पिछली कड़ियाँ : 1 , 2 , 3 , 4, 5, 6 , 7, 8, 9,10, 11 , 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18, 19, 20, 21, 22 , 23, 24, 25, 26, 27
सुभाषित
पद्मपुराण
सोमपायी भवेद्यत्र तीर्थं तत्र प्रतिष्ठितम्
आरामो यत्र वै पुण्यो अश्वत्थो यत्र तिष्ठति
ब्रह्मवृक्षो भवेद्यत्र वटवृक्षस्तथैव च
अन्ये च वन्यसंस्थाने तत्र तीर्थं प्रतिष्ठितम्
जहाँ सोमयागी हो वहाँ तीर्थ की प्रतिष्ठा है, सुख है, पुण्यस्थल है। जहाँ अश्वत्थ (पीपल) हो या वटवृक्ष (बरगद) हो या जहाँ ब्रह्मवृक्ष (पलाश या गूलर) हो; तीर्थ होता है। अन्य वनप्रान्तर भी तीर्थ की प्रतिष्ठा रखते हैं।
वन में तापस जन निवास करते थे, वानप्रस्थी हेतु तो वन के अतिरिक्त जोती हुई भूमि पर खड़े होने का भी निषेध था!
अर्थात यदि आप वाटिका लगाते हैं तो अपने लिये तीर्थ का ही निर्माण करते हैं! भाँति भाँति के वृक्षों, पुष्पों व फलों से युक्त विहगमय स्थल तीर्थ हो जाता है।
मनु के यहाँ कुछ रोचक सङ्केत मिलते हैं। त्रिवर्ण वटुकों के दण्डों की बात करें तो ब्राह्मण का बेल या पलाश का,क्षत्रिय का वट या खादिर का व वैश्य का पीलू या गूलर का होना चाहिये।
त्रिदण्डी वह है जिसके पास वाग्दण्ड, मनोदण्ड व कायदण्ड अर्थात वाणी, मन व काया तीनों का संयम हो।
आराम शुद्ध संस्कृत शब्द है, रम्यता व सुख से सम्बद्ध।
~~~~~~~~~~~~~~~
ऋग्वेद
भृगव: न रथं अतक्षाम – जैसे भार्गव जन रथ का तक्षण अर्थात निर्माण करते हैं;
वां एतं स्तोमं अकर्म – वैसे ही (हे अश्विनों) तुम्हारे लिये हमने यह स्तोत्र किया है।
यह अंश दर्शाता है कि वर्तमान वर्ण-व्यवस्था ऋग्वैदिक ऋचाओं की परवर्ती है। शङ्करपीठ द्वारा स्पष्ट किया जाता रहा है कि वर्ण व जाति एक हैं, यह कालांतर का स्मार्त विकास है।
महान विभूतियों के विनियोग को लेकर आजकल विविध जातिवादी समूहों में वाद-विवाद चलते रहते हैं। एक उदाहरण आदिकवि भार्गव वाल्मीकि का है। उन्हें ‘केवल’ ब्राह्मण सिद्ध करने हेतु अनेक पौराणिक क्षेपक जोड़े गये, जबकि जातिवादी चेतना से बहुत बहुत पुराने भार्गवों को किसी एक वर्ण या जाति में सीमित करना हास्यास्पद ही है। आग में पकाये मृद्भाण्ड, छाता, पनही आदि के आविष्कारक भार्गव रहे। महाभारत में कुम्हार की शाला भार्गवशाला कही गयी है अर्थात तब तक भार्गवों के अवदान की स्मृति बनी हुई थी।
इस अंश से स्पष्ट है कि वे रथनिर्माता भी रहे। ये सभी कर्म कुशीलव शिल्पी कथित शूद्र कर्म में आते हैं। वस्तुत: शूद्र वर्ण की अवधारणा ही बहुत परवर्ती है। लोग सोच ही नहीं पाते कि एक ही मूल या स्कम्भ से विविध शाखायें हो सकती हैं तथा वाल्मीकि आजकल प्रचलित ब्राह्मण व शूद्र, दोनों द्वारा पुरखा माने जा सकते हैं।
~~~~~~~~~~~~~~~
मैं प्राचीन, स्तोत्र के अभिलाषी इस अग्नि के लिये इस अति उत्तम नवीन और सुन्दर स्तुति को कहता हूँ।
स्तुतिकर्ता लोग इन्द्र से पालन और रक्षा को प्राप्त करते हैं। सूर्य से दृष्टिसामर्थ्य और वर्षक इन्द्र से पौरुष और बल पाते हैं।
