Maximiser Vs Satisficer, मनोवैज्ञानकों ने निर्णय लेने के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण दो सरल रूपों में किया है – एक वे जो प्रत्येक निर्णय को इस प्रकार लेने का प्रयत्न करते हैं जिससे उन्हें अधिकतम लाभ मिले (maximiser), इन व्यक्तियों को अपने निर्णयों के पूर्णत: दोषमुक्त (perfect) होने चिंता बनी रहती है। और दूसरे वे जो अपने निर्णयों से प्रायः संतुष्ट होते हैं। अपने निर्णय को सफल मानने के जिनके पूर्वबन्ध सापेक्ष रूप से शालीन होते हैं (satisficer)।
सुख के अध्ययन में इन दोनों प्रकार के व्यक्तियों (पूर्णतावादी एवं संतोषी) और उनकी मानसिकता का विस्तृत अध्ययन हुआ है। प्रथम दृष्टि में यह प्रतीत होता है कि हर कार्य में अधिकतम लाभ तथा अधिक से अधिक विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ के चयन की आकांक्षा रखने वाले व्यक्ति को अधिक सुखी एवं सम्पन्न होना चाहिए परंतु इस आभासी सत्य के विपरीत अल्प विकल्पों में तर्क संगत रूप से जो यथोचित मिल जाए उसी में संतोष कर लेने वाले व्यक्ति अधिक सुखी पाए गए।
इन अध्ययनों को लोकप्रिय बनाने में मनोवैज्ञानिक बैरी श्वॉर्ट्स का नाम प्रमुखता से आता है। अपनी लोकप्रिय पुस्तक The Paradox of Choice – why more is less में उन्होंने ऐसे अध्ययनों को सरल प्रकार से प्रस्तुत किया जिसका सार यह है कि विकल्पों की प्रचुरता से व्यक्ति के सुख और संतोष में वृद्धि होने के स्थान पर दुष्चिन्ता और व्यग्रता जैसे विकार उत्पन्न होते हैं। साथ ही विकल्पों की बहुलता हमारे पास जो कुछ भी है उससे सुखी होने और उसके गुणों को पहचानने में विघ्न डालने का भी काम करती है।
ऐसा प्रतीत होता है कि सर्वश्रेष्ठ की इच्छा रखने वाले (maximiser) व्यक्ति अधिक सोच विचार कर तथा हर विकल्प का सटीक मूल्यांकन कर ही निर्णय लेते होंगे, जिसे वैसे व्यक्तियों (satisficer) के निर्णयों से तुलनात्मक रूप से अच्छा होना चाहिए जो आवश्यकताओं की पूर्ति करने मात्र वाले विकल्पों से भी संतोष कर लेते हैं। परंतु विभिन्न परिपेक्ष्य में किए गए अध्ययनों में यह पाया गया कि होता इसके विपरीत है, अर्थात प्रसन्न तो संतोषी व्यक्ति ही होते हैं ।
वर्ष २०१० में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार ऑनलाइन साथी ढूँढने में जो व्यक्ति उस एक सर्वगुण सम्पन्न (the one) की खोज करते रहे उनसे अधिक प्रसन्न थे जिन्होंने अपना समय अपने साथी के गुणों के अभिज्ञान में तथा उससे ही संतोष प्राप्त करने में व्यतीत किया। अर्थात एक सर्वगुण सम्पन्न जीवन साथी की कल्पना और मुझे तो वैसा ही चाहिए न सोच कर वास्तविक दृष्टि में स्थायी संतोष करने वाले अधिक संतुष्ट एवं सुखी होते हैं।
प्रो. श्वॉर्ट्स ऐसे विकल्पों की बहुलता के स्वप्न में भटकने वालों के अनेक उदाहरण देते हैं – सर्वगुण सम्पन्न जीवन साथी की खोज और प्रतीक्षा करने वाले, भोजन के विकल्पों पर विचार करने वाले, पाठ्यक्रम में पढ़ने के विभिन्न विषयों की बहुलता इत्यादि। ऐसी अवस्थाओं में हम बारम्बार अपने लिए गए निर्णयों को प्रश्नवाचक दृष्टि से देखते हैं तथा हम अपनी अपेक्षायें भी बढ़ाते जाते हैं जिससे हम अपनी त्रुटियों के लिए अपने को दोष भी देने लगते हैं — आधी छोड़ सारी को धावे, आधी मिले न सारी पावे!
