जिहादी आतंक की घटनायें होती रहती हैं, यथा – साधुओं व मन्दिरों के पुजारियों की हत्यायें, यौन जिहाद में लड़कियों को फँसा कर उनका सर्वस्व हरण, दैनिक उत्पात व उत्पीड़न, गोहत्या, परिवारों का उन्मूलन, आतंकित कर गाँव, क्षेत्र, मुहल्ले खाली करवा देना आदि। इन्हें अल्पकालिक व दीर्घकालिक सुविचारित व सुनियोजित सामरिक नीतियों का अंग माना जाना चाहिये न कि छिट-पुट असम्पृक्त घटनायें मात्र।
सामाजिक सञ्चार माध्यमों के इस काल में कुछ घटनायें रेखांकित और प्रचारित हो जाती हैं, जिनसे कुछ दिन उत्तेजना रहती है और आगे सब शांत हो जाता है। पुलिस प्रशासन भी कार्रवाइयाँ आरम्भ कर देता है और लम्बी प्रक्रियाओं में लोगों को सब भूल जाता है। स्यात ही कोई असम्बद्ध व्यक्ति यह देखने वाला होता है कि आगे क्या हुआ या क्या हो रहा है? स्थानीय समाचारपत्र भी अनुवर्तन नहीं करते और जनता कुछ सच, कुछ झूठ मिला कर कहानियाँ गढ़ कर सो जाती है।
यह सम्पूर्ण भारत का सच है।
कुछ मेधावी लोग विश्लेषण के बड़े धनी होते हैं, हर घटना पर सम्मोहित करने वाले विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं किंतु उनसे भी भौमिक स्तर पर कुछ काम नहीं हो पाता। रोटी, कपड़ा, छत, परिवार और कॅरिअर के चक्कर में पड़े कुछ जागृत अपनी भँड़ास निकाल लेते हैं और पुन: अपनी दिनचर्या में लग जाते हैं, जैसे कुछ हुआ ही न हो। अपनी दिनचर्या का अभ्यस्त और उसके अतिरिक्त और कुछ न करने वाला हममें से प्रत्येक वास्तव में बहुत अकेला है, जिहाद का आखेट होने पर ‘बपुरा’ कहलाने को अभिशप्त।
यह भी सम्पूर्ण भारत का सच है।
बड़ी हास्यास्पद स्थिति है। मीडिया, कथित बुद्धिजीवी, प्रतिष्ठित संस्थाओं के आचार्य, अधिकारी और जाने कितनी संस्थाओं के सच जानते हुये भी कोई दुर्घटना होने पर हम पहले इन्हें ताने मारते हैं – देखो! वे चुप हैं, देखो! वे तथ्य की तोड़-मरोड़ कर रहे हैं, छिपा रहे हैं आदि इत्यादि। अरे बंधुओं! वे जब हैं ही वैसे तो आप सब बता और दिखा किन्हें रहे हैं? वे सञ्ज्ञान लेंगे क्या? सुधर जायेंगे? सञ्ज्ञान ले भी लिये तो क्या शताब्दियों से चली आ रही स्थिति परिवर्तित हो जायेगी? कब तक ऐसे बालू में अपने सिर डाले परिवाद और वाद-विवाद में लगे रहेंगे? प्रशासन आप का सामूहिक मनोबल बनायेगा? पुलिस आ कर आप में चेतना और कर्मठता भरेगी? मीडिया आप के संगठन बनायेगी?
सच यह है कि हम प्रथम श्रेणी के सुविधाजीवी हैं, आत्ममुग्ध पाखण्डी और आलसी। हम सभी भीतर कहीं बहुत डरे हुये हैं और हममें एकता तथा बृहद हित में दूसरे का साथ देने की सोच और क्षमता बचे ही नहीं! यह भय आज से नहीं, शताब्दियों से हमारे भीतर भरता चला आ रहा है और इसके कारणों का उन्मूलन हमारी कायर सदाशयता और कथित उदारता के द्वारा हो जायेगा, भीतर ही भीतर हम आज भी ऐसी दुराशा पाले हुये हैं। इन सबका मिला जुला प्रभाव यह हुआ है कि हम अनजाने ही एक दूसरे से कटते चले गये हैं। हमारी संकुचित आत्मकेंद्रित महत्त्वाकांक्षायें हमारे क्षुद्र मानस को आवरण दे कर किसी भी अल्पकालिक या दीर्घकालिक या आसन्न या तात्कालिक आपदा के प्रति अंधा बना चुकी हैं।
यह भी हमारा ही सच है।
कोई भी व्यवस्था या प्रशासन उपद्रव नहीं चाहता। किसी भी अवांछित प्रसार को रोकने हेतु वह सहज ही उन्हें दबाता है या उनके हितों की उपेक्षा करता है जो सहनशील होते हैं। सहनशीलता के साथ साथ निष्क्रिय उदासीनता भी जोड़ लें। जनसामान्य में तो यह सामान्य बुद्धि स्यात है ही नहीं, किंतु प्रशासन भली भाँति जानता है कि उपद्रवी तत्त्व आकाओं द्वारा पाले पोसे जाते हैं तथा उनका प्रयोग शतघ्नी के गोले की भाँति होता है, स्वयं नष्ट हुये, अनेक को नष्ट किये और तिरोहित हो गये। उनका स्थान लेने को और गोले पङ्क्तिबद्ध रहते ही हैं। उन सबका मनोबल भी बहुत बढ़ा होता है, जबकि शान्तिप्रिय जनता को खँरोच से भी डर लगता है।
