों के कलरव से मुखरित एवं नाना प्रकार के वृक्षों एवं लताओं से भरे उस प्रमदावन को उजाड़ डाला।
(क्रमश:)