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सुभाषित
करपात्र या पाणिपात्र, जिसका हाथ ही भोजनपात्र है।
ब्रह्मा द्वारा आरुणि को संन्यास उपदेश का अन्तिम, पाँचवा मन्त्र। इस सामवेदीय लघु उपनिषद् में मात्र पाँच गद्य मन्त्र हैं।
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अहिंसा (जाबालदर्शनोपनिषद्)
यह उपनिषद् महायोगी दत्त आत्रेय द्वारा साङ्कृत को उपदिष्ट है। दत्तात्रेय अष्टाङ्ग योग उपदेश के आरम्भ में दस यम बताते हैं जिनमें अहिंसा प्रथम है।
यह सामवेदीय उपनिषद् अहिंसा की शास्त्रीय व्याख्या की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इस उपनिषद् में मात्र अपनी भार्या से ही उसके ऋतुकाल में यौन सम्बन्ध रखना ब्रह्मचर्य कहा गया है — ऋतौ भार्यां तदा स्वस्य ब्रह्मचर्यं तदुच्यते। उसके अतिरिक्त मन, वचन एवं काया द्वारा किसी अन्य स्त्री से यौन सम्बन्ध का त्याग आवश्यक है — कायेन वाचा मनसा स्त्रीणां परिविवर्जनम् ।
अहिंसा हेतु वेदोक्तेन प्रकारेण विना पर ध्यान दें। जो वेदोक्त अनुशासन या अनुमन्य है, हिंसा में नहीं माना जाता। नास्तिक दर्शन यथा जैन व बौद्ध वेदों की सत्ता नहीं मानते। यहीं वे आस्तिक दर्शनों से अपना मार्ग भिन्न कर लेते हैं। नास्तिक व आस्तिक की प्ररिभाषा ईश्वर सापेक्ष नहीं, वेद सापेक्ष है।
बौद्धों व जैनों की अहिंसा वेदमार्गियों की अहिंसा से भिन्न होगी, भाव या अर्थ में नहीं, सीमाओं, निष्पत्तियों व अपवाद में। जैन तो नहीं किंतु बौद्ध मत में मांसभक्षण अनुमन्य है, बन्ध यह है कि पशु वध उन मतावलम्बियों हेतु ही विशेष रूप से न किया गया हो, उन्होंने पशुवध देखा न हो और उसे होता जाना न हो।
शाकाहार व मांसाहार को ले कर बौद्धों में भी भीतरी मतभेद हैं। पुरातन थेरवादी बुद्ध के अनुकरण में मांसाहार को उनके बताये उक्त निषेधों के साथ अनुमन्य बताते हैं तथा महायानी त्याज्य। वज्रयानियों पर तांत्रिक मांसभक्षण का प्रभाव है।
अत:, यह कहना कि ब्राह्मणों ने बौद्धों के अनुकरण में मांसाहार का त्याग कर दिया, मिथ्या है। वस्तुत: जीव हत्या, शाकाहार व मांंसाहार को ले कर भारत में बुद्ध से बहुत पहले से ही वाद-विवाद व विमर्श चलते रहे हैं। दोनों धारायें समांतर प्रवाही रहीं किंतु पशुबलि व मांसाहार भी अनियंत्रित नहीं रहे, कठोर विधानों द्वारा नियंत्रित थे। स्मृतियाँ हों या बुद्ध अनुशासन, प्रमाण उपलब्ध हैं। याज्ञिक शब्दावली ऐसी है कि एक ही शब्द के जन्तु व वनस्पति, दोनों अर्थ मिलते हैं और इन दो भिन्न धाराओं वालों ने अपने मार्ग अनुसार अर्थ ले कर कर्मकाण्ड आदि किये।
नाक से ऊपर आ चुकी समस्याओं से कन्नी काटने हेतु या अपना अपना गाना सुनाने हेतु शाकाहार व मांसाहार को ले कर चल रहा कुकुरझाँव वज्र मूर्खता है।
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अप्रमादी इन्द्र (बुद्ध, धम्मपद)
अप्पमादेन मघवा देवानं सेट्ठतं गतो।
अप्पमादं पसंसन्ति पमादो गरहितो सदा॥
अप्रमाद के कारण इन्द्र देवताओं में श्रेष्ठ बने। सभी अप्रमाद की प्रशंसा करते हैं और प्रमाद की सदा निन्दा होती है।
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एकला चलो रे (बुद्ध, धम्मपद)
चरञ्चे नाधिगच्छेय्य सेय्यं सदिसमत्तनो ।
एकचरियं दल्हं कयिरा नत्थि बाले सहायता ॥
विचरण करते यदि अपने से श्रेष्ठ या अपने समान व्यक्ति को न पाये, तो दृढ़ता के साथ अकेला ही विचरे। मूर्ख का साथ अच्छा नहीं।
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रामायण
आम्रं छित्त्वा कुठारेण निम्बं परिचरेत् तु क: ।
यश्चैनं पयसा सिञ्चेन नैवाऽस्य मधुरो भवेत् ॥
लोक में प्रचलित समान भाव का छन्द,
नीम न मीठो होय सींचों उद अर घीया सें ।
जिसका पड्या सुभाव क जासी जीव सैं ॥