Phragmites karka नल नरकुल हरे कट जायें, वैसे नष्ट होते हैं वे मूर्ख …
पिछली कड़ियाँ : 1 , 2 , 3 , 4, 5, 6 , 7, 8, 9,10, 11 , 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18, 19, 20, 21, 22 , 23, 24, 25, 26, 27, 28, 29, 30, 31
… जो अनागत भविष्य की सोच होते हैं व्याकुल और अतीत की सोच होते हैं शोकातुर।
अनागतप्पजप्पाय, अतीतस्सानुसोचना।
एतेन बाला सुस्सन्ति, नळोव हरितो लुतो’’ति॥
[ संयुत्तनिकायो, सगाथावग्गो, १. देवतासंयुत्तं, १. नळवग्गो]
पिछली कड़ी में उशीर की चर्चा के साथ नळ का उल्लेख हुआ था जिसे लोक में नरकुल एवं नल के नाम से भी जाना जाता है।बाँस के लघु रूप सा दिखने वाला नरकुल उस भूमि पर बहुलता से होता है जहाँ जलस्तर ऊँचा हो या छिछला पानी लगा रहता हो। ऐतिहासिक बुद्ध जिस धरती पर जन्मे थे, वहाँ नरकुल की बहुलता थी। उनके उपदेशों में तो चर्चा है ही, इतर बौद्ध वाङ्मय में नळ के उल्लेख से तत्कालीन समाज में इस वनस्पति के बहुविध उपयोग के बारे में पता चलता है।
नळ या नरकुल से विविध उपादान बनाये जाते थे, यथा – बिठई, टोकरी, कुटिया एवं पनही भी! जातक अट्टकथा – ४ में व्यापारियों द्वारा समुद्री व्यापार का उल्लेख है, जिसमें नळवन व वेळुवन (वेणुवन, बंशीवन) अर्थात नरकुल के जङ्गल का उल्लेख हुआ है –
११५.
कुरुकच्छा पयातानं, वाणिजानं धनेसिनं।
नावाय विप्पनट्ठाय, कुसमालीति वुच्चती’’ति॥
तस्मिं पन समुद्दे नीलमणिरतनं उस्सन्नं अहोसि। सो तम्पि उपायेनेव गाहापेत्वा नावायं पक्खिपापेसि। नावा तम्पि समुद्दं अतिक्कमित्वा नळवनं विय वेळुवनं विय च खायमानं नळमालिं नाम समुद्दं पापुणि। वाणिजा –११६.
यथा नळोव वेळूव, समुद्दो पटिदिस्सति। सुप्पारकं तं पुच्छाम, समुद्दो कतमो अय’’न्ति॥ –
गाथाय तस्सपि नामं पुच्छिंसु। महासत्तो अनन्तरगाथाय कथेसि –११७.
कुरुकच्छा पयातानं, वाणिजानं धनेसिनं। नावाय विप्पनट्ठाय, नळमालीति वुच्चती’’ति॥
तस्मिं पन समुद्दे मसारगल्लं वेळुरियं उस्सन्नं अहोसि। सो तम्पि उपायेन गाहापेत्वा नावायं पक्खिपापेसि। अपरो नयो – नळोति विच्छिकनळोपि कक्कटकनळोपि, सो रत्तवण्णो होति। वेळूति पन पवाळस्सेतं नामं, सो च समुद्दो पवाळुस्सन्नो रत्तोभासो अहोसि, तस्मा ‘‘यथा नळोव वेळुवा’’ति पुच्छिंसु। महासत्तो ततो पवाळं गाहापेसीति।
सुप्पारक शूर्पारक क्षेत्र ही है तथा एक अन्य पाठ ‘भरुकच्छापयातानं वणि-जानं धनेसिनं, नावाय विप्पनट्ठाय अग्गिमालीति वुच्चतीति।‘ से देखें तो यह अंश भड़ौच से प्रस्थान कर समुद्री यात्रा के पश्चात सुदूर पश्चिमी भूमि तक भारतीय वणिकों के पहुँचने का उल्लेख करता है। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण सङ्केत है कि उस समय में भी भारतीय व्यापारियों की धाक इतनी दूर तक थी।
इस क्षेत्र का अभिज्ञान यूफ्रेटीस और टाइग्रिस नदियों के सङ्गम से नीचे आधुनिक इराक के क्षेत्र शत्त-अल-अरब से किया गया है।
लेख के आरम्भ में उद्धृत छन्द एक देवता के इस प्रश्न पर बुद्ध द्वारा दिये उत्तर का उत्तरांश है –
अरञ्ञे विहरन्तानं, सन्तानं ब्रह्मचारिनं।
एकभत्तं भुञ्जमानानं, केन वण्णो पसीदती’’ति॥
जो अरण्य में विहार करते हैं, शांति के साथ ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। दिन में केवल एक बार आहार ग्रहण करते हैं, उनका वर्ण इतनी प्रसीद आभा से क्यों युक्त होता है?
अतीतं नानुसोचन्ति, नप्पजप्पन्ति नागतं।
पच्चुप्पन्नेन यापेन्ति, तेन वण्णो पसीदति’’॥
वे अतीत पर शोक नहीं करते और अनागत पर चिंता नहीं करते। जो वर्तमान में उपलब्ध है, उससे ही अपना जीवनयापन कर लेते हैं। इस कारण उनका वर्ण इतनी प्रसीद आभा से युक्त होता है।
भगवद्गीता के इस श्लोक से तुलना करें –
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥
है न समता? विचार पक्ष से बुद्ध सनातन धारा के ही एक प्रतिनिधि हैं।
नळ चित्र आभार : Hareschandra Jayaneththi, Young Zoologists’ Association in Sri Lanka