पहले एक कहानी, सामाजिक सञ्चार मञ्च पर ही कहीं दिखाई दी थी। यह कहानी कहीं की भी, किसी के भी बारे में हो सकती है। महत्त्वपूर्ण यह है कि कहानी कहने-सुनने की आवश्यकता है। उसका संदेश महत्त्वपूर्ण है।
किसी अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में एक देश के प्रतिभागियों ने निम्नकोटि का होते हुये भी स्वदेशी युक्ति का प्रयोग करने का निश्चय किया जबकि वे चाहते तो उत्तम आयातित युक्तियों का प्रयोग कर सकते थे। प्रतियोगिता के समय उनकी युक्तियों को बारम्बार ठीक करने की आवश्यकता पड़ती। एक प्रतिपक्षी ने उत्सुकतापूर्वक पूछा कि जब उत्तम गुणवत्ता के विकल्प सहज उपलब्ध थे तो घटिया स्वदेशी युक्ति का प्रयोग करने का निर्णय उन लोगों ने क्यों लिया? उसे उत्तर मिला कि आज हम भले गुणवत्ता नहीं दे पा रहे किंतु एक दिन अवश्य सफल होंगे। असफलता की आशङ्का में हम उसका प्रयोग नहीं त्यागेंगे जिसे हमने स्वयं बनाया है।
व्यावहारिक बुद्धि वालों को यह तर्क हास्यास्पद लग सकता है किंतु इसके नेपथ्य में जो उत्कट इच्छा, आग कहना चाहिये, है उस पर ध्यान देने की आवश्यकता है। निम्न बातें स्पष्ट हैं –
(१) उनमें प्रतियोगी होने की प्रबल इच्छा थी। आत्मसम्मान की प्रबलता इतनी हो कि समस्त मानसिक बाधायें टूट जायें, ऐसा तब ही हो पाता है।
(२) वे ऐसी युक्ति के निर्माण में लगे हुये थे जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर के प्रतियोगी हो सकें। उद्योगी आत्मविश्वास हो तब ही ऐसे कर्म में लोग लगते हैं।
(३) यह जानते हुये भी कि उनकी युक्ति में दोष हैं, उन्होंने प्रतियोगिता में भाग लेने का निश्चय किया । अल्पकालिक जय पराजय से यह बहुत आगे की स्थिति है जब अपनी उपस्थिति को चिह्नित करना होता है।
(४) उन्होंने अल्प गुणवत्ता के निजी निर्माण के प्रयोग का निश्चय किया। यह ऊपर के तीन बिंदुओं का सार है कि हममें आत्मसम्मान है, आत्मविश्वास है, बाधाओं एवं जय पराजय के साथ भी स्वयं की उपस्थिति दर्शानी है तथा यह लम्बी अवधि को भी सहन करने वाली दूरदर्शिता भी है कि अंतत: एक दिन हम सफल होंगे।
चीन के साथ उठे नये विवाद के साथ ही स्वदेशी, विदेशी के बहिष्कार आदि की बातें पुन: चर्चा का अङ्ग हैं। बहुत पहले से समय समय पर ऐसा होता रहा है किंतु क्या राष्ट्रीय स्तर पर हममें वास्तव में आग है? आत्मसम्मान? आत्मविश्वास? स्वयं की उपस्थिति दर्शाने की इच्छा? धैर्य व दूरदर्शिता? साहस? चरित्र?
