काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के धर्म सङ्काय में अधार्मिक पंथ के अनुयायी की आचार्य पद पर हुई नियुक्ति का जो विरोध हुआ है, उसने हमारी अकादमिकी एवं पूरे शिक्षा तंत्र के एक बहुत बड़े सङ्कट को अनावृत्त किया है। जानते तो लोग बहुत पहले से हैं किंतु जैसा कि समस्त समस्याओं के साथ होता, कुछ दिनों पश्चात या तो समायोजन कर लिया जाता है या आँखें मूँद ली जाती हैं। चूँकि यह उच्च शिक्षा से सम्बंधित है, समस्या साधारण नहीं है। इससे भारत का भविष्य जुड़ा हुआ है। समस्या है जातीय व राजनीतिक समूहबद्धताओं का अकादमिकी में विकृत हस्तक्षेप, उसके कारण वस्तुनिष्ठा का अभाव तथा अंतत: अकादमिक कर्म एवं विद्यार्थियों, देश के कर्णधारों की गढ़न में गुणवत्ता का भी घनघोर अभाव। इस पर ग्लानि ही जा सकती है कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय के नाम से ‘हिंदू’ हटा देने की माँग करने वाले भी वहाँ पाये जाते हैं। भारत के प्राय: समस्त उच्च मानविकी शिक्षा संस्थान रोगग्रस्त हैं। आश्चर्य नहीं कि हम गुणवत्ता क्रम में सदैव नीचे बने रहते हैं।
इन सबको देखता किन्तु समझ न रखने वाला एक बहुत बड़ा प्रतिक्रियावादी एवं आत्मघाती पढ़ा लिखा एवं प्रभावी वर्ग भी इस पारिस्थितिकी ने गढ़ा है। यह वर्ग साधारणीकरण की प्रवृत्ति, अचिन्तन तथा कुचिंतन से ग्रस्त है। अपने अति प्रतिक्रियावादी उत्साह में यह वर्ग सामान्य घोष एवं विशेष प्रावधानों की विभाजक एवं सीमा रेखाओं को देख ही नहीं पाता तथा हास्यास्पद तर्क देता है। कहें तो उसे दर्शन की पात्रता ही नहीं है क्योंकि जिन लोगों ने उसे विश्वविद्यालयों में आचार्य बन कर गढ़ा, वे भी इस वर्ग के ही थे। सभ्यतायें एवं संस्कृतियाँ कैसे पीढ़ियों तक अपना विनाश लिखती रह सकती हैं, आधुनिक भारत में बहुत स्पष्ट देखा जा सकता है।
टी वी पर एक वाद विवाद में धर्म सङ्काय के एक विद्यार्थी के समक्ष एक वैसे ही आचार्य दिखे। विद्यार्थी बारम्बार विशेष प्रावधानों की बात कर रहा था जब कि आचार्य सामान्य घोष की। संवाद की इस खाई को आत्मघाती प्रस्तोता अपने प्रतिक्रियावादी अविनय में और बढ़ाता जा रहा था। प्रश्न उठा कि क्या वास्तव में आचार्य समझ नहीं पा रहे थे या समझते हुये भी धूर्तता वश राजनीतिक एवं जातीय आग्रहों के कारण वैसा कर रहे थे? दोनों में चाहे जो सच हो, ऐसा आचार्य जो वस्तुनिष्ठ हो कर एक बार ध्यान तक न दे सके तथा सामान्य जन की भाँति, आवरण के साथ, आचरण करे, वह मनुष्य ‘गढ़ने’ के गुरुतर कार्य हेतु सर्वथा अयोग्य है। हमने उच्च शिक्षा संस्थानों में ऐसे जाने कितने गीध व अजगर बैठा रखे हैं।
अभिनय, आक्रामक व पक्षपाती भङ्गिमायें तथा दुराग्रह दुर्भाग्य से हमारे बौद्धिक संसार के यथार्थ बन गये हैं तथा सत्यनिष्ठा एवं विद्यानिष्ठा तिरोहित। हमारे शैक्षिक संस्थान यदि कूड़ा उत्पन्न करने के संयंत्र बन गये हैं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये। यह रोग विज्ञान व तकनीकी से सम्बंधित संस्थानों को भी लग चुका है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, चेन्नई में एक छात्रा द्वारा आत्महत्या को ले कर जो ब्राह्मण विरोधी कथ्य गढ़ा जा रहा है, वह बिगड़ चुके व्रण का एक लक्षण मात्र है। उत्तर भारत के JNU परिसर में ‘ब्राह्मण भारत छोड़ो’ जैसे नारे लिखे जाते हैं तथा ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाल्लाह’ के नारे लगते हैं। काव्य गोष्ठियों का आवरण लगा राष्ट्रविरोधी नक्सली आंदोलनों के पक्ष में बैठकें होती हैं, उनके द्वारा की गयी हिंसा को वर्गशत्रु का नाश बता कर उत्सव मनाया जाता है।
समांतर या वैकल्पिक या सबाल्टर्न, जो नाम दें, इस घातक प्रवृत्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तक सीमित समझना उसी दोषपूर्ण विमर्श व निष्कर्ष तक पहुँचायेगा जो सामान्य घोष व विशेष प्रावधानों के स्वार्थी सुविधाजनक उपयोग से उपजते हैं। इस देश के समूचे बौद्धिक तंत्र का सत्तानाश हो चुका है। यह बड़ी ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है, उससे भी दुर्भाग्यपूर्ण यह कि भारत मनसा खण्ड खण्ड है, जोड़ने वाले एवं खाइयों पर पुल बनाने वाले जन एवं विचार या तो मर चुके हैं या मरते जा रहे हैं। ऐसे में शिक्षा के क्षेत्र में आमूल चूल परिवर्तन की आवश्यकता भी है तथा परिवर्तन एक प्रकार से असम्भव भी हो चुका है। लघु को ले कर भी स्वार्थी एवं समूह केंद्रित वर्ग हिंसा का ताण्डव करने में सक्षम हैं तथा राजनीतिक लाभ हानि की मीमांसा करने वाला प्रशासन तंत्र हाथ पर हाथ धरे प्रतीक्षा मात्र करने को अभिशप्त। राजदण्ड एवं दृढ़ इच्छाशक्ति, दोनों जाने किस कोने में पड़े मत्कोटकों द्वारा शनै: शनै: उदरस्थ किये जा रहे हैं।
जो जन विश्लेषण करने में सक्षम हैं, उनके पास भी या तो समाधान है ही नहीं या वे भी कन्नी काट सुविधाजनक हाय हाय करने को ही कर्तव्य की इति श्री समझते हैं। लोततंत्र जनसमूह का तंत्र होता है, जैसा जनसमूह वैसा तंत्र। शत्रुबोध का अभाव व सुविधाजीविता के प्रति आत्मघाती समर्पण, आज की भारती की संतति के नग्न यथार्थ हैं। परिवर्तन हो भी तो कैसे जब कि खण्डित आस्था व कटुता से भरे सङ्घर्षरत लघुसमूहों में देश मानसिक स्तर पर बँटता जा रहा है।
सबकी अपनी लाठी है, सबका अपना रोना ।
दूरन्देशी मिली कहीं न, छाना कोना कोना !