प्रो. श्वॉर्ट्स अपने अध्ययन के निष्कर्ष में यह सुझाव देते हैं कि यदि आप के मन में यह प्रश्न उठे कि आपने सर्वश्रेष्ठ निर्णय लिया या नहीं, यथा आपने सबसे अच्छा कंप्यूटर क्रय किया या नहीं? क्या कोई और इससे अच्छा होता? या इसके स्थान पर अब नया लेना चाहिए इत्यादि तो अपने आपको शांत कर यह समझा लीजिए कि आपका कंप्यूटर आपकी आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त है। जीवन की हर अवस्था में ऐसा करने वाले (satisficer) निरंतर प्रसन्न रहते हैं इसके विपरीत जिन्हें लगता रहता है कि इससे भी अच्छा कंप्यूटर ले सकते थे (या हैं) वे निरंतर अप्रसन्न !
ऐसे व्यक्ति अपने जीवन की हर बात यथा सेवायोजन इत्यादि से भी असंतुष्ट ही रहते हैं तथा सामान्यतया नैदानिक अवसाद से ग्रस्त (clinically depressed ) होते हैं। इसे समझना कठिन नहीं है। अपने अध्ययन Doing Better but Feeling Worse: The Paradox of Choice में प्रो. बैरी श्वॉर्ट्स और ऐंड्रू वार्ड इसका कारण बताते हैं – जीवन में परिस्थितियाँ परिवर्तित होती रहती हैं जिसके साथ साथ व्यक्ति की इच्छाएँ भी परिवर्तित होती हैं। व्यक्ति अपने अनुभवों की तुलना अपने ही पूर्व के सुखद अनुभवों से तथा उन व्यक्तियों से करने लगता है जिनका जीवन उसे सुखद प्रतीत होता है —
As people have contact with items of high quality, they begin to suffer from “the curse of discernment.”
और वही वस्तुएँ जो कभी सुख का कारण थीं, कुछ समय के पश्चात अच्छी नहीं लगतीं। यह तुलना बहुधा मिथ्या ही होती है और यह क्रम आजीवन चलता रहता है। रोचक यह है कि संचार क्रांति के इस युग में यह मायाजाल और प्रखर हो चला है। उदाहरण के लिए दूसरे व्यक्तियों के चित्र, उनकी यात्राएँ और सर्वगुण सम्पन्न प्रतीत होते जीवन की रूप रेखा जो संचार माध्यमों फ़ेसबुक, इन्स्टग्रैम इत्यादि पर दिखती है, वह प्रायः भ्रामक होती है। हम जिन व्यक्तियों के चित्र देखकर अपने जीवन की तुलना करते हैं वे भी हमारे चित्र देख ऐसा ही करते हैं और इस प्रक्रिया में दोनों क्षणिक अप्रसन्न ही नहीं अंततः नैदानिक अवसाद से ग्रस्त भी हो जाते हैं।
ठीक ऐसा ही नित नए इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों के साथ होता है। व्यक्ति को निरंतर प्रतीत होता रहता है कि वह इससे अच्छा उत्पाद ले सकता था। इसका हल? – ठहर जाना! आवश्यकता की पूर्ति करने योग्य यथोचित विकल्प (settle with good enough instead of searching for best) को स्वीकार करना। चयनित विकल्प के गुणों को परखना और मूल्यों से तादात्म्य स्थापित करना, यह समझना कि अन्य विकल्प में भी दोष हैं। लेखिका आल्गा खजान लिखती हैं – It can be hard, in our culture, to force yourself to settle for “good enough.” But when it comes to happiness and satisfaction, “good enough” isn’t just good—it’s perfect.
समाज में ऐसे उदाहरण भी दुर्लभ नहीं है। हर प्रकार की अवस्था और कार्य करने वाले असंतुष्ट मिल जाते हैं। अधिक अच्छे की प्रतीक्षा, खोज और निरंतर तुलना से द्वेष का भी जन्म होता है। प्रो. श्वॉर्ट्स सुखी जीवन के लिए व्यावहारिक (practical) समझ विकसित करने को कहते हैं। साथ में चेतावनी भी कि अपने व्यक्तित्व में परिवर्तन कर ऐसा करना सरल नहीं है। वे लिखते हैं – ‘…the idea of the best is preposterous. There is no best anything. Good enough is virtually always good enough.’
मार्च २०१९ में प्रकाशित फ़्लोरिडा स्टेट विश्वविद्यालय के एक अन्य अध्ययन में भी यह पाया गया कि निर्णय लेने वाले व्यक्तित्व के स्वरूपों (maximizer or satisficer) से यह निर्धारित होता है कि व्यक्ति अपने जीवन साथी के साथ कितना संतुष्ट एवं सुखी रहता है। इस शोध की अग्रणी जुलीयाना फ़्रेंच कहती हैं,
“Maximizing people are constantly trying to obtain the very best outcomes in life, In the context of romantic relationships, maximizers are those who seek the best possible partner and who, over the course of their relationships continue to compare their partners to other potential partners. This could lead to overall lower satisfaction in maximizers’ long-term relationships if their partners do not compare favorably to those alternatives on qualities that are important to them. Or to put in another way: Some people are never satisfied.”
