आँख में तीर – अजानन्निव किं वीर त्वमेनमनुवर्तसे … आप अनुवर्तन में ही क्यों लगे हैं? वह प्रहार किये जा रहा है, आप तो केवल प्रहार के निवारण में लगे हैं?
पक्ष के भाई, भतीजे, पुत्र आदि सभी मारे जा चुके थे। अधम रावण अंतिम युद्ध में था, अस्तित्व के युद्ध में। यह बात उसे भी ज्ञात थी, राघव श्रीराम को भी। इंद्र की सहायता के कारण रथी हुये राम युद्धक उपादानों की दृष्टि से राक्षस रावण से सम पर थे, ऐसा नहीं था कि वे पदाति युद्ध कर रहे थे। राक्षसों के समस्त मायावी प्रपञ्चों से वह पार पा चुके थे, केवल प्रत्यक्ष युद्ध में अंतिम विजय पानी थी। रावण के पास खोने को कुछ नहीं बचा था जब कि श्रीराम का सर्वस्व अभी भी शत्रु के पास था।
शस्त्रास्त्र वही थे, वही धनुष था, वही भुजदण्ड तथा ऋषियों द्वारा सँवारा गया रणकौशल भी वही था किंतु अपने जीवन के इस अंतिम सबसे महत्त्वपूर्ण युद्ध में राम मन ही मन हतप्रभ थे :
मारीचो निहतो यैस्तु खरो यैस्तु सुदूषणः । क्रञ्चारण्ये विराधस्तु कबन्धो दण्डका वने ॥
त इमे सायकाः सर्वे युद्धे प्रत्ययिका मम।
किं नु तत्कारणं येन रावणे मन्दतेजसः ॥
मारीच, खर, दूषण, विराध, कबंध आदि का नाश कर देने वाले समस्त सायक रावण के समक्ष क्यों, किस कारण मंद पड़ रहे हैं?
युद्ध भीषण होता चला जा रहा था तथा राम आक्रमण के स्थान पर प्रतिकार में लगे थे। सारथी मातली से न देखा गया। युद्ध में सारथी को अपना कर्तव्य निबाहना ही था, पूछ पड़ा :
अथ संस्मारयामास राघवं मातलिस्तदा । अजानन्निव किं वीर त्वमेनमनुवर्तसे ॥
हे वीर! अनजाने की भाँति आप रावण के अनुवर्तन में ही क्यों लगे हैं? वह प्रहार किये जा रहा है, आप तो केवल निवारण में लगे हैं?
मातली ने उसकी स्मृति दिलाई जिसे राघव भूले हुये थे :
विसृजास्मै वधाय त्वमस्त्रं पैतामहं प्रभो । विनाशकालः कथितो यः सुरैः सोऽद्य वर्तते ॥
प्रभो! इसके वध के लिये पैतामह अस्त्र का प्रयोग करें। सुरों ने इसका जो विनाशकाल बताया है, वह आ पहुँचा है।
ततः संस्मारितो रामस्तेन वाक्येन मातलेः । जग्राह स शरं दीप्तं निश्वसन्तमिवोरगम् ॥
यम्तस्मै प्रथमं प्रादादगस्त्यो भगवानृषिः ।
मातली के इस वाक्य से श्रीराम को उस अस्त्र का स्मरण हो आया जिसे पहले भगवान अगस्त्य ऋषि ने उन्हें दिया था। उन्हों ने सर्प के समान फुफकारते हुये वह दीप्त शर अपने हाथ में ले संधान किया। आगे जो हुआ, वह युगों युगों हेतु आख्यान एवं इतिहास बन गया, धरा को राक्षसों से मुक्ति मिल गयी।
मेधावी से मेधावी, तेजस्वी से तेजस्वी योद्धा भी बहुधा संघर्ष के निर्णायक क्षण में अपनी शक्ति, उपयुक्त शस्त्रास्त्र एवं उनका प्रयोग कौशल भूल जाते हैं। उस क्षण किसी सारथी का, किसी मातली का कहा हुआ ही उन्हें पुन: अमोघ बनाता है। मातलियों को मौन नहीं रखना चाहिये।
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कार्त्तिक शुक्ल ४, १६१३ विक्रमी को दिल्ली के तुगलकाबाद में मुगलों को हरा कर हेमचंद्र विक्रमादित्य ने सिंहासनारोहण किया। ३५० वर्ष पश्चात दिल्ली पर किसी हिंदू शासक का अभिषेक हुआ था। एक मास भी नहीं बीते, मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया को पानीपत के रणक्षेत्र में पुन: मुगल आ जुटे। सब ठीक चल रहा था, मुगल सेना पराजित होने ही वाली थी कि हाथी पर ऊँचे बैठ युद्ध सञ्चालन करते राजा हेमचंद्र की आँख में तीर लगा एवं उस अंतिम क्षण के आघात ने इतिहास पलट दिया !
