पश्येम शरदः शतम् ॥
जीवेम शरदः शतम् ॥
बुध्येम शरदः शतम् ॥
रोहेम शरदः शतम् ॥
पूषेम शरदः शतम् ॥
भवेम शरदः शतम् ॥
भूषेम शरदः शतम् ॥
भूयसीः शरदः शतम् ॥
आयुरस्मै धेहि जातवेद: प्रजां त्वष्टरधि नि धेह्योनः ।
रायस्पोषं सवितरा सुवास्मै शतं जीवाति शरदस्तवायम् ॥
अभ्यञ्जनं सुरभ्यादुवासश्च तं हिरण्यमधि पूत्रिमं यत् ।
सर्वा पवित्रा वितताध्यस्मच्छतं जीवाति शरदस्तवायम् ॥
ऋतेन स्थूणा अघि रोह वंशोग्रो विराजोन्नप वृङ्क्ष्व शत्रून् ।
मा ते रिषन्नुपसत्तारो अत्र विराजां जीवात् शरद: शतानि ॥
पञ्चदिवसीय दीपपर्व पञ्चकोशीय देवी साधना व आराधना का पर्व है। पितरों के आह्वान पश्चात शारदीय नवरात्र से आरम्भ हो कर पितरों को विदा देने के आकाशदीपों तक का लम्बा कालखण्ड प्रमाण है कि यह विशेष है।
स्वास्थ्य, जीवन व शिल्प से जुड़े अथर्ववेद की उपर्युक्त प्रार्थनाओं से शरद ऋतु की महत्ता प्रकट होती है कि इस ऋतु से ही जीवन की काल परास को मापा जाता था। होनी भी चाहिये कि वर्षान्त पश्चात धरा पर जीवन का विपुल आरम्भ होता है तथा शारदीय समाहार के साथ अंत व आरम्भ भी।
दीपावली प्रजा, अन्न, प्राण व सम्वर्द्धन का पर्व है। अमावस्या को सिनीवाली देवी माना गया तथा इसे सरस्वती से जोड़ा गया। यह देवी प्रजनन की देवी थी, कामिनी रूपा। सन्तुलन हेतु ऋतावरी सरस्वती आईं तथा उससे श्रीयुक्त सम्पदा लक्ष्मी भी।
अथर्ववेद में ही सरस्वती से धन व धान्य की कामना की गयी है।
यथाग्रे त्वं वनस्पते पुष्ठ्या सह जज्ञिषे । एवा धनस्य मे स्फातिमा दधातु सरस्वती ॥
आ मे धनं सरस्वती पयस्फातिं च धान्यम् । सिनीवाल्युपा वहादयं चौदुम्बरो मणिः ॥
अन्न सञ्ज्ञा चावल हेतु ही प्रयुक्त थी तथा धान्य शब्द धान की शारदीय सस्य हेतु प्रयुक्त था। आगे इन शब्दों के व्यापक अर्थ रूढ़ हो गये।
सिनीवाली अमा देवी की प्रजनन क्षमता से सम्बन्धित मन्त्र वैदिक वाङ्मय में बिखरे हुये हैं, तैत्तिरीय संहिता का यह अंश देखें :
धन–धान्य, प्रजनन, नवारम्भ व जीवनोद्योग पुरुषार्थ चतुष्टय से जुड़ते हैं तथा दीपावली पर्व इससे प्रत्यक्ष जुड़ा होने के कारण सबसे महत्त्वपूर्ण पर्व है – समाज के प्रत्येक वर्ग हेतु समान रूप से। जीवन अर्थ व काममय है। धर्म धारण व सन्तुलन हेतु है। इन तीनों के साथ जीता हुआ व्यक्ति मोक्ष की प्राप्ति करता है। मोक्ष अर्थात मुक्ति, एक उच्चतर आयाम जिसे स्वतन्त्र निर्गृहस्थ रूप में पाने हेतु अनेक उपाय सन्न्यास आदि किये जाते रहे किन्तु लक्ष्मी व सरस्वती के साथ जीता गृहस्थ समस्त आश्रमों में सर्वोपरि ही माना गया क्योंकि वह अन्य समस्त आश्रमों का पोषक है। उसका प्रत्येक कर्म उस यज्ञ की भाँति है जिसमें वह विष्णु समान यजमान बना अपनी श्री के साथ समस्त भूतों की उदर पूर्ति करता है। जीवन उस विराट मानवीय परम्परा का अंतहीन सूत्र हो गया जिसमें सन्तति पश्चात सन्तति सबको साधती हुई निज कल्याण व मुक्ति हेतु प्रयत्नशीला हो निरन्तर उच्चतर स्तर की ओर बढ़ती रही।
