पिछले भाग से आगे (Sundarkand रामपत्नीं यशस्विनीम्)
जाम्बवान का आग्रह सुन कर हनुमान की देह के रोम रोम हर्षित हो उठे – सम्प्रहृष्टतनूरुहः। उन्होंने सिर झुका कर देवी सीता को प्रणाम कर, प्रणम्य शिरसा देव्यै सीतायै, बताना आरम्भ किया –
दक्षिणी तट की ओर जाने हेतु महेंद्र पर्वत से आकाश की ओर मेरी छलांग तो आप सबने देखी ही थी – प्रत्यक्षमेव भवतां महेन्द्राग्रात्खामाप्लुतः। जाते हुये ही मार्ग में मानो घोर विघ्न के रूप में दिव्य स्वर्णिम शिखर आ गया – घोरं विघ्नरूपमिवाभवत्, काञ्चनं शिखरं दिव्यं । स्थितं पन्थानमावृत्य मेने विघ्नं च तं नगम्।
मैंने उसे नष्ट करने का विचार किया तो उसने अपना परिचय दिया –
पितृव्यं चापि मां विद्धि सखायं मातरिश्वनः॥
मैनाकमिति विख्यातं निवसन्तं महोदधौ।
मैं मातरिश्वा का सखा हूँ, अत: मुझे अपने पितृव्य सम जानो। मैं इस महासागर में निवास करता हूँ और मैनाक नाम से मेरी ख्याति है। कभी पर्वतों के पङ्ख हुआ करते थे जिन्हें इंद्र ने काट दिया।
मैं इंद्र के कोप से तुम्हारे दयालु पिता द्वारा बचा दिया गया जिन्होंने मुझे इस महार्णव में प्रक्षिप्त कर दिया था – प्रक्षिप्तोऽस्मि महार्णवे।
हे अरिंदम, मुझे राम की सहायता करनी ही चाहिये जो धर्मभृत जनों में श्रेष्ठ हैं, महेंद्र के समान ही विक्रमी हैं – रामो धर्मभृतां श्रेष्ठो महेन्द्रसमविक्रमः।
उनके वचन सुन कर मैंने ऊपर जाने की अपनी इच्छा प्रकट की जिसकी उन्होंने अनुमति दे दी।
उत्तमं जवमास्थाय शेषं पन्थानमास्थितः। ततोऽहं सुचिरं कालं वेगेनाभ्यागमं पथि॥
मैं बड़े वेग से अपने मार्ग पर बढ़ चला। मुझे पार करने में बहुत लम्बा समय लगा।
मैंने समुद्र बीच नागमाता देवी सुरसा को देखा – देवीं सुरसां नागमातरम्, समुद्रमध्ये सा देवी। उन्होंने मेरा भक्षण करने की मंसा प्रकट की।
सुन कर मैंने हाथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम किया तथा विवर्णमुख हो उनसे कहा – प्राञ्जलिः प्रणतः स्थितः। विवर्णवदनो भूत्वा वाक्यं चेदमुदीरयम्॥
दाशरथि श्रीमान् राम दण्डकवन में अपने भाई लक्ष्मण और सीता के साथ दण्डकवन में प्रविष्ट हुये जहाँ से दुरात्मा रावण ने उनकी भार्या सीता का अपहरण कर लिया – तस्य सीता हृता भार्या रावणेन दुरात्मना। मैं राम के आदेश से उनका दूत बन कर देवी सीता से मिलने जा रहा हूँ – तस्या स्सङ्काशं दूतोऽहं गमिष्ये रामशासनात्॥ अभी आप को उनकी पत्नी रानी सीता की सहायता करनी चाहिये (मुझे जाने देना चाहिये)। मैं उनका समाचार राम को सुना कर लौट आऊँगा और आप के मुख में प्रवेश कर जाऊँगा, यह मेरी प्रतिज्ञा है – आगमिष्यामि ते वक्त्रं सत्यं प्रतिशृणोमि ते।
कामरूपिणी सुरसा ने कहा कि मुझे वरदान है कि मुझसे बच कर कोई नहीं जा सकता। …
आगे हनुमान ने स्वयं एवं सुरसा के बीच आकार और मुख के योजन विस्तारी स्पर्द्धा सहित अङ्गूठे के जितना लघु रूप बना कर सुरसा से बचने के बारे में बताया – पुनर्बभूवाङ्गुष्ठमात्रकः और उनके चातुर्य से प्रसन्न सुरसा के वराशीर्वाद के बारे में भी बताया –