मृत हेमचंद्र का शिरच्छेद कर बैरम खान ने मुगल अकबर को गाजी जिहादी सिद्ध किया। हेमचंद्र का सिर काबुल भेज दिया गया तथा देह दिल्ली के प्रवेशद्वार पर सड़ने हेतु टाँग दी गयी ! हेमचंद्र के वृद्ध पिता को जीवन बचाने हेतु इस्लाम कबूलने का विकल्प दिया गया। वृद्ध नहीं माना तो उसकी हत्या कर दी गयी।
पराजित मृत राजा का सिर काटना, देह लटकाना, मनुष्य के सिरों से मिनार बनाना, पराजित राजा के पिता को इस्लाम मानने हेतु कहना, न मानने पर हत्या कर देना; ये सब विजित प्रजा का मनोबल तोड़ने के उपाय हैं। ऐसे कृत्य सदियों तक, पीढ़ियों में परिवर्द्धित एवं परिवर्तित होते हुये स्थायी भय का सञ्चार करते हैं। बर्बर आक्रांताओं ने इस मनोवैज्ञानिक युक्ति द्वारा ही सभ्य समाजों की मेरुरज्जु को निष्प्रभ बना दिया।
मरने के पश्चात हेमचंद्र की देह के साथ जो किया गया, उसकी तुलना मारे गये रावण की देह की गति से करें। उस भ्रष्ट एवं आततायी राक्षस पर श्रीराम ने क्षात्र धर्म का आरोपण कर उसकी सद्गति सुनिश्चित की :
इयं हि पूर्वै: संदिष्टा गति: क्षत्रियसम्मता । क्षत्रियो निहत: संख्ये न शोच्य इति निश्चय: ॥
तदेवं निश्चयम् दृष्ट्वा तत्त्वमास्थाय विज्वर: । यदिहानन्तरम् कार्यं कल्प्यं तदनुचिन्तय ॥
हे विभीषण! पूर्वकाल में क्षत्रियसम्मत जो गति बताई गई है, वही इसे प्राप्त हुई है। युद्ध में लड़ते हुये मारा गया क्षत्रिय शोकयोग्य नहीं होता। शास्त्र के इस निश्चय पर विचार कर बुद्धि स्थिर करो तथा शोकजनित ज्वर से मुक्त हो आगे जो देह संस्कार, कल्प आदि करने हैं, उन पर विचार करो।
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पानीपत जैसा ही युद्ध अंतिम चरण में है। लोकसभा चुनाव के अंतिम चरण से पूर्व जो भी प्रकरण उछाले जा रहे हैं, वे प्रतिपक्षी की आँख को साध कर चलाये गये तीर ही हैं। आँख पर घात लगा कर चलाये गये तीरों से बचें। बंगाल में जो सुनाई पड़ रहा है तथा जो साक्ष्य सामने आ रहे हैं, उनमें वही पानीपत वाली बर्बर आक्रांता युक्ति परिवर्तित रूप में काम कर रही है, उद्देश्य एक है – अंतिम समय में भी परिणाम उलट देना तथा दीर्घावधि में मनोबल तोड़ कर सर्वस्वीकारी प्रवृत्ति का बना देना।
जब टक्कर काँटे की हो, तब अंतिम क्षण तक पूर्ण शक्ति एवं समर्पण के साथ लड़ना होता है अन्यथा परिणाम हेमचंद्र विक्रमादित्य वाला भी हो सकता है।
मतदान अवश्य करें, राष्ट्रहित में करें, यह समझ कर करें कि स्वीकार करें या न करें, आप सभ्यता के युद्ध में एक पक्ष हैं, स्वयं योद्धा, स्वयं सारथी, चूकेंं न, अंतिम चरण की एक चूक आगे वर्षों तक भारी पड़ सकती है।