चीनी विषाणु SARS-CoV-2 से उपजी CoViD-19 महामारी के कारण लगी बन्दी को आंशिक रूप से खुले तीन दिन हो गये। मदिरा आपणों पर उमड़ी भीड़ ने जनता के एक वर्ग का वास्तविक पक्ष दिखाया ही है, सत्ताधीशों की लिप्सा भी स्पष्ट हुई है। भारत के अनेक क्षेत्रों से श्रमिकों को पैदल ही घर लौटते देखना पीड़ादायक है। सरकारों ने उनके लौटने हेतु विशेष परिवहन व्यवस्थायें की हैं किंतु एक बड़ा प्रश्न मुँह बाये खड़ा है, तब जबकि अब प्रतिष्ठान खुलने लगे हैं, काम आरम्भ हो रहा है, क्या श्रमिकों का लौटना ठीक है? कुछ मुख्यमंत्रियों ने धन एवं सुविधायें प्रदान करने के आश्वासन के साथ उनसे रुकने के अनुरोध किये हैं किंतु एक तो मानव मन, दूसरे प्रचारतंत्र की कहानी से इतर बिगड़ी स्थितियाँ श्रमिकों को लौटने को ही विवश कर रही हैं। ऐसे में उत्पादन एवं निर्माण आदि के वास्तविक रूप से पुन: ढर्रे पर आने में महीनों लग सकते हैं। विषाणु के विकराल प्रसार की आशंकायें अभी भी यथावत हैं तथा कोई कुछ निश्चित कहने की स्थिति में नहीं है, सचाई यही है। यह केवल भारत की ही नहीं, प्रकारान्तर से समस्त विश्व की स्थिति है।
ऐसी अवसाद की जननी वास्तविकता के होते हुये भी ऐसा बहुत कुछ है और बहुत कुछ उद्घाटित भी हुआ है जिस पर समस्त मानवता को गौरवान्वित होना चाहिये। शताब्दी पूर्व एक महामारी में वैश्विक स्तर पर अनुमानत: ५ करोड़ लोग काल के गाल में समा गये थे जिनमें एक तिहाई भारत से ही थे। उस समय से तुलना करें तो सरकारों एवं जनता, दोनों ने दिखा दिया है कि मानव जीवन बहुत महत्त्वपूर्ण है तथा सम्पूर्ण मानवता इस महामारी से जूझने में पहले से अत्यंत अधिक रूप से जुड़ी एवं लगी है।
ऐसा कैसे हुआ? क्यों हुआ? इसके पीछे पिछली शताब्दी में मानव की वे उपलब्धियों हैं जिन्होंने आज समस्त विश्व को एक दूसरे से अत्यंत निकटता से जोड़ दिया है। औपनिवेशिक अत्याचारों व आतंक के तिरोहण से संवेदनायें और प्राथमिकतायें एक हुई हैं, मनुष्य और मनुष्य सम धरातल पर हैं। तकनीकी ऊँचाइयों के कारण आज समस्त भूगोल इस प्रकार एक तंत्र से जुड़ा हुआ है कि वैश्विक स्तर पर विडियो सम्मेलनों एवं अन्तर्जाल सम्पर्क के माध्यम से घर बैठे काम करना सम्भव है। हम बंदी का निर्णय क्यों ले सके? क्योंकि आवश्यक वस्तुओं व सुविधाओं की आपूर्ति के प्रति निश्चिंत थे। यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है।
क्या यह संक्रामक विषाणु वास्तव में एक बड़ी जनसंख्या का नाश करने में सक्षम है? या इसके पीछे कोई बड़ा आर्थिक षड्यन्त्र है? लॉकडाउन या बंदी आवश्यक थी/है या नहीं? यदि आवश्यक है तो कितने दिन, किस प्रकार? क्या यह वास्तव में स्थिति को नियंत्रित करने व मृत्यु की संख्या को सीमित रखने में प्रभावी सिद्ध हुई? या सूचनायें एवं आँकड़े भ्रामक चित्र प्रस्तुत कर रहे हैं? क्या कुछ जीवन बचाने हेतु अर्थव्यवस्था की बलि उचित थी? … ऐसे अनेक प्रश्न उठ सकते हैं, उठेंगे। इन प्रश्नों की ही भाँति इनके उत्तर, उन पर वाद-विवाद व विमर्श आदि भी अंतहीन व अनिर्णायक ही रहने हैं, चलते रहेंगे किंतु इन सबके बीच से एक बात उभर कर आती है कि व्यापक जनहित में एक नितांत अपरिचित महामारी से बचाव हेतु कठोर उपाय करने में सरकारों ने तत्परता दर्शाई तथा उन्हें व्यापक जनसहयोग मिला।
