आज जब कि युद्ध के उपादान, समय, क्षेत्र, अवधि, माध्यम आदि में विशाल विविधता आ चुकी है, सुरक्षा की ‘सकल स्थिति’ पर विचार करने की आवश्यकता है।
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लोकतंत्र का महापर्व – लोकसभा चुनाव चल रहा है। ग्यारह अप्रैल से उन्नीस मई तक अर्थात अड़तीस दिनों तक मतदान तथा चार दिनों पश्चात गणना। इतनी लम्बी प्रक्रिया के नेपथ्य में सुरक्षा का प्रश्न एक बड़ा पक्ष है। नवोन्मेषी उपायों द्वारा सम्पूर्ण प्रक्रिया की अवधि को अल्प किया जाना अति आवश्यक है।
ऐसे में महाराष्ट्र के गढ़चिरोली में नक्सलियों द्वारा घात लगा कर किये आतंकी आक्रमण में पन्द्रह सुरक्षा बलों का वीरगति को प्राप्त होना बड़े प्रश्न खड़े करता है। ऐसी घटनायें वैश्विक स्तर पर इतनी हो चुकी हैं कि कहीं न कहीं जनसामान्य इनके प्रति सम्वेदनहीन सा हो चला है, अभ्यस्त कह सकते हैं। जन आक्रोश की तीव्रता अब अन्य कारकों पर अधिक निर्भर करती है, जनहानि पर अल्प।
आज जब कि युद्ध के उपादान, समय, क्षेत्र, अवधि, माध्यम आदि में विशाल विविधता आ चुकी है, सुरक्षा की ‘सकल स्थिति’ पर विचार करने की आवश्यकता है।
बहुत दिनों पहले परमाणवीय आक्रमण की स्थिति में केन्द्रीय सत्ता को प्रभावी रूप में जारी रखने और वैकल्पिक द्वितीय, तृतीय आदि परतों के मानकीकरण आदि को स्थायी रूप देने की बात चली थी। बड़े स्तर की बात थी किन्तु भावी भयावह स्थिति के केवल एक पक्ष को ही रेखांकित करती थी।
सुरक्षा सम्बन्धित विषयों पर हमारी उदासीनता एक निर्वात सी है जो हमारी सामूहिक मनीषा में है। हम श्रुति, स्मृति, साहित्य, ब्राह्मण, पुराण, ज्योतिष, राजनीति आदि ‘सुरक्षित’ और किंचित मनोविलासी विषयों पर यहाँ बहुत लिखते, पढ़ते और चर्चा करते हैं किंतु रक्षा, अर्थ, विज्ञान, तकनीकी से सम्बन्धित विषयों पर या तो करते ही नहीं या उद्धत छिछली प्रतिक्रियाओं में ही उलझे रहते हैं। यह हानिकर स्थिति है। पढ़ा लिखा सामान्य मध्यवर्ग जो कि रीढ़ है वह यदि इन विषयों से उदासीन है, यदि उसे दैनिक आपा धापी से मिले समय में इन विषयों पर चर्चा व्यर्थ लगती है तो कहीं न कहीं भारी गड़बड़ है।
पुराने लोग ‘सन चार’ का अकाल. बासठ, पैंसठ, एकहत्तर के युद्ध, आपातकाल आदि पर कहते सुनते एवं चर्चायें करते थे। वे लोग भी रोटी और परिवार की दैनिक आवश्यकताओं से राशनिंग के युग में जूझते थे किन्तु रेडियो, समाचार पत्र आदि से जान कर चर्चा करते थे, सुनते सुनाते थे। हममें से कितने कारगिल युद्ध के बारे में अपने बच्चों को बताते हैं? बताते भी हैं कि पिछले बीस वर्षों में विभिन्न क्षेत्रों में देश में क्या हुआ? सोचने की बात है कि क्या संवाद टूट रहे हैं या यह कहें कि संवाद निरर्थक दिशा में अधिक हो रहे हैं?