सब जानते हुये भी हम चीनी ‘टिकटाक’ से छुटकारा नहीं पा सकते। गुगल उसकी पचास लाख भारतीय समीक्षायें एक झटके में उड़ा देता है, हम सिवाय काँय काँय के कुछ नहीं कर पाते। हमारा अपना कोई सोशल मीडिया मञ्च नहीं। सरकारी तंत्र दूर-अधिवेशन हेतु सुरक्षा सम्बंधित समस्याओं के होते हुये भी एक विदेशी ऐप का प्रयोग करने को बाध्य है। वह दिन दूर नहीं जब गुगल, फेसबुक, ट्विटर जैसे बड़े समूह सुषुप्त देशों के भाग्य लिखेंगे। कहने को हम आई टी शक्ति हैं। १३८ करोड़ की जनसंख्या वाले देश में कितनों का आत्मसम्मान इतना जागा है कि कहानी के पात्रों की भाँति लग जायें? क्या तंत्र ठोकर खा कर नवोन्मेष को प्रेरित व पोषित करने की दिशा में लगा है? उसे अंतर पड़ता भी है? वास्तविकता यह है कि द्रुत धनार्जन व सुविधाओं की आकांक्षा लिये हम राष्ट्रीय चरित्र व उदात्तता को तिलाञ्जलि दे चुके हैं।
हम केवल तात्कालिक प्रभाव में केवल बातें करने वाले जन हैं। जो कुछ गिनाया, उसके लिये जिस राष्ट्रीय चरित्र की आवश्यकता है, हममें नहीं है। वैसा चरित्र गढ़ सके, हमारी शिक्षा पद्धति वैसी नहीं है। हम भौंड़ी अनुकृति वाले, ‘जुगाड़जीवी’ जन हैं। प्रत्येक राष्ट्र अपने आप में अनूठा होता है, उसकी समस्यायें व उनके समाधान भी अनूठे होते हैं। जिनमें भीतर से समाधान आते हैं, वे आगे बढ़ जाते हैं। जो विचार व प्रक्रियाओं के भी आयात में विश्वास रखते हैं, वे केवल ‘शील’ते रह जाते हैं – विकास’शील’, प्रगति’शील’ आदि। भारत में विशाल जनसंख्या के कारण हिंदी क्षेत्र ऐसी स्थिति हेतु अधिक उत्तरदायी है।
दिल्ली एवं चण्डीगढ़ को उनकी विशिष्ट स्थिति के कारण न जोड़ें तो भारत में कुल नौ हिंदीभाषी राज्य हैं जिनमें सकल जनसंख्या का ४५ प्रतिशत बसता है। इस क्षेत्र का औसत प्रति व्यक्ति वार्षिक शुद्ध उत्पादन राष्ट्रीय औसत का मात्र दो तिहाई है। राष्ट्रीय उत्पादन में हिन्दी क्षेत्र का भाग मात्र ३०% है! आध्यात्म का दिखावा करने वाला यह क्षेत्र भौतिक रूप से पिछड़े होने पर भी देश के अन्य भागों से अधिक ‘सुखी’ हो, ऐसी भी भूटानी दशा नहीं है। हरियाणा, हिमाचल एवं उत्तराखण्ड को छोड़ दें तो शेष छ: राज्यों का औसत उत्पादन राष्ट्रीय औसत से नीचे है। छोटे राज्यों के अभिभाषी इस बात पर ललचायेंगे किन्तु यह वही बात होगी जो हिंदी पट्टी की विशेषता है – सचाई से मुँह चुरा कर बातें बनाना। यदि यह क्षेत्र अपना उत्पादन राष्ट्रीय औसत के समान ही कर ले तो उसका क्या परिणाम होगा? वित्तीय वर्ष २०१८-१९ का आधार लें तो ऐसा होने पर लगभग २७ लाख करोड़ रुपयों की शुद्ध उत्पादन वृद्धि प्रति वर्ष होगी। इसका महत्त्व इससे पता चलता है कि चीनी विषाणु के कारण थम गयी अर्थव्यवस्था को गति देने हेतु जो धन केंद्र सरकार द्वारा उपलब्ध कराया जाना है, वह २० लाख करोड़ रुपये है अर्थात यदि ये राज्य राष्ट्रीय स्तर तक ही आ जायें तो ऐसी आपदाओं को हम चुटकियों में झेल सकते हैं। आपदायें सदैव तो आती नहीं, अत: उत्पादन की वृद्धि पुन: पुन: निविष्ट होती रहेगी। परिणाम होगा – चक्रवृद्धि दर से हिंदी क्षेत्र सहित पूरे देश का त्वरित विकास।