पुनः वास्तविकता यह है कि हर व्यक्ति दूसरे से भिन्न होता है परंतु भिन्न का अर्थ आवश्यक नहीं कि उत्तम भी हो! उत्पादों में हमारी आवश्यकता से अधिक की विशेषताओं से हमारे सुख में वृद्धि नहीं होती। यह समझ संतोष एवं सुख का जनक है। वर्तमान युग में यह सरल समझ अत्यंत कठिन हो जाती है जब हमें नित प्रतिदिन अन्य व्यक्तियों के आभासी मिथ्या जीवन की झलक देखने को मिलती रहती है। इन माध्यमों से दूर होना सम्भव नहीं है परंतु मनोवैज्ञानिकों के अनुसार हम अपनी समझ विकसित कर संतोषी (satisficer) बन सुखी रह सकते हैं।
संतोषी व्यक्ति अपने निर्णयों को लेकर पश्चाताप नहीं करते बल्कि प्रसन्न होते हैं। इसके विपरीत पूर्णतावादी अच्छे निर्णयों को लेकर भी निरंतर सोचते रहते हैं। ‘और अच्छा हो सकता था’ ऐसा पश्चाताप करते रहते हैं। एक सम्बन्ध से दूसरे, एक सेवायोजन से दूसरा इत्यादि। एक प्रकार की समस्या से दूर होने की सोच अंततः वे एक नयी प्रकार की समस्या में ही उलझते हैं। यही नहीं, विकल्पों (choices) की बहुलता से सुखी होने के स्थान पर इस व्यक्तित्व के व्यक्ति और दुखी होते हैं। ये आधुनिक अध्ययन क्या विस्तृत सनातन दर्शनों की एक सूक्ष्म कड़ी मात्र नहीं हैं?
चाणक्य ने तो देश-काल के अनुसार वर्गीकरण भी कर दिया कि किन परिस्थितियों में संतोष करना चाहिए किन में नहीं :
सन्तोषस्त्रिषु कर्तव्य: स्वदारे भोजने धने। त्रिषु चैव न कर्तव्योऽध्ययने तपदानयो : ॥
सनातन ग्रंथ हो या सुभाषित, संतोष पर तो अनेकानेक संदर्भ हैं एवं इच्छा के मिथ्या होने पर भी :
गोधन, गजधन, बाजिधन, और रतन धन खान। जब आवत सन्तोष धन, सब धन धूरि समान॥
‘विद्या कामदुघा धेनु सन्तोषो नन्दनं वनम्’ हो या ‘सन्तोषः परमो लाभः सत्सङ्गः परमा गतिः । विचारः परमं ज्ञानं शमो हि परमं सुखम् ॥’; इन श्लोकों का इस संदर्भ में अवलोकन इस मनोवैज्ञानिक दृष्टि को सही अर्थों में अद्भुत रूप से व्यक्त करता है।
अन्तो नास्ति पिपासायाः सन्तोषः परमं सुखम्।
तस्मात्सन्तोषमेवेह परं पश्यन्ति पण्डिताः ॥
न योजनशतं दूरं बाध्यमानस्य तृष्णया।
सन्तुष्टस्य करप्राप्तेऽप्यर्थे भवति नादरः ॥
संतोषं परमास्थाय सुखार्थी संयतो भवेत्।
संतोष मूलं हि सुखं दुखमूलं विपर्ययः ॥
सर्पाः पिबन्ति पवनं न च दुर्बलास्ते शुष्कैस्तृणैः वनगजा बलिनो भवन्ति ।
रुक्षाशनेन मुनयः क्षपयन्ति कालम् सन्तोष एव पुरुषस्य परं निधानम् ॥
किं बहुना? Maximizer और satisficer के सारे अध्ययन तथा प्रो. श्वॉर्ट्स की पुस्तक का सार इन श्लोकों में ही मिल जाता है :
संतोषामृततृप्तानां यत्सुखं शान्ति रेव च। न च तद्भनलुब्धानामिश्चेश्व धावताम् ॥
शान्तितुल्यं तपो नास्ति न संतोषात्परं सुखम् । न तृष्णया: परो व्याधिर्न च धर्मो दया परा: ॥
या फिर मानस की यह चौपाई – बिनु संतोष न काम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं।
भक्ति का आठवाँ रूप भी तो यही है – आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा ॥
और कठोपनिषद का – ‘न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्य’ हो या ‘को व दरिद्रो? – हि विशालतृष्णा। श्रीमांस्तु को? – यस्य समस्ततोष:।’
असंतुष्ट इच्छाओं को पूर्ण करने के प्रयास में संलग्न होने के उपरांत भी असंतुष्ट होने को भला सनातन दर्शनों से अधिक सुंदर रूप में कोई क्या कह सकता है? सन्तुष्ट: सततम्। सन्तोषादनुत्तमसुखलाभ:।