यद्यपि ये मंत्रांश विविध सूक्तों से लिये गये हैं, तदपि वेदों के एक महत्त्वपूर्ण पक्ष को उद्घाटित करते हैं जो देवताओं के दो या तीन संख्या में समूहों से सम्बंधित है। ऐसी ही अवधारणा इन्द्राग्नि की है। अग्नियों को सूर्य के तीन रूपों से भी समझाया गया है।
प्रथम अंश के प्राचीन एवं नवीन पर ध्यान दें। अग्नि प्राचीन है अर्थात सदा से आप के भीतर है परंतु जिस प्रकार से देह की कोशिकायें नवीन होती रहती हैं, उसी प्रकार उनमें निहित आप को भी होना चाहिये। आप के कर्म, आप के वचन एवं आप का चिन्तन ऐसे हों जो आपको निरंतर और सुंदर करते रहें। आप के भीतर जीवनशक्ति रूपी पुरातन अग्नि है, किन्तु उसे आपकी नवोन्मेषी स्तुतियों की आवश्यकता रहती है। स्तुतियाँ क्या हैं – मनसा, वाचा, कर्मणा नव्यता की साधना हैंं, उद्योग हैंं।
जो ऐसे हैं, उन्हें इंद्रियों का पोषक देवता इंद्र पोषण और शक्ति प्रदान करता है, अस्तित्त्व की रक्षा करता है।
और
सूर्य देवता आगे आगे, तामस की तिरस्करिणी के पार देखने की सामर्थ्य देता है। ऐसे जन ही इंद्र की कृपा वर्षा से लाभान्वित होते हैं, पत्थर पर वर्षा से क्या होना जाना?
जिस जाति ने, जिस देश ने इन सूत्रों को जीवन का अङ्ग बना लिया, विकसित हो गये, भले उनके यहाँ ऋग्वेद न हो, मंत्र न हों। जिन्होंने मर्म समझा, बढ़ गये। जो केवल भारवाही बने रहे, वहीं के वहीं रहे।
~~~~~~~~~~~~~~~
चाणक्य
अत्यासन्ना विनाशाय दूरवस्था न फलप्रदाः ।
सेवितव्यं मध्यभागेन राजा वह्निर्गुरुः स्त्रियः ॥
न अति दूरी, न अति निकटता, फलप्राप्ति हेतु इन चार का सेवन मध्यमार्गी हो कर करें – राजकीय जन व सुविधायें, आग, गुरुजन व स्त्री।
~~~~~~~~~~~~~~~
ब्राह्मणधम्मिकसुत्तं
(नवम् विष्णु अवतार भगवान बुद्ध)
माता, पिता, भ्राता एवं अन्य सुहृदों की भाँति ही गायें हमारी परम मित्र हैं। उनसे ही औषधियाँ प्राप्त होती हैं। गोवंश अन्नदायी है, बलदायी है, सौंदर्य व सुखदायी भी। इन बातोंं के ज्ञानी ब्राह्मण गोहिंसा नहीं करते थे।
कोसल महाशाला के वयोवृद्ध आदरणीय ब्राह्मणों की पृच्छा पर यह भगवान का कथन है।
~~~~~~~~~~~~~~~
धम्मपद
ते झायिनो साततिका, निच्चं दल्ह परक्कमा।
फुसन्ति धीरा निब्बानं, योगक्खेमं अनुत्तरं॥
उट्ठानवतो सतिमतो, सुचिकम्मस्स निसम्मकारिनो।
सञ्ञतस्स च धम्मजीविनो, अप्पमत्तस्य यसोभिनड्ढति ॥
सतत ध्यान का अभ्यास करने वाले नित्य, दृढ़ पराक्रमी वीर पुरुष परमपद योगक्षेम निर्वाण का लाभ पाते हैं।
जो उद्योगी, सचेत, शुचि कर्म वाला तथा सोच कर काम करने वाला है, संयत, धर्मानुसार जीविका वाला एवं अप्रमादी है, उसका यश बढ़ता है।
~~~~~~~~~~~~~~~
अथर्ववेद
भूम्यां मनुष्या जीवन्ति स्वधयान्नेन मर्त्याः।
सा नो भूमि: प्राणमायुर्दधातु जरदष्टिं मा पृथिवी कृणोतु॥
वह भूमि मेरे भीतर प्राण और दीर्घ आयु धारण करे। पृथ्वी मुझे वृद्धावस्था तक जीवित रहने वाला करे।
यह सनातन पर्यावरणीय चेतना है। अन्योन्याश्रित सम्बन्ध बस नहीं, आप वही हैं। भूमि आप के भीतर ही दीर्घायु होती है। अपने भीतरी महाल को दिव्य रखें, स्वयं जीवन से पूर्ण रहें और भूमि को भी रखें। ऐसे में मृत्यु तो है ही नहीं!