बृहदारण्यक उपनिषद प्रजा सन्तानों के पोषक संवत्सर रूपी प्रजापति को रात्रियों की पन्द्रह सोम कलाओं के साथ जोड़ता हुआ उस उच्चतर स्तर की बात करता है जो सोलहवीं कला है, ध्रुवा है, नैरन्तर्य को सुनिश्चित करता आत्मा है :
स एष संवत्सरः प्रजापतिष्षोडशकलः ।
तस्य रात्रय एव पञ्चदश कला ।
ध्रुवैवास्य षोडशी कला ।
स रात्रिभिरेवा च पूर्यतेऽप च क्षीयते ।
सोऽमावास्याꣳ रात्रिमेतया षोडश्या कलया सर्वमिदं प्राणभृदनुप्रविश्य ततः प्रातर्जायते ।
तस्मादेताꣳरात्रिं प्राणभृतः प्राणं न विच्छिन्द्यादपि कृकलासस्यैतस्या एव देवताया अपचित्यै ॥
यो वै स संवत्सरः प्रजापतिः षोडशकालोऽयमेव स योऽयमेवंवित्पुरुषः ।
तस्य वित्तमेव पञ्चदश कलाः ।
आत्मैवास्य षोडशी कला ।
स वित्तेनैवा च पूर्यतेऽप च क्षीयते ।
तदेतन्नभ्यं यदयमात्मा ।
प्रधिर्वित्तम् ।
तस्माद्यद्यपि सर्वज्यानिं जीयत आत्मना चेज्जीवति प्रधिनागादित्येवाहुः ॥
अथ त्रयो वाव लोका मनुष्यलोकः पितृलोको देवलोक इति ।
सोऽयं मनुष्यलोकः पुत्रेणैव जय्यो नान्येन कर्मणा ।
कर्मणा पितृलोकः ।
विद्यया देवलोकः ।
देवलोको वै लोकानां श्रेष्ठः ।
तस्माद्विद्यां प्रशꣳसन्ति ॥
धन ही प्रजापति की पन्द्रह कलायें हैं किंतु उनके साथ सोलहवीं आत्मा है जो विद्यासमन्विता है। दीप निरन्तरता का प्रतीक है। अखण्ड दीप व युगों युगों से अखण्ड दीपावली क्षय के बीच भी विद्या रूपी अमरता के साथ जीने के उदात्त रूप हैं।
स्पष्ट है कि श्री व सरस्वती में निर्वैर है, सहकार है, साहचर्य है, दोनों साथ रहें तब ही अर्थ व काम हैं, धर्म है तथा उनसे ही मोक्ष है। सुख का इससे अच्छा मार्ग क्या हो सकता है?
विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम् । पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम् ॥
धनात् धर्मम् पर ध्यान दें, विद्या विनय पर भी तथा पात्रता पर भी। सुख तब ही है, जीवन सुख से जीने के लिये है। सुखी जीवन की साधना करें।
उद्योगी हों, विद्वान हों, धनी हों, यशस्वी हों। आप की व राष्ट्र की कीर्ति बढ़े।
उपै॑तु॒ मां दे॑वस॒खः की॒र्तिश्च॒ मणि॑ना स॒ह ।
प्रा॒दु॒र्भू॒तोऽस्मि॑ राष्ट्रे॒ऽस्मिन् की॒र्तिमृ॑द्धिं द॒दातु॑ मे ॥

Amila Tennakoon [CC BY 2.0], via Wikimedia Commons