Sundarkand सुंदरकांड उत्तरं पारं, पिछले भाग से आगे
अरिष्ट पर्वत की नीलाभ वनश्रेणियों में पद्मक, साल, ताल, अश्वकर्ण व बाँस के ऊँचे वृक्ष छाये हुये थे। नाना मृगों व वनचरों के साथ साथ कह धातुओं के निष्यंद से भूषित था – धातुनिष्यन्दभूषितम् । वह अनेक प्रपातों से पूरित था जिनसे आते प्रवाह को शिलाओं के ढेर कठिन बना रहे थे – बहुप्रस्रवणोपेतं शिलासञ्चयसङ्कटम्।
तमारुरोह हनुमान् पर्वतं पवनात्मजः। रामदर्शनशीघ्रेण प्रहर्षेणाभिचोदितः॥
भूधर का आधार था व प्लावन करने की पवनसामर्थ्य, श्रीराम के शीघ्र दर्शन को उत्सुक पवनपुत्र हनुमान उस पर्वत पर सहर्ष चढ़ गये।
तेन पादतलाक्रान्ता रम्येषु गिरिसानुषु। सघोषास्समशीर्यन्त शिलाश्चूर्णीकृतास्ततः॥
छलाँग लगाने को उद्यत मारुति के के पाँवों के दबाव से शिलायें चूर्ण होने लगीं, तीव्र ध्वनि के साथ पत्थर नीचे गिरने लगे। लवणसागर को पार कर दक्षिण से उत्तर की यात्रा हेतु हनुमान ने अपनी देह का प्लवन विस्तार कर लिया – स तमारुह्य शैलेन्द्रं व्यवर्धत महाकपिः। दक्षिणादुत्तरं पारं प्रार्थयन् लवणाम्भसः॥
स मारुत इवाऽकाशं मारुतस्यात्मसम्भवः – मारुति ने मरुतदेव के समान ही आकाश में कूद लगाई।
तस्योरुवेगोन्मथिताः पादपाः पुष्पशालिनः॥ निपेतुर्भूतले रुग्णाश्शक्रायुधहता इव।
उनकी जङ्घाओं के मथित हो पुष्पित पादप भूमि पर गिर पड़े जैसे कि इन्द्र के वज्र प्रहार से टूट गये हों (मानो बिजली गिरी हो!)। पर्वत की निवासी व विद्याधरियाँ आदि त्रस्त हो गये।
वाल्मीकि मुनि हनुमान के प्रत्यागमन उद्योग को भी उतना ही अलङ्कृत बिम्ब सौंदर्य प्रदान करते हैं जितना महेंद्र पर्वत से इधर आने के उद्योग को।
दशयोजनविस्तारस्त्रिंशद्योजनमुच्छ्रितः॥ धरण्यां समतां यातः स बभूव धराधरः।
दस योजन विस्तार व तीस योजन ऊँचाई वाला वह पर्वत छलाँग लगाते हनुमान के पाँवों के दबाव से धरती में समा गया!
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बहुधा प्रश्न पूछा जाता है कि हनुमान जी आकाश मार्ग से गये या सागर तैर कर पार किये? सागर-सन्तरण शब्द पर ध्यान न दे लोग काव्य के भव्य विशाल बिम्ब को अभिधात्मक मान ऐसे प्रश्न करते हैं। संस्कृत साहित्य में आकाश एवं विराट जलधि हेतु बहुत से शब्द एक समान भी प्रयुक्त होते हैं। प्लवन किसी द्रव व वायु, दोनों माध्यमों में गति हेतु प्रयुक्त होता है।
स चन्द्रकुमुदं रम्यं सार्ककारण्डवं शुभम्। तिष्यश्रवणकादम्बमभ्रशैवालशाद्वलम्॥
पुनर्वसुमहामीनं लोहिताङ्गमहाग्रहम्। ऐरावतमहाद्वीपं स्वातिहंसविलोलितम्॥
वातसङ्घातजातोर्मि चन्द्रांशुशिशिराम्बुमत्। भुजङ्गयक्षगन्धर्वप्रबुद्धकमलोत्पलम्॥
सीताजी से मिलने के पश्चात उष:काल में हनुमानजी जब लंका से प्रस्थान करते हैं तो महर्षि वाल्मीकि अद्भुत उपमायें गढ़ते हैं। इस प्रसंग से सागर और आकाश की साम्यता का पता तो चलता ही है, नाक्षत्रिक संकेत भी अद्भुत हैं।
हनुमान सागर को एक विशाल जलपोत की भाँति पार कर रहे हैं। आकाश, क्षितिज और सागर मिल कर कैसा दृश्य उपस्थित कर रहे हैं!
सूर्य और चन्द्र दोनों दिख रहे हैं (पूर्णिमा के आसपास का समय?)। चन्द्रमा खिला कुमुद है। सूर्य कारण्डव नामक जलपक्षी है। पुष्य और श्रवण नक्षत्र हंस हैं तो बादल शैवाल। पुनर्वसु महामीन है। लोहितांग मंगल महामगर है। ऐरावत रूपी वृश्चिक महाद्वीप की भाँति प्रतीत होता है और स्वाति नक्षत्र तैरता हंस।
संघात से उपजी वायु ही सागर लहरे हैं। चन्द्रमा की किरणें ही शीतल जल हैं (शिशिर?) और भुजंग, यक्ष, गन्धर्व मानो खिले हुये कमल के फूल हैं।
शिशिर शब्दप्रयोग से सहज ही जिज्ञासा होती है कि क्या हनुमान जी ‘पूस की रात’ में लौटे? देखना पड़ेगा कि जो स्थितियाँ बताई गई हैं, वे कब कब बन सकती हैं?
(क्रमश:)