अर्थसिद्ध्यै हरिश्रेष्ठ गच्छ सौम्य यथासुखम्। समानय च वैदेहीं राघवेण महात्मना॥
सुखी भव महाबाहो प्रीताऽस्मि तव वानर।
हनुमान कहते चले गये –
तब मैं अंतरिक्ष में गरुड की भाँति प्लावन कर गया – ततोऽन्तरिक्षं विपुलं प्लुतोऽहं गरुडो यथा। किसी ने मेरी छाया पकड़ ली थी जिस मैं देख नहीं पा रहा था। नीचे देखने पर पानी में मुझे भीमाकार राक्षसी दिखी – ततोऽद्राक्षमहं भीमां राक्षसीं सलिलेशयाम्॥
मैंने उसके हृदयक्षेत्र में प्रविष्ट हो नभ की ओर छलांग लगा दी – तस्या हृदयमादाय प्रपतामि नभ:स्थलम्॥ हृदय निकाले जाने से वह निकृत्तहृदया सती लवणसागर में गिर पड़ी।
गत्वा च महदध्वानं पश्यामि नगमण्डितम्॥
दक्षिणं तीरमुदधेर्लङ्का यत्र च सा पुरी।
लम्बी दूरी तक गमन के पश्चात उदधि के दक्षिणी तीर पर मैंने विशाल वृक्षों से मण्डित उस लङ्का पुरी को देखा।
अस्तं दिनकरे याते – सूर्यास्त हो रहा था, मैं भीमविक्रम राक्षसों के जाने बिना ही उनकी पुरी में प्रविष्ट हो गया।
तत्राहं सर्वरात्रं तु विचिन्वन् जनकात्मजाम्। रावणान्तःपुरगतो न चापश्यं सुमध्यमाम्॥
मैं रावण के अंत:पुर में सारी रात सुमध्यमा जनकपुत्री को ढूँढ़ता रहा, वह नहीं दिखीं।
उन्हें न पा कर मैं शोकसागर में डूबा सोच ही रहा था कि लम्बे स्वर्णिम प्राकार से घिरा एक उत्तम गृह उपवन दिखा – प्राकारेण समावृतम्, काञ्चनेन विकृष्टेन गृहोपवनमुत्तमम्॥
मैं प्राकार को लाँघ कर भीतर चला गया।
स प्राकारमवप्लुत्य पश्यामि बहुपादपम्। अशोकवनिकामध्ये शिंशुपापादपो महान्॥
तमारुह्य च पश्यामि काञ्चनं कदलीवनम्।
वहाँ अनेक प्रकार के वृक्ष लगे हुये थे। वहीं अशोकवनिका के मध्य में एक विशाल शीशम का वृक्ष दिखा जिस पर चढ़ने पर कञ्चनवर्णी कदलीवन दिखा।
अदूरे शिंशुपावृक्षात्पश्यामि वरवर्णिनीम्॥
श्यामां कमलपत्राक्षीमुपवासकृशाननाम्।
राक्षसीभिर्विरूपाभिः क्रूराभिरभिसंवृताम्॥
मांसशोणितभक्षाभिर्व्याघ्रीभिर्हरिणीमिव।
शीशम वृक्ष के निकट मैंने पिघले कञ्चन के समान सुंदर वर्ण वाली सीता को देखा। उन कमलनयनी का मुख उपवास के कारण कृश हो गया था। वह मांसशोणितभक्षी विरूपा क्रूर राक्षसियों द्वारा सभी दिशाओं से वैसे ही घिरी हुई थीं जैसे बाघिनों के बीच कोई हिरनी हो।
तां दृष्ट्वा तादृशीं नारीं रामपत्नीं यशस्विनीम्।
तत्रैव शिंशुपावृक्षे पश्यन्नहमवस्थितः॥
उस नारी को जो राम की यशस्विनी पत्नी थीं, उस दशा में पा कर मैं उसी शीशम वृक्ष पर स्थित हो देखता रहा।
ततो हलहलाशब्दं काञ्चीनूपुरमिश्रितम्।
शृणोम्यधिकगम्भीरं रावणस्य निवेशने॥
तब मुझे रावण के निवास से स्वर्णनूपुरों की ध्वनि मिश्रित हुलकारी के अत्यधिक गम्भीर स्वर आते सुनाई दिये।
मैं अति उद्विग्न हो कर अपने को सिकोड़ कर घने शीशम के वृक्ष में किसी पक्षी की भाँति छिप गया – अहं तु शिंशुपावृक्षे पक्षीव गहने स्थितः॥
ततो रावणदाराश्च रावणश्च महाबलः।
तं देशं समनुप्राप्ता यत्र सीताऽभवत् स्थिता॥
महाबलवान दिखता रावण अपनी पत्नियों के साथ वहाँ आ पहुँचा जहाँ सीता थीं।
(क्रमश:)