गण और गणमुख्य के रूप में हो, राजा के रूप में हो, अमात्य परिषद के रूप में हो; सत्ता के केन्द्र पर दैवीयता का प्रक्षेप पुरानी सभ्यताओं की विशेषता रही है। आधुनिक लोकतंत्र में स्थिति किंचित भिन्न है। सत्ता के केन्द्र का एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु पर स्थानांतरित हो जाना अब न सरल है और न ही सहज। जनता के स्तर पर हमें सुरक्षा सम्बंधित विभिन्न आपदाओं की सम्भावनाओं पर विमर्श करना चाहिये। संसद पर आक्रमण तो हो ही चुका है, क्या होगा यदि वैसा कोई आक्रमण सफल हो गया? इसे नक्सल अराजकतावाद, शत्रुराष्ट्र की मंशा एवं देश को खण्ड खण्ड करने हेतु चल रहे विविध आंदोलनों से जोड़ कर देखें। बहुत ही असम्भाव्य स्थिति की कल्पना करता हुआ प्रश्न है किंतु इस पर भी विचार और संवाद होने चाहिये। लोक की चेतना अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता द्वारा कार्रवाई का मार्ग निश्चित करती है।
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चुनाव प्रचार एवं उसके गिरते स्तर पर बातें होती रहती हैं किन्तु यह स्थिति कोई आज, एक दिन में नहीं बनी है। इस उदाहरण पर ध्यान दें :
‘सहसा कोई शै हवा में सनसनाती हुई आई। एक जूता! मराठी जूता! लाल चमड़ी की नोकदार जूता, जिसकी एड़ी में खुरी लगी हुई थी। यह जूता सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के गाल पर लगा और फिरोजशाह मेहता से टकराया। यों उड़ते उड़ते जूता धरती पर जा गिरा जैसे वह कोई सिगनल हो। पगड़ीधारी लोगों की सफेद तरंगों ने कांग्रेस मंच पर धावा बोल दिया। लपकते झपकते और क्रोध से फुंकारते हुये वे आये और जो कोई भी मॉडरेट उन्हें दिखाई पड़ा, दनादन उसी की पिटाई कर दी। दूसरे ही क्षण मैंने इण्डियन नेशनल कॉङ्ग्रेस का हुड़दंग समाप्त होते देखा।’
– एन. जी. जोग, लोकमान्य बाल गंगाधर टिळक (कांग्रेस अधिवेशन, सूरत काण्ड, दिसम्बर १९०७)
अब बहुत कुछ बृहद एवं जटिल रूप में होता है। इतनी बड़ी एवं विविध जनसंख्या में सभी वयस्कों को मतदान एवं मतमूल्य का समान अधिकार देने पर स्तर बहुत शुचितापूर्ण नहीं रहना है। यह देखना होगा कि सकल नियंत्रण एवं प्रभाव में चुनाव कैसे सम्पन्न हो रहे हैं या होते रहे हैं। भारत हेतु स्थिति शुभ ही रही है। किसी भी भारतीय को इस पर गर्व होना चाहिये। बंगाल से वर्तमान में जो सुनाई पड़ रहा है, वह अवश्य ही चिन्तनीय है क्योंकि वह उपद्रव ग्रस्त देशों में होने वाले चुनावों सी स्थिति का आभास दे रहे हैं।
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श्रीलंका में हुये सुनियोजित आतंकी आक्रमणों में तीन सौ से भी अधिक जन के हत होने की स्थिति एवं उसके पश्चात भी वैश्विक स्तर पर हो रही छिट पुट घटनायें यह माँग करती हैं कि अब समस्या के मूल पर बिना किसी झिझक के बोला जाय। भारत में स्थिति और भयावह है जो कि दो अतिवादी विचारधाराओं वामपंथ एवं इस्लाम के मेल से उपजी है। केरल उदाहरण है।
अपनी पुस्तक ‘तिलक से आज तक’ में हंसराज रहबर ने लिखा है :
‘१९१९ के खिलाफत आन्दोलन में बहुत से मुस्लिम नौजवान हमारे देश से हिजरत करने चले गये थे। उनमें से कुछ रूस पहुँचे। उन्हों ने वहाँ 1920 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बनाई। वे ‘मुस्लिम बन्धुत्त्व’ (Pan Islamism) के सामंती सिद्धांत से प्रभावित थे और इक़बाल के इस कथन के अनुसार “मुसलिम हैं हम, वतन है सारा जहाँ हमारा” इस्लाम को ही राष्ट्र मानते थे, जिसकी कोई भौगोलिक सीमायें नहीं हैं। उन्हों ने कम्युनिज्म का अर्थ भी यही समझा यानि ‘मुस्लिम बन्धुत्त्व’ ही उनके लिये कम्युनिज्म बन गया। परिणाम यह कि अंतर्राष्ट्रीयता को भौगोलिक सीमाओं से परे और मार्क्सवाद को राष्ट्रवाद का विरोधी मान लेने की धारणा तब से चली आ रही है। जो अपने को राष्ट्रवादी माने वह निम्न पूँजीवादी संकीर्ण भावना का शिकार है और उसे अपने को कम्युनिस्ट कहने का अधिकार नहीं है।
जब नींव ही ग़लत पड़ गई तो इमारत सही कैसे बनती? मार्क्सवाद को राष्ट्रीय विशेषताओं से जोड़ने और उसे निश्चित राष्ट्रीय रूप प्रदान करने का सवाल ही पैदा नहीं होता।’