बहुधा हम सरकारों को दोष देने लगते हैं। सरकारें तो हमसे ही हैं न? देश के जो अन्य समृद्ध क्षेत्र हैं, वे भी इसी सम्विधान, इसी तंत्र, इसी व्यवस्था में चल रहे हैं। अर्थात अंतर के कारण बाहरी नहीं, भीतरी हैं, हिंदी क्षेत्र के जन में हैं। भ्रष्टाचार इस क्षेत्र की प्रमुख समस्या है। जो जहाँ है, जैसे भी है, किसी भी लब्धि हेतु अधिकतर पहले भ्रष्टाचार की ही सोचता है कि कौन जुगत लगायें जो काम बन जाये! शुचिता सहज आचरण में नहीं, उनकी विवशता में है जिन्हें अवसर नहीं मिले या जो असमर्थ हैं। भारत के दस सबसे बड़े भ्रष्टाचार सङ्क्रमित राज्यों में से चार हिन्दी क्षेत्र से हैं। एक निश्चित स्तर व गत्यात्मकता प्राप्त कर लेने के पश्चात भ्रष्टाचार महत्त्वपूर्ण नहीं रह जाता क्योंकि सुधरा हुआ तंत्र उसे स्वत: नियंत्रित रखता है, आवश्यकता अल्प होती जाती है तथा अन्य कारक प्रभावी हो जाते हैं। किंतु उस स्तर तक पहले उठे तों! हिंदी क्षेत्र एक दुष्चक्र में उलझा हुआ है, आलस्य है, काहिली है तो भ्रष्टाचार है, भ्रष्टाचार है, इस कारण प्रवृत्ति उद्योगी नहीं। सार्वजनिक नैतिकता के ऐसे मानक हैं ही नहीं जिनकी रक्षा चाहे जो हो जाये, लोग करें ही करें। इस कारण चरित्र निर्माण नहीं हो पाता। जो मेधावी हैं, उनकी प्राथमिकता उस भ्रष्ट व्यवस्था के शीर्ष पर पहुँचने की रहती है, जहाँ से अधिकाधिक लाभ प्राप्त किया जा सके। जो नहीं हैं, वे या तो उन्हें पोसते हुये जीते हैं या अन्य समृद्ध राज्यों में श्रमिक बन कर चले जाते हैं। कुल मिला कर दोनों के द्वारा जितना योगदान होना चाहिये, नहीं हो रहा। बंदी के कारण इन राज्यों में लौटते श्रमिकों ने जाने कितने प्रश्न खड़े किये हैं किंतु उन पर जनसामान्य में विचार-विमर्श दिखता ही नहीं! जो दिखता है, वह क्षुद्र स्वार्थ व यथास्थिति में ‘हताश विश्वास’ की ही अभिव्यक्ति है।
सरलता में समझना हो तो उस स्थिति की कल्पना करें जब बचपन से ही पिलाई जाती समस्त घुट्टियों, मानसिक जड़ता व क्लीवता को त्याग कर कोई हिंदी युवा अपना उद्योग लगाने को तत्पर हो। वैसी स्थिति में –
- परिवार की क्या प्रतिक्रिया होगी? कितना सहयोग मिलेगा, आर्थिक या भावनात्मक ?
- सुहृद, मित्र व समाज प्रत्यक्ष या परोक्ष सहायता को आयेंगे क्या?
- शासन तंत्र कितना सहयोगी होगा?
- श्रमिक वर्ग क्या ‘अपने देस में’ वही काम करना चाहेगा जो बाहर, आँखि के अन्हे, करता है?
- आधारभूत संरचनायें क्या उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम होंगी? कितनी सहायक होंगी?
- उसका कितना शोषण होगा?
अब इसी स्थिति में महाराष्ट्र या गुजरात या तमिऴनाडु के किसी युवा को रख कर विचार करें। जो अन्तर दिखेंगे, वे ही हिन्दी क्षेत्र की वास्तविकता दर्शायेंगे।
ऐसे में यदि आप से कुछ नहीं हो पा रहा तो जो कुछ सार्थक करने की सोच रहे हैं, सामान्य जन हों या सरकार, उन्हें अपना सहयोग दें। अनुशासित हो स्वयं को हर प्रकार के कलुष से मुक्त करने के प्रयास करें। जातिवाद, भाई-भतीजावाद, चाहे जैसे हो स्वार्थ साधने की प्रवृत्ति, छल-छद्म आदि से ऊपर उठें। परिवर्तन एक दिन में नहीं होते, दशकों लग जाते हैं किंतु यदि यदि उनकी दिशा में प्रथम दिवस का श्रीगणेश ही नहीं होगा तो कभी नहीं होंगे और भगवान भरोसे रहने पर स्थिति वही रहेगी कि हम बढ़ेंगे तो किंतु अन्य भी बढ़ेंगे तथा हम तुलनात्मक रूप से वहीं के वहीं रह जायेंगे। निर्णय हमें लेना है। कॅरोना के रूप में जो वैश्विक सङ्कट आया, उसने बड़े अवसर भी प्रस्तुत किये हैं, उनसे कैसे लाभ लेना है, यह किसी राज्य या क्षेत्र की सकल प्रवृत्ति पर भी निर्भर करेगा। पराये को दोष देने का कोई अन्त नहीं है, लोग सरकार को दें, सरकार अधिकारियों को, अधिकारी पुन: लोगों व नेताओं को; चक्र अनन्त है, उसमें घूमते रहने से गाड़ी कहीं नहीं पहुँचनी। चिकनी हुई भूमि में फँसा चक्का घूमता हुआ भी केवल कीचड़ ही फेंक पाता है। हमें यह सोच कर इससे निकलना ही होगा कि दूसरे ही क्यों, हम क्यों नहीं?