ऐसा केवल यहाँ ही है, ऐसा नहीं है।
सारा सभ्य संसार जिस रोग के कारण जिहाद के आगे नत है, जो सरकारों से कहीं बहुत अधिक जनता को सङ्क्रमित किये हुये है, वह है – निष्क्रियता के साथ साथ विकृत सोच की कथित मानवीयता को आतताइयों पर भी लागू करने का आत्महंता दुराग्रह। विश्वविद्यालयों में दूषित होते युवा हों या चाकरी करते भद्रलोकी, यह रोग सबके भीतर कूट कूट कर भरा है। यह रोग उनके कुण्ठित अहङ्कार को ‘बड़ा’ होने की सन्तुष्टि देता है, व्यर्थ से बीतते जीवन में कुछ सार होने का भ्रम देता है और सङ्कटों के दूर रहने की झूठी सांत्वना भी।
प्रत्येक शुक्रवार को वे एकत्र होते हैं, सब कुछ गड़बड़ ही होता हो, ऐसा नहीं है किंतु यह एक ज्वलंत यथार्थ है कि यह अवसर जिहाद को आगे बढ़ाने में, नित नवीन योजनायें बनाने में और भूल चूक पर विचार कर और मारक कैसे हों, इस हेतु काम करने में भी उपयोग में लाया जाता है। दिल्ली दंगों से सम्बंधित पूछताछ में जो कुछ उद्घाटित हो रहा है, उसे एक तो पढ़ने वाले ही बहुत अल्प हैं क्योंकि अधिकांश को लुट-पिट जाने पर छाती पीटने की तात्कालिकता के अतिरिक्त कुछ नहीं आता जाता, दूसरे वे भी केवल विश्लेषण ही कर सकते हैं, मानसिक जड़ता के कारण आगे बढ़ कर क्रियाशील नहीं हो पाते।
- अंतिम बार कब मंदिर गये थे? कब वहाँ अपने समवय मित्रों के साथ बैठ कर इस समस्या की रोकथाम हेतु कुछ ठोस करने पर विचार किये थे?
- परिवार से दिन प्रतिदिन बढ़ते जिहादी संकट के बारे में कब चर्चा किये थे?
- कब अपनी संतानों से यह बताये थे कि धनार्जन मात्र ही महत्त्वपूर्ण नहीं, उसकी सुरक्षा भी है?
- कब उन्हें बताये थे कि चाकरी के अतिरिक्त भी बहुत से ऐसे काम हैं जिनमें धन अर्जन तो होता ही है, उसके साथ साथ समाज हेतु कुछ करने से रोकने हेतु पाँवों में बेंड़ियाँ नहीं पड़ी होतीं?
- कब उन्हें बताये कि कोई काम छोटा नहीं होता तथा जो कथित रूप से छोटे लोग हैं, वे भी समाज के स्वास्थ्य व समृद्धि हेतु उतने ही आवश्यक हैं जितने तोंदू बाबू?
- कब उन्हें बताये कि बकरा काटता कसाई आर्थिक एवं अन्य दृष्टियों से भी आप से बहुत सक्षम है, ऐसे धनार्जन के साधन घृणित नहीं, अत: अपनाये जा सकते हैं? … ऐसे जाने कितने और प्रश्न हैं।
हमें आत्ममंथन करने की आवश्यकता है। सरकारों के भरोसे बैठने की मानसिकता से मुक्ति की आवश्यकता है। चाहे अति लघु स्तर पर ही क्यों न हो, रोटी, कपड़ा, छत, परिवार और कॅरिअर से इतर भी निस्स्वार्थ भाव से कुछ ठोस करने की आवश्यकता है। हममें से कितने कर रहे हैं?
जब तक व्यर्थ के रूदन व विश्लेषण तज, स्वार्थी, धूर्त व अकर्मण्य प्रवृत्ति से मुक्त हो बहुसङ्ख्यक जन भौमिक स्तर पर काम करना आरम्भ नहीं करेंगे, तब तक स्थिति ऐसी ही रहनी है। और यह भी सच है कि आज से आरम्भ करेंगे तो भी अनुकूल परिणाम आने में कुछ वर्ष तो लगेंगे ही। प्रारम्भ में असफलताओं के साथ विघ्न बाधायें भी मिलेंगी ही!
निर्माण में समय लगता है, ध्वंस में नहीं। निर्माण में नहीं लगेंगे तो एक दिन ध्वस्त हो ही जायेंगे – यह सार्वकालिक व सार्वभौमिक सच है। हमें अपनी ‘सचाइयों’ में आमूल-चूल परिवर्तन करने ही होंगे, और कोई उपाय नहीं। ट्विटर या फेसबुक पर रुदाली गाना तो किसी भी दृष्टि से विकल्प नहीं, आकाओं के कान हैं ही नहीं!