त्वं नो मेधे प्रथमा गोभिरश्वेभिरा गहि ।
त्वं सूर्यस्य रश्मिषु त्वं नो वसुदा यज्ञिया ॥
मेधामहं प्रथमा ब्रह्मण्वतीमृषिष्टुतां ।
प्रपीतां ब्रह्मचारिभि: देवानामवसा वृणे ॥
मेधां सायं मेधां प्रातर्मेधां मध्यन्दिनं परि ।
मेधां सूर्येणोद्यतोदीराणा उत्तुष्टुमः ॥
पार्थिवस्य रसे देवा भगस्य तन्वो बले ।
आयुरस्मै सोमो वर्च आा धाद् बृहस्पति: ॥
आयुरस्मै धेहि जातवेदः प्रजां त्वष्टरधिनिधेह्योन: ।
रायस्पोषं सवितरा सुवास्मै शतं जीवाति शरदस्तवायम् ॥
आशीर्ण ऊर्जमुत सुप्रजास्त्वं दक्षं दधातु द्रविणं सुवर्चसम्।
सं जयन् क्षेत्राणि सहसायमिन्द्र कृण्वानो अन्यानधरान्त्सपत्नान् ॥
(अथर्वण संहिता, पैप्पलाद शाखा, १९-१७, ७-१२)
आज शरद ऋतु की पूर्णिमा है। सनातन परम्परा में शत शरद जीवन की कामना रही है। ‘जीवन के वसंत’ गिन कर भी आयु बताई जाती है। शरद और वसंत ऋतुओं का मर्म क्या है?
बहुत पुरातन काल में ही मनीषियों ने सृष्टि की लय को जान लिया था और यह भी कि जो ऋत ऋतुचक्र की लय में है, वही हमारी देह में, हमारे कार्यव्यापारों में भी है। उसके अनुकूल रहते हुये व्यष्टि व समष्टि सहित समस्त भूतों के कल्याण हेतु जीना ही वरेण्य है, धर्म है। ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे’ अनुभूति या कथन मात्र न हो कर एक प्रकार से जीवन मूल्य ही हो गया। ऋत की यज्ञों में अनुकृति हो या सम्पूर्ण जीवन को ही निरंतर चल रहे प्रकृति-यज्ञ का अंग मानना हो, संतुलन एवं ‘सर्वे भद्राणि पश्यन्तु’ एक ऐसे विराट जीवनमूल्य के रूप में आकार ले लिये जिसके लिये जीना एवं मरना कर्तव्य हो गया, यह भी कह सकते हैं कि जन्म एवं मृत्यु ऐसी ‘घटनायें’ मात्र रह गये जिनके स्वागत एवं विदा हेतु कर्मकाण्ड तो बनाये गये किंतु पूरी प्रक्रिया में वे अपने आप में बहुत विशिष्ट भी नहीं रह गयीं। जीवन के नैरंतर्य को मृत्यु से परे, मृत्यु से अमरत्व की ओर, तम से प्रकाश की ओर, असत से सत की ओर प्रवाहित मात्र माना नहीं गया, उसके लिये सायास उद्योग को पीढ़ियों की परास में प्रसारित कर दिया गया।
यह सब समझने के पश्चात जीवन की परास को ऋतुचक्र से जोड़ कर बताने का यह मर्म उद्घाटित होता है कि वसंत एवं शरद दो ऐसी ऋतुयें हैं जिनमें विषुव के रूप में ‘संतुलन’ निहित है, जब सब कुछ सम पर आ जाता है क्योंकि जीवन कारक सूर्य भी सम पर आ जाता है, रात दिन सम पर, उदय अस्त सम पर। सूर्य हो या अन्य कारक, इस कारण ही भीतर बाहर व्याप्त देव हो जाते हैं, भगवान या ईश्वर रूपी सत्ता के अगणित रूप, एक से तीन, तीन से तैंतिस, तैंतिस से तीन हजार, और श्रेणी बताने वाली ‘कोटि’ को करोड़ से समझा जाने लगता है। जितने प्राणी, उतने ईश। ‘सीयराम मय सब जग जानी’ के मूल में मात्र भक्ति का उद्रेक नहीं, सहस्राब्दियों में प्रवाहित उदात्त चेतना का सार छिपा है, अखण्ड अस्तित्त्व का निचोड़ है।
एक ओर तो यह सब है और दूसरी ओर विश्व की वह ५५% जनसंख्या है जिसके लिये उसकी मान्यताओं से इतर सब कुछ येन केन प्रकारेण नष्ट कर दिये जाने योग्य है, जिसके लिये हिंसा, प्रलोभन, छल, बल, नाट्य, अभिनय, धमकी, विनती, आँसू, रक्त आदि सब ‘जायज’ हैं, ऊपर बैठे किसी उच्च के आदेश हैं जिनके अनुपालन में सवाब है, soul harvesting कर सबको अपने जैसा ही बना लेना प्रत्येक विश्वासी के जीवन का परम कर्तव्य है।
चाहे जो कहें, वास्तविकता यही है कि आज ‘सनातन’ इनके आगे किंकर्तव्यविमूढ़ है कि इनका सामना करें तो कैसे? ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ वाले ‘अल्ला-हू-अकबर’ का नारे के साथ मनुष्यों के गले रेतने वालों का सामना कैसे करें?
सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत।
अथ खलु क्रतुमयः पुरुषो यथाक्रतुरस्मिल्लोके पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति स क्रतुं कुर्वीत॥ (छान्दोग्योपनिषद्, ३.१४.१)
पूरी श्रुति उपर्युक्त है। दूसरी पङ्क्ति पर ध्यान दें – यथा क्रतु: अस्मिन् लोके पुरुष: भवति तथेत:, इस संसार में जिसका जैसा सङ्कल्प, वैसी उसकी परिणति।
आध्यात्म-भाव क्षात्रधर्म की नींव पर ही खड़ा रह पाता है अन्यथा नष्ट हो जाता है। जब नष्ट होता है तो प्रतिक्रियावादियों को जन्म देता है। वैश्विक इतिहास देखें, अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं।
बहुधा सुनने में आता है कि हम भी उनके जैसे हो जायें?
यह प्रश्न वे लोग अधिक करते हैं जो तम को सत मान बैठे हैं। क्या वास्तव में वे बड़ी अच्छाई सोच कर यह प्रश्न कर रहे होते हैं?
नहीं। वे अपनी कायरता, अपनी सुविधाजीविता, स्वार्थ और धर्म हेतु क्षत्रिय की भाँति लड़ने के प्रति अपनी वितृष्णा को ‘आदर्श’ का आवरण पहना रहे होते हैं। यह वह कथित आदर्श है जो आक्रांता मिशनरियों द्वारा बड़े ही सूक्ष्म एवं चतुर ढंग से ‘हीदेन’ का मस्तिष्क प्रक्षालन करने हेतु प्रचलित किया गया और जिसे हमारे शैक्षिक तन्त्र ने अपना लिया। ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ और ‘सभी मजहब धर्म समान’ में बहुत बड़ा अंतर है। दोनों को एक बताने के पीछे जो कलुष है, उसे देख पाने की क्षमता भी बहुसङ्ख्यक समाज खो चुका है।
‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ चेतना के सर्वोच्च शिखर से किया गया उद्घोष है जिसके पाँव निरंतर सार्थक कर्म पर टिके हैं, मात्र आध्यात्मिक दृष्टि से नहीं, भौतिकता के साथ भी टिके हैं जब कि ‘सभी मजहब धर्म समान’ सबको मतांतरित कर अब्राहमी बनाने हेतु चलाया गया छलवाक्य है जिसे आदर्श का आवरण दिया गया है। यह आदर्श नहीं, वाक्य-आयुध है जिसका निवारण इस एक प्रश्न से हो जाता है कि जब सभी समान हैं तो मतांतरण हेतु क्यों लगे हो?
दूषित शिक्षा पद्धति ने हमारी सामान्य समझ को भोथरा कर कायरता का चोला पहना दिया। ‘खलु क्रतुमयः पुरुष:‘ को हम भूल गये और ‘सभी मजहब धर्म समान’ को श्रुतिवाक्य की भाँति अपना लिये।
गले कटवाते रहना घोर तामस है! जीवन्त जाति का लक्षण नहीं। हमें किसी का गला नहीं रेतना है किंतु कोई हमारा गला न रेत जाये, इसके लिये बली बनना है, शारीरिक रूप से भी, मानसिक रूप से भी। केवल प्रतिक्रियावाद में नहीं, क्रतुमय सक्रिय प्रज्ञा के साथ हर क्षेत्र में श्रीगणेश करते रहना है। हमें शत्रुओं के बनाये उन मानकों पर स्वयं को कदापि नहीं परखना या अपनाना है जिन्हें वे स्वयं ही सम्मान नहीं देते। एक पग आगे बढ़ कर हमें छल के लिये छली भी बनना है। यह सब युवाओं को ही करना होगा, चौकी पर बैठ कर प्रवचन करते वृद्ध नहीं कर पायेंगे। उन्हें करना भी नहीं चाहिये, उन्हें युवाओं को गढ़ना चाहिये।
बचे रहना है, जिस सभ्यता व संस्कृति को पुरखों ने सहस्राब्दियों से जीवित रखा उसे बचाये रखना है तो इसके लिये हमें अपनी जड़ता तोड़नी होगी। युवाओं में धर्म-कर्म सहित कर्मकाण्डों के प्रति न केवल सम्मान की भावना को जन्म देना होगा, वरन उनमें बढ़ चढ़ कर भाग लेने हेतु प्रेरित करना होगा। ज्ञान ज्ञान चिल्लाते हुये कर्मकाण्डादि को व्यर्थ बताने वाले चिल्लर या तो मर्म जानते ही नहीं या निम्नतर श्रेणी के धूर्त हैं।
स्तर ऊँचा रहे, उच्छृंखल व्यवहार न हो और अब्राहमी प्रभाव के कलुष की पैठ न हो, इस हेतु वृद्धों को मार्गदर्शन करना चाहिये। समस्या यह है कि हम ‘आर्तनादी’ समाज मात्र बन कर रह गये हैं, करना किसी को कुछ नहीं, कोलाहल चाहे जितना करवा लो! यही घोर तामस है जिसका आधार क्षुद्र स्वार्थ भाव है। हम भूल गये हैं कि हमारी साधना का सर्वोच्च आदर्श ‘परमार्थ’ है। इसमें जो परम है, वह वही है जो ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ और ‘सीयराम मय सब जग जानी’ में अभिव्यक्त होता है, जिसकी भौतिकता आध्यात्म से पृथक नहीं वरन एक अङ्ग है।
ऋत आधारित जीवनपद्धति अपने आप में सम्पूर्ण है। ज्ञान, भौतिक कर्म, रक्षा, सहकार व सेवा इसमें अंतर्निहित हैं, हम अपनायें तो! इसका त्याग कर हमने पुरखों का कोप अपने माथे पर ले लिया, दुर्दशा साक्षात है, हम देखें तो!