इस्लाम एक सीमाविहीन राष्ट्र है तथा इस तथ्य के आलोक में शब्दकोष में infestation और swarming के अर्थ देखना उपयुक्त होगा। इस्लाम को अपने भीतर ‘सुधार’ करने ही होंगे। आवश्यकता इस बात की है कि स्वर भीतर से ही उठें जो कि अभी तो सुनाई नहीं पड़ रहे हैं।
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एक और समस्या कथित उदारवादियों की भी है जिन्हें ऐसा सब कुछ वरेण्य लगता है जो परोक्ष रूप से भारत को हानि पहुँचाने वाला ही होता है। आदर्शवाद की पैकिंग में विनाशक तत्त्व खेल खेल रहे हैं तथा उनके पास औचित्य सिद्ध करने के लुभावने तर्क भी हैं।
बृहद स्तर पर देखें तो ‘युद्ध सीमा पर’ सेना उतनी नहीं लड़ती है, जितनी ‘घर’ में जनता। जनता की बात के अनेक पक्ष हैं। जनता में स्वार्थी समूह होते हैं। उनकी चेतना केवल अपने समूह के हितार्थ ही काम करती है। ऐसे में अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष दोनों प्रकार के युद्धों में ऐसे समूह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में देशहित के विरुद्ध काम करते हैं। भारत में ऐसे समूह बहुत अधिक हैं, कारण वही पुराना है – राष्ट्रीय स्तर पर आत्महंता सम्मोहन का प्राचुर्य जिसका सबसे अधिक प्रभाव शिक्षा तंत्र पर है। सतर्क सुरक्षा संस्कृति तो छोड़िये, हमने सहज प्राकृतिक सुरक्षा बोध से हीन ‘डोडो’ ही दीक्षित किये, किये जा रहे हैं। ये अपनी रक्षा तक नहीं कर सकते, आक्रमण तो बहुत दूर की बात है।
सामाजिक मीडिया पर मंच के स्वभाव के कारण समूह हितैषी बहुत स्पष्ट रूप में सामने आते हैं। जो स्पष्ट रूप से उन्माद में आ कर तुरंत कार्रवाई की माँग करते हैं या जो संयम का राग अलापते हैं उनका अभिज्ञान अपेक्षतया सरल है।
उस समूह का अभिज्ञान कठिन है जो जान बूझ कर और अनजाने भी आत्महंता सम्मोहन के प्रभाव में अपनी प्रतिक्रिया लिखता है। किसी बड़ी घटना के होने तक वह समूह ऐसे मुद्दों पर क, ख, ग भी नहीं लिखता किंतु घटना हुई नहीं कि त्वरित प्रतिक्रिया के साथ उपस्थित हो जाता है। निन्दा करता है, सहानुभूति व्यक्त करता है और भावुक बातें करने के पश्चात अपने ‘समूह हित’ की बात धीरे से सरका देता है। यदि निकट भूत में या वर्तमान में भी ऐसी घटनायें हुई हैं जिनके कारण उसका समूह लज्जित है या उसकी किरकिरी हुई है तो ऐसे स्वर्णिम अवसर का उपयोग वह चिकनी धवल बातों के ब्याज से जनता के मन में हानिहीन दिखता कीड़ा सरकाने में करता है। समूह लज्जा से उबरने के लिये वह बड़ी बातें करता है जिससे ध्यान हट कर बड़ी घटना पर केन्द्रित हो जाय। यह काम वह कुटिल दक्षता के साथ करता है। वह मुख्य मीडिया के स्वार्थी तत्त्वों के काम काज को ही प्रतिबिम्बित कर रहा होता है।
ऐसों से सतर्क रहिये जो कृत्रिम संतुलन स्थापित करती चिकनी चुपड़ी या घुमावदार बातें करते हों। समस्या इसकी होगी कि आम में बौर टिक नहीं रहे तो वे ‘ग्लोबल वार्मिंग’ पर विफलता की बात अवश्य करेंगे। पेयजल से जुड़ा कोई प्रकरण होगा तो वे पड़ोस के केबल ऑपरेटर की समस्या ला पटकेंगे। यदि सूक्ष्म हो कर ध्यान देंगे तो आप पायेंगे कि ऐसे समूह नवधनाढ्य वर्ग से अधिक जुड़ते हैं। यह वर्ग अपने हित को ले कर सबसे अधिक संकीर्ण होता है लेकिन विश्व बन्धुत्त्व से अल्प बात ही नहीं करता! ऐसे ‘प्रतिक्रिया’वादियों से सतर्क रहने की आवश्यकता है जिन्हें अपने प्रभुओं और उनके ‘खानदानियों’ का कुछ वर्षों में ही हजारो करोड़ की सम्पत्तियों का स्वामी हो जाना खटकता ही नहीं वरन वे वरेण्य और अनुकरणीय लगते हैं। सीमा का प्रत्यक्ष युद्ध इस युद्ध के आगे कुछ नहीं है जिससे हम वर्षों से हारते हुये जूझ रहे हैं।
हाँ, युद्ध में विजय महत्त्वपूर्ण होती है, उपाय या नीतियाँ नहीं। भीतर छिपे क्षुद्र-हित-समूहों को पहचानना आवश्यक है तथा स्थानीय स्तर पर संगठित हो विधि सम्मत उपायों से लघु, निरंतर एवं निश्चित प्रतिरोध भी।
वीर बलिदानियों को नमन और श्रद्धांजलि।