आलोचक कहेंगे कि ऐसा इस कारण था कि वैश्विक स्तर पर भी महामारियों से लड़ने हेतु पर्याप्त व प्रशिक्षित तंत्र उपलब्ध नहीं था/है तथा यह उस पूँजीवादी व्यवस्था का अभिशाप है जो कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को मात्र प्रदर्शन हेतु सम्मान देती है, उसके प्रति समर्पित नहीं। यदि कथित पूँजीवाद ही दोषी है तो वे लोग भी उतने ही दोषी हैं जिन्होंने पूँजीवाद को इस प्रकार से नियन्त्रण लेने दिया। यह नहीं होता तो वह होता, ऐसा होता तो वैसा नहीं होता … अंतहीन वाग्विलास की सम्भावनायें हैं किंतु यह सचाई है कि आज सारा संसार इस आपदा से मिल कर लड़ रहा है जोकि अपने आप में बहुत बड़ी बात है।
इन पङ्क्तियों के लिखे जाने तक वैश्विक स्तर पर इस विषाणु के प्रतिकार हेतु ९९ टीकों के विकास पर काम चल रहा है और १७३ औषधियाँ विकासमान हैं। १० टीकों और ४८ औषधियों के मनुष्यों पर परीक्षण चल रहे हैं। क्या यह सूचना उत्साहवर्द्धक नहीं है? प्रगति पर समूचा विश्व दृष्टि रखे हुये है, क्या यह संतोषजनक नहीं है? ऐसी बातों से ही विश्वास बढ़ता है, लगता है कि हम इस महामारी पर भी विजय प्राप्त कर लेंगे तथा इसके कारण अर्थव्यवस्था पर पड़े दुष्प्रभावों का भी शमन कर लेंगे किंतु समय लगेगा।
आपदा व संकट से पूर्ण समाधान तक की कालावधि ही महत्त्वपूर्ण है। अभी तो केवल एक चरण ही पूरा हुआ है तथा परिस्थितियों के विकृत रूप अब आने आरम्भ होंगे। आर्थिक विपन्नता व अर्जन हेतु अवसरों की अनुपलब्धता प्रमुख संकट होंगे। ऐसे में मानवीय उत्कृष्टता, उद्योग, जिजीविषा, निष्ठा, अनुशासन, कर्मठता आदि कसौटी पर हैं। सफलता में ही हमारा उज्ज्वल भविष्य निहित है, एक जनसमूह व एक राष्ट्र के रूप में हमारे कुंदन रूप का निखरना या धूमिल हो जाना भी इससे जुड़े हैं।
उदात्त नागरिक चरित्र के प्रदर्शन का समय तो अब आगे आने वाला है जब बंधन और ढीले होंगे। एक बार आया विषाणु कहीं नहीं जाता, तब तक बना रहता है जब तक कि पोलियो अभियान की भाँति लग कर रोग की सारी सम्भावनायें ही न समाप्त कर दी जायँ। ऐसा एकाध महीने या वर्ष में नहीं होना। लम्बी अवधि तक भय की स्थिति रहनी है। हमें चीनी विषाणु के साथ जीना सीखना होगा। अपने आचरण को तदनुकूल बनाना होगा। वैश्विक स्तर पर बड़े मौलिक परिवर्तन घटित होंगे, हमें भी वैयक्तिक, पारिवारिक व सामाजिक परिवर्तन करने होंगे। सबसे बड़ी बात कि काम करने का ढंग परिवर्तित करना होगा, दृष्टि परिवर्तित करनी होगी। बन्दी के खुलने के पश्चात अकल्पित समस्यायें आयेंगी, विशाखापत्तनम में गैस रिसाव से जनहानि की घटना झाँकी मात्र है। दृष्टि के दूषण से दुर्गति होती है। बुद्ध कह गये हैं :
अलज्जिता ये लज्जन्ति लज्जिता ये न लज्जिरे।
मिच्छादिट्ठिसमादाना सत्ता गच्छन्ति दुग्गतिं॥
अभये च भयदस्सिनो भये च अभयदस्सिनो।
मिच्छादिट्ठिसमादाना सत्ता गच्छन्ति दुग्गतिं॥
लज्जा न करने की बात में जो लज्जित होते हैं, लज्जा करने की बात में लज्जित नहीं होते।
प्राणी मिथ्या-दृष्टि का ग्रहण करने से दुर्गति को प्राप्त होते हैं।
भय न करने की बात में भय देखते हैं, भय करने की बात में भय नहीं देखते।
प्राणी मिथ्या-दृष्टि का ग्रहण करने से दुर्गति को प्राप